जी.डी.पी में सिर्फ १४ फीसदी का योगदान करनेवाले
कृषि क्षेत्र की सरकार को कोई खास परवाह नहीं है
‘सूखा’ शब्द को लेकर उसकी घबराहट समझी जा सकती है. वे अच्छी तरह जानते हैं कि यह स्वीकार करते ही उन्हें खरीफ की फसल को बचाने के लिए आपात और वैकल्पिक योजना तैयार करनी पड़ेगी, राजकोषीय घाटे की चिंता छोडकर किसानों की मदद करनी पड़ेगी और आवारा पूंजी को खुश करने करने के लिए सब्सिडी खासकर खाद, डीजल और बिजली सब्सिडी में कटौती की योजना को टालना पड़ेगा.
आश्चर्य नहीं कि इन दोनों की नूरा कुश्ती का सबसे अधिक फायदा जमाखोर, मुनाफाखोर और सट्टेबाज उठाएंगे जो सूखे का बहाना बनाकर खाद्य वस्तुओं, फलों-सब्जियों और दूध की मनमानी कीमतें वसूलेंगे और आम गरीब उपभोक्ता इसकी कीमत चुकायेंगे जबकि दूसरी ओर, किसान एक बार फिर फसल के नुकसान और उसके कारण कर्ज जाल में फंसने को मजबूर होंगे.
इस देश में बाढ़ और सूखे के साथ राहत कार्यों की अर्थव्यवस्था अभिन्न रूप में जुडी हुई है और राहत के माल के महाभोज की कहानियां भी किसी से छुपी नहीं हैं. जाहिर है कि इन सभी के सूखे और बाढ़ में निहित स्वार्थ जुड़े हुए हैं और वे नहीं चाहते हैं कि आम गरीब किसानों को इससे मुक्ति मिले.
यह किसी से छुपा तथ्य नहीं है कि इन दो दशकों में कृषि प्राथमिकता सूची में बहुत नीचे चली गई और कृषि में सार्वजनिक निवेश में गिरावट दर्ज की गई. नतीजा यह हुआ कि इस दौर में बजट की कमी के कारण एक तो सिंचाई परियोजनाओं पर काम की गति कछुए से भी धीमी हो गई और दूसरी ओर, नहरों और नलकूपों की देखरेख न होने के कारण उनकी भी हालत बद से बदतर होती चली गई.
हैरानी की बात नहीं है कि इन दो दशकों में जी.डी.पी में कृषि का हिस्सा गिरते हुए आधे से भी कम रह गया है. १९९०-९१ में जी.डी.पी में कृषि क्षेत्र का हिस्सा लगभग ३० फीसदी था जो २०११-१२ में घटकर १४ फीसदी के आसपास रह गया है जबकि कृषि पर आश्रित लोगों की तादाद में बहुत मामूली कमी आई है.
विश्लेषकों के मुताबिक, अगर इस साल मॉनसून अच्छा नहीं रहता है तो इससे अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में अधिक से अधिक आधी फीसदी की कमी आएगी. यही कारण है कि सूखे की आशंकाओं के बावजूद नीति नियंताओं और अर्थव्यवस्था के मैनेजरों में वह बेचैनी, घबराहट और हड़बड़ी नहीं है जो औद्योगिक उत्पादन या सेवा क्षेत्र की वृद्धि दर में आई गिरावट के कारण दिख रही है.
('राष्ट्रीय सहारा' के परिशिष्ट 'हस्तक्षेप' में 7 जुलाई को प्रकाशित आलेख...)
यह साफ़ हो चुका है कि इस साल मॉनसून की बारिश औसत से कम रहनेवाली है
और जून महीने तक की बारिश सामान्य से ३१ फीसदी कम रही है. इससे सूखे की आशंका बढ़
गई है. इसके बावजूद कृषि मंत्री शरद पवार से लेकर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक
सिंह अहलुवालिया के चेहरों पर कोई शिकन नहीं है. वे निश्चिंत हैं.
उनका कहना है कि
जून में मॉनसून की बारिश कम होने के बावजूद चिंता की कोई बात नहीं है. उनका दावा
है कि अभी मॉनसून के तीन महीने बचे हुए हैं जिसमें अच्छी बारिश की उम्मीद है. इससे
खरीफ की फसल अच्छी रहने की उम्मीद बनी हुई है.
साफ़ है कि कृषि मंत्री या योजना आयोग के उपाध्यक्ष ‘सूखा’ शब्द के
जिक्र से बचना चाहते हैं. लेकिन उनके आत्मविश्वास की वजह यह नहीं है कि वे इन्द्र
देव की कृपा पर भरोसा करते हैं या भारतीय कृषि मॉनसून की विफलता से मुक्त हो चुकी
है. उन्हें सच्चाई पता है लेकिन वे उसे जाहिर करने से बच रहे हैं. ‘सूखा’ शब्द को लेकर उसकी घबराहट समझी जा सकती है. वे अच्छी तरह जानते हैं कि यह स्वीकार करते ही उन्हें खरीफ की फसल को बचाने के लिए आपात और वैकल्पिक योजना तैयार करनी पड़ेगी, राजकोषीय घाटे की चिंता छोडकर किसानों की मदद करनी पड़ेगी और आवारा पूंजी को खुश करने करने के लिए सब्सिडी खासकर खाद, डीजल और बिजली सब्सिडी में कटौती की योजना को टालना पड़ेगा.
जाहिर है कि यू.पी.ए सरकार इसके लिए तैयार नहीं है. वे ऐसी किसी भी
स्थिति को टालना चाहते हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि यू.पी.ए सरकार अगले दो-तीन
सप्ताहों तक सिवाय इन्द्र देव की प्रार्थना के और कुछ नहीं करने जा रही है. अगर
उसके भाग्य से अगले कुछ दिनों/सप्ताहों में मॉनसून की बारिश में कुछ सुधार हुआ तो
वह एक बार फिर कुछ भी करने की जिम्मेदारी और जवाबदेही से बच निकलेगी.
लेकिन अगर
मॉनसून उम्मीद के मुताबिक नहीं रहा तो भी उसके रूख से साफ़ है कि वह कुछ खास करने
नहीं जा रही है. वैसे भी एक बार सूखा पड़ने और फसल बर्बाद हो जाने के बाद कुछ करने
को नहीं रह जाता- ‘का बरसा जब कृषि सुखाने.’
उस स्थिति में सूखाग्रस्त क्षेत्रों को अधिक से अधिक कुछ दिखावटी मदद
की घोषणा कर दी जाएगी और बाकी जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल दी जायेगी. नतीजा,
मॉनसून की विफलता और सूखे को लेकर केन्द्र और राज्य सरकारों के वाक् युद्ध भी
होगा. राज्य सरकारें सूखे को केन्द्र से प्राकृतिक आपदा घोषित करने की मांग करेंगी
और केन्द्र सरकार उसे स्वीकार नहीं करेगी. आश्चर्य नहीं कि इन दोनों की नूरा कुश्ती का सबसे अधिक फायदा जमाखोर, मुनाफाखोर और सट्टेबाज उठाएंगे जो सूखे का बहाना बनाकर खाद्य वस्तुओं, फलों-सब्जियों और दूध की मनमानी कीमतें वसूलेंगे और आम गरीब उपभोक्ता इसकी कीमत चुकायेंगे जबकि दूसरी ओर, किसान एक बार फिर फसल के नुकसान और उसके कारण कर्ज जाल में फंसने को मजबूर होंगे.
कहने की जरूरत नहीं है कि आज़ादी के बाद पिछले ६५ सालों में यह कहानी
दर्जनों बार दोहराई जा चुकी है. मॉनसून की आँख-मिचौली नई बात नहीं है. आमतौर पर
भारत पर मॉनसून की कृपा बनी रही है लेकिन हर कुछ साल बाद मॉनसून धोखा भी दे जाता
है.
इस का दूसरा पहलू यह है कि इन सालों में कई बार मॉनसून की अति कृपा भी के कारण
बाढ़ के रूप में फसलों और किसानों को बर्बाद करती रही है. वैसे इसमें मॉनसून का कोई
दोष नहीं है. यह तो उसकी स्वाभाविक प्रकृति है. इस प्रकृति चक्र को नियंत्रित या
निर्देशित करना संभव भी नहीं है.
असल में, सूखा या बाढ़ मॉनसून की विफलता या अधिकता का नहीं बल्कि
नीतियों और नीति निर्माताओं की विफलताओं का नतीजा हैं. इस मायने में भारत में सूखा
या बाढ़ मनुष्य निर्मित परिघटनाएं हैं. पी. साईनाथ ने ठीक ही लिखा है कि ‘इस देश
में सभी (मतलब नेताओं-अफसरों-व्यापारियों) को सूखा अच्छा लगता है.’ इसी तरह सब
जानते हैं कि बिहार-उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्यों में नेता-अफसर-इंजीनियर-ठेकेदार
बहुत बेसब्री से बाढ़ का इंतज़ार करते हैं. इस देश में बाढ़ और सूखे के साथ राहत कार्यों की अर्थव्यवस्था अभिन्न रूप में जुडी हुई है और राहत के माल के महाभोज की कहानियां भी किसी से छुपी नहीं हैं. जाहिर है कि इन सभी के सूखे और बाढ़ में निहित स्वार्थ जुड़े हुए हैं और वे नहीं चाहते हैं कि आम गरीब किसानों को इससे मुक्ति मिले.
यह सचमुच इस देश के शासक वर्गों की सबसे बड़ी नीतिगत विफलताओं में से
एक है कि आज़ादी के छह दशक बाद और विकास के तमाम बड़े-बड़े दावों के बावजूद भारतीय
कृषि मॉनसून यानी इन्द्र देव की कृपा पर निर्भर है. तथ्य यह है कि देश में वर्ष
२००९ तक कुल कृषि भूमि का सिर्फ ३५ फीसदी ही सिंचित था.
इसे ही कहते हैं कि नौ
दिन, चले अढ़ाई कोस. यह उस देश का हाल है जो खुद को कृषिप्रधान देश कहता रहा है.
लेकिन सिंचाई सुविधाओं के विस्तार और आखिरी खेत तक पानी पहुंचाने के मामले में यह
नाकामी कृषि और देश के अन्नदाता किसानों के साथ किया गया बहुत बड़ा मजाक है. कृषि
और किसान इसकी कीमत चुकाने को मजबूर हैं.
लेकिन सिंचाई सुविधाओं के विस्तार में यह विफलता किसी प्राकृतिक
दुर्घटना या लापरवाही के कारण नहीं है. वास्तव में, इसके लिए ९० के दशक की वे नव
उदारवादी आर्थिक नीतियां और आर्थिक सुधार जिम्मेदार हैं जिन्होंने कृषि को बिलकुल
अनदेखा किया और साथ में, सरकारी खर्चों में कटौती की सबसे अधिक गाज सिंचाई योजनाओं
पर गिरी. यह किसी से छुपा तथ्य नहीं है कि इन दो दशकों में कृषि प्राथमिकता सूची में बहुत नीचे चली गई और कृषि में सार्वजनिक निवेश में गिरावट दर्ज की गई. नतीजा यह हुआ कि इस दौर में बजट की कमी के कारण एक तो सिंचाई परियोजनाओं पर काम की गति कछुए से भी धीमी हो गई और दूसरी ओर, नहरों और नलकूपों की देखरेख न होने के कारण उनकी भी हालत बद से बदतर होती चली गई.
एक और कड़वी सच्चाई यह है कि जिन इलाकों को आंकड़ों में सिंचित बताया
जाता है, उनमें से काफी बड़े हिस्से में राज्य सरकारों की अनदेखी, लापरवाही और सबसे
बढ़कर भ्रष्टाचार के कारण नहरों और नलकूपों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है.
आश्चर्य नहीं कि राज्यों में सिंचाई विभाग जमाने से सबसे भ्रष्ट और लूट-खसोट में
लिप्त विभाग माने जाते रहे हैं. हालाँकि जब से केन्द्र और राज्य सरकारों ने सिंचाई
परियोजनाओं पर खर्चों में कटौती शुरू कर दी, लूट-खसोट के लिए गुंजाइश कम होती चली
गई और दूसरे कई विभाग भ्रष्टाचार के मामले में उनसे आगे निकल गए.
असल में, ९० के दशक में आर्थिक सुधारों के चैम्पियनों ने कृषि क्षेत्र
की समस्याओं और चुनौतियों को देखते हुए यह मान लिया कि कृषि में कोई सुधार संभव
नहीं है और भारत की आर्थिक मुक्ति का हाईवे उद्योग और सेवा क्षेत्र के जरिये ही बन
सकता है. नतीजा यह हुआ कि पिछले दो दशकों में सुनियोजित तरीके से कृषि की उपेक्षा
करके और एक तरह से उसे बाईपास करते हुए आर्थिक तरक्की का नया हाईवे तैयार किया गया
है. हैरानी की बात नहीं है कि इन दो दशकों में जी.डी.पी में कृषि का हिस्सा गिरते हुए आधे से भी कम रह गया है. १९९०-९१ में जी.डी.पी में कृषि क्षेत्र का हिस्सा लगभग ३० फीसदी था जो २०११-१२ में घटकर १४ फीसदी के आसपास रह गया है जबकि कृषि पर आश्रित लोगों की तादाद में बहुत मामूली कमी आई है.
जाहिर है कि यह किसी दैवीय कारण से नहीं हुआ है बल्कि यह पिछले कई
दशकों खासकर १९९० के बाद की नीतियों का नतीजा है. इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि
आर्थिक सुधारों के पैरोकार इस तथ्य को अपनी नीतियों की सफलता के रूप में देखते हैं
कि अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का योगदान कम से कमतर होता जा रहा है. वे इसे
भारत के एक विकसित अर्थव्यवस्था के रूप में आगे बढ़ने का प्रमाण मानते है.
आश्चर्य
नहीं कि अर्थव्यवस्था के मैनेजरों और नव उदारवादी सुधारों के चैपियनों में इसे
लेकर जश्न का माहौल है. उनकी इस खुशी का बड़ा कारण यह है कि उन्होंने अर्थव्यवस्था
को काफी हद तक कृषि के दबावों से मुक्त कर दिया है यानी अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर
को प्रभावित करने की उसकी क्षमता काफी कम हो गई है.
यह तथ्य है कि पिछले वर्षों में जब अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर सालाना
औसतन ८ फीसदी से अधिक चल रही थी, उस समय कृषि की वृद्धि दर औसतन २ फीसदी के आसपास
थी. इससे नार्थ ब्लाक में बैठे आर्थिक मैनेजरों का हौसला बढ़ा कि कृषि क्षेत्र के
खराब प्रदर्शन के बावजूद अर्थव्यवस्था की सेहत पर कोई खास फर्क नहीं पड़नेवाला है. विश्लेषकों के मुताबिक, अगर इस साल मॉनसून अच्छा नहीं रहता है तो इससे अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में अधिक से अधिक आधी फीसदी की कमी आएगी. यही कारण है कि सूखे की आशंकाओं के बावजूद नीति नियंताओं और अर्थव्यवस्था के मैनेजरों में वह बेचैनी, घबराहट और हड़बड़ी नहीं है जो औद्योगिक उत्पादन या सेवा क्षेत्र की वृद्धि दर में आई गिरावट के कारण दिख रही है.
यह सचमुच अफसोस और चिंता की बात है कि कहाँ कृषि को मॉनसून यानी
इन्द्र देव पर निर्भरता से मुक्त करने का वायदा था और कहाँ नीति नियंता अर्थव्यवस्था
की कृषि पर से निर्भरता खत्म करके खुश हो रहे हैं और इसे अपनी कामयाबी मान रहे
हैं? सवाल यह है कि यह ‘कामयाबी’ किस कीमत पर आई है?
लेकिन याद रहे, कृषि की
उपेक्षा की कीमत सिर्फ किसानों और कृषि मजदूरों को ही नहीं, आम शहरी-मध्यमवर्गीय
उपभोक्ताओं को भी चुकानी पड़ेगी. पिछले तीन वर्षों से खाद्य वस्तुओं की लगातार ऊँची
मुद्रास्फीति दर कृषि की उपेक्षा और कृषि के बिना भी अर्थव्यवस्था की तेज रफ़्तार
की नीति का नतीजा है जिसने अब अर्थव्यवस्था की तेज रफ़्तार पर भी ब्रेक लगाना शुरू
कर दिया है.
क्या नार्थ ब्लाक और योजना भवन में बैठे अर्थव्यवस्था के मैनेजरों की
आँखें मॉनसून की इस नाकामी से खुलेंगी?('राष्ट्रीय सहारा' के परिशिष्ट 'हस्तक्षेप' में 7 जुलाई को प्रकाशित आलेख...)
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