मध्य वर्ग के बड़े हिस्से को नव उदारवादी सुधारों से तनाव, अवसाद और बेचैनी ज्यादा मिली है
इस आख्यान में यह उच्च मध्यवर्ग आर्थिक सुधारों के सबसे बड़े लाभार्थी के रूप में सामने आता है और उसके सबसे बड़े पैरोकार के रूप में भी दिखाई पड़ता है. इसमें कोई शक नहीं है कि मध्यवर्ग के इस छोटे से हिस्से को नव उदारवादी आर्थिक सुधारों ने मालामाल कर दिया है.
यही नहीं, आर्थिक समृद्धि के साथ-साथ इस वर्ग की राष्ट्रीय और कुछ हद तक क्षेत्रीय राजनीति और नीति निर्माण को प्रभावित करने की ताकत भी आनुपातिक रूप से बहुत बढ़ गई है. राष्ट्रीय एजेंडा और बहसों की दिशा तय करने में वह बहुत सक्रिय और प्रभावी भूमिका निभा रहा है.
यही नहीं, इस सबके कारण उसमें बहुत बेचैनी है, गुस्सा है और उसका धैर्य जवाब दे रहा है. वह बार-बार सड़कों पर उतर रहा है, भ्रष्टाचार से लेकर व्यवस्था परिवर्तन तक के मुद्दे उसे आंदोलित कर रहे हैं लेकिन राजनीतिक भ्रम-संशय और रेडिकल सपने के अभाव में बहुत दूर तक नहीं जा पा रहा है. लेकिन वह रास्ता खोज रहा है.
जले पर नमक छिड़कने की तरह सरकारों ने आर्थिक संकट से निपटने के नाम पर किफायतशारी (आस्ट्रीटी) उपायों का सारा बोझ मध्यवर्ग पर डाल दिया है. नतीजा यह हुआ है कि मध्यवर्ग सड़कों पर उतर आया है. उसके गुस्से की सबसे बड़ी वजह यह है कि इस वैश्विक आर्थिक संकट की जड़ में वे ही नव उदारवादी सुधार हैं जिनकी आड़ में आवारा वित्तीय पूंजी और कारपोरेट क्षेत्र को लूट की खुली छूट मिल गई थी.
नव उदारवादी सुधारों के प्रति बढते मोहभंग का एक सबूत यह भी है कि संगठित मध्यवर्ग के कई तबके जैसे छोटे व्यापारी-दूकानदार सुधारों के दूसरे चरण के तहत खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को अनुमति देने के खिलाफ खड़े हो गए हैं. उसी तरह संगठित श्रमिक भी श्रम सुधारों के खिलाफ अपना गुस्सा जाहिर करने लगे हैं. मारुति के मानेसर फैक्ट्री में श्रमिकों के बढते असंतोष के बीच हुआ हादसा इसका एक ताजा उदाहरण है.
कहना मुश्किल है कि आनेवाले दिनों में यह ‘काम्प्लीकेटेड’ रिश्ता क्या रूप लेगा और उसका क्या भविष्य है? लेकिन इतना तय है कि नव उदारवाद के साथ भारतीय मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से का एकतरफा प्यार और गहरा रिश्ता टूटते सपनों-आकांक्षाओं के बीच जबरदस्त तनाव और दबाव में है.
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 28 जुलाई को प्रकाशित टिप्पणी)
नव उदारवादी भूमंडलीकरण की आभासी दुनिया के सबसे बड़े सोशल नेटवर्क-
फेसबुक की भाषा में कहें तो नव उदारवादी आर्थिक सुधारों और भारतीय मध्यवर्ग के बीच
गहरा रिश्ता होते हुए भी यह इधर कई कारणों से ‘जटिल’ (काम्प्लीकेटेड) होता जा रहा है.
हालाँकि नव उदारवादी सुधारों की शुरुआत में मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से में उसके
प्रति एकतरफा प्यार दिखता था, बाद में यह रिश्ता काफी गहरा होता गया लेकिन इधर कुछ
वर्षों से वह कुछ ‘काम्प्लीकेटेड’ सा होता जा रहा है.
असल में, इस मध्यवर्ग और नव
उदारवादी सुधारों के बीच के रिश्ते के कई आख्यान हैं. एक ओर नव उदारवादी सुधारों
की मुखर पैरोकार रंगीन पत्रिकाओं और गुलाबी अखबारों की वे फीलगुड ‘सक्सेज स्टोरीज’
हैं जिनके मुताबिक मध्यवर्ग नव उदारवादी आर्थिक सुधारों से सबसे ज्यादा फायदा
मध्यवर्ग को हुआ है, सुधारों के कारण उसकी दमित आकांक्षाओं-अपेक्षाओं को पंख मिल
गए हैं और वह सफलता की नई कहानियां लिख रहा है.
इन सुधारों से एक नव दौलतिया वर्ग का जन्म हुआ है जो उपभोग के मामले
में विकसित पश्चिमी देशों की बराबरी कर रहा है. नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की
संतान के रूप में पैदा हुआ यह नया मध्यवर्ग अत्यंत गतिशील है, देशों की सीमाएं उसके
लिए बेमानी हो चुकी हैं और सोच-विचार और रहन-सहन में वह देश के दायरे से बाहर निकल
चुका है. इस आख्यान में यह उच्च मध्यवर्ग आर्थिक सुधारों के सबसे बड़े लाभार्थी के रूप में सामने आता है और उसके सबसे बड़े पैरोकार के रूप में भी दिखाई पड़ता है. इसमें कोई शक नहीं है कि मध्यवर्ग के इस छोटे से हिस्से को नव उदारवादी आर्थिक सुधारों ने मालामाल कर दिया है.
यही नहीं, आर्थिक समृद्धि के साथ-साथ इस वर्ग की राष्ट्रीय और कुछ हद तक क्षेत्रीय राजनीति और नीति निर्माण को प्रभावित करने की ताकत भी आनुपातिक रूप से बहुत बढ़ गई है. राष्ट्रीय एजेंडा और बहसों की दिशा तय करने में वह बहुत सक्रिय और प्रभावी भूमिका निभा रहा है.
लेकिन इसके उलट दूसरे आख्यान में मध्यवर्ग खासकर निम्न और गैर-मेट्रो
मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से की उम्मीदें-आकांक्षाएं और सपने भी आसमान छू रहे हैं
लेकिन नव उदारवादी सुधारों से उन्हें अभी कुछ खास नहीं मिला है. सफलता की
इक्का-दुक्का कहानियों को छोड़ दिया जाए तो वह नव उदारवादी सुधारों की मार झेलता
हुआ दिखाई पड़ता है.
यहाँ बेरोजगारी का अवसाद है, प्राइवेट-कांट्रेक्ट नौकरी की
असुरक्षा, कम वेतन और बदतर सेवा शर्तों का तनाव है, बढ़ती महंगाई और खर्चों का दबाव
है, घर-मकान से लेकर फ्रीज-टी.वी-मोटरसाइकिल के कर्जों की ई.एम.आई का बोझ है और सफलता
की अंधी दौड़ में पीछे छूटते जाने की पीड़ा है. राज्य और बाजार दोनों ने उसे अपने
हाल पर छोड़ दिया है और उसका अकेलापन बढ़ता जा रहा है.
हालाँकि यह मध्यवर्ग नव उदारवादी सुधारों के ‘असफलों’ (लूजर्स) में है
लेकिन इसकी नव उदारवादी आर्थिक सुधारों से उम्मीदें-अपेक्षाएं-आकांक्षाएं अभी पूरी
तरह से टूटी नहीं है, पूरा मोहभंग नहीं हुआ है. लेकिन इसके साथ ही यह भी उतना ही
सच है कि वह नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की आलोचनाएं ध्यान से सुन रहा है और
भूमंडलीकरण-निजीकरण-उदारीकरण के कारण बढ़ती गैर बराबरी उसे चुभने लगी है. यही नहीं, इस सबके कारण उसमें बहुत बेचैनी है, गुस्सा है और उसका धैर्य जवाब दे रहा है. वह बार-बार सड़कों पर उतर रहा है, भ्रष्टाचार से लेकर व्यवस्था परिवर्तन तक के मुद्दे उसे आंदोलित कर रहे हैं लेकिन राजनीतिक भ्रम-संशय और रेडिकल सपने के अभाव में बहुत दूर तक नहीं जा पा रहा है. लेकिन वह रास्ता खोज रहा है.
यही कारण है कि नव उदारवादी सुधारों और भारतीय मध्यवर्ग का रिश्ता दिन
पर दिन और जटिल (काम्प्लीकेटेड) होता जा रहा है. हालाँकि देश को अभी भी यह समझाने
की कोशिश जारी है कि नव उदारवादी सुधारों के अलावा कोई विकल्प नहीं है. साथ ही,
‘सक्सेज स्टोरीज’ के जरिये लोगों का भरोसा जीतने की भी कोशिशें जारी हैं.
इसके
बावजूद एक छोटे से लेकिन बहुत मुखर और मेट्रो-बड़े शहरों तक सीमित उच्च मध्यवर्ग को
छोड़ दिया जाये तो निम्न मध्यवर्ग का इन सपनों से भरोसा टूटता सा दिख रहा है. भारत
ही नहीं, नव उदारवाद के मक्का माने-जानेवाले अमेरिका और यूरोपीय देशों में भी नव
उदारवादी आर्थिकी पर सवाल उठने लगे हैं, मध्यवर्ग सड़कों पर उतरने लगा है और
‘आकुपाई वाल स्ट्रीट’ जैसे आंदोलन दिखने लगे हैं.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से में नव
उदारवादी सुधारों के खिलाफ बढ़ती बेचैनी और गुस्से की बड़ी वजह २००७-०८ में अमेरिका
सब-प्राइम संकट और उसके बाद आई मंदी थी जिसने जल्दी ही यूरोप को अपने चपेट में ले
लिया. इस आर्थिक-वित्तीय संकट की मार ने अमेरिका और यूरोप से लेकर दुनिया के कई
देशों में मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से की उम्मीदों-आकांक्षाओं और सपनों को तोड़ दिया
है. जले पर नमक छिड़कने की तरह सरकारों ने आर्थिक संकट से निपटने के नाम पर किफायतशारी (आस्ट्रीटी) उपायों का सारा बोझ मध्यवर्ग पर डाल दिया है. नतीजा यह हुआ है कि मध्यवर्ग सड़कों पर उतर आया है. उसके गुस्से की सबसे बड़ी वजह यह है कि इस वैश्विक आर्थिक संकट की जड़ में वे ही नव उदारवादी सुधार हैं जिनकी आड़ में आवारा वित्तीय पूंजी और कारपोरेट क्षेत्र को लूट की खुली छूट मिल गई थी.
जाहिर है कि अमेरिका से लेकर यूरोप में नव उदारवाद पर उठ रहे सवालों
ने भारतीय मध्यवर्ग के भी एक बड़े हिस्से को बेचैन कर दिया है. उसकी बेचैनी इसलिए
भी है क्योंकि वह देख रहा है कि नव उदारवादी सुधारों का फायदा एक छोटे से वर्ग को
मिल रहा है.
इस नव दौलतिया वर्ग के जीवन और रहन-सहन में आई समृद्धि निम्न मध्यवर्ग
और मध्यवर्ग के बड़े हिस्से में वंचना के भाव को और बढ़ा रही है. यही नहीं, नई
अर्थव्यवस्था के सबसे चमकते सेवा क्षेत्र में जिस तरह से कम वेतन और बदतर सेवा
शर्तों के तहत मध्य वर्गीय युवाओं को काम करने के लिए मजबूर किया जा रहा है, जहाँ
नौकरी के साथ कोई सम्मान नहीं है और कोई भविष्य नहीं है, उसके कारण होड़ में पीछे
छूटने का भाव भी बढ़ता जा रहा है.
आप किसी भी शापिंग माल, बी.पी.ओ, होटल-रेस्तरां
और सेवा कंपनी में काम करने वाले निचले स्तर के कर्मचारियों और मैनेजरों से बात
कीजिए, आपको इस नई अर्थव्यवस्था की चमक के अंदर का अँधेरा दिखने लगेगा.
दूसरी ओर, देश के बड़े हिस्से में गरीब, किसान, श्रमिक, आदिवासी,
दलित-पिछड़े समुदाय नव उदारवादी सुधारों और उसके तहत बड़ी पूंजी और देशी-विदेशी
कारपोरेट समूहों द्वारा जल, जंगल, जमीन और खनिजों को हथियाए जाने के खिलाफ पहले से
ही खड़े हैं. आश्चर्य नहीं कि उनके विरोध के कारण आज देश में अधिकांश इलाकों में
सेज से लेकर बड़े-बड़े औद्योगिक प्रोजेक्ट फंसे पड़े हैं. नव उदारवादी सुधारों के प्रति बढते मोहभंग का एक सबूत यह भी है कि संगठित मध्यवर्ग के कई तबके जैसे छोटे व्यापारी-दूकानदार सुधारों के दूसरे चरण के तहत खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को अनुमति देने के खिलाफ खड़े हो गए हैं. उसी तरह संगठित श्रमिक भी श्रम सुधारों के खिलाफ अपना गुस्सा जाहिर करने लगे हैं. मारुति के मानेसर फैक्ट्री में श्रमिकों के बढते असंतोष के बीच हुआ हादसा इसका एक ताजा उदाहरण है.
कहना मुश्किल है कि आनेवाले दिनों में यह ‘काम्प्लीकेटेड’ रिश्ता क्या रूप लेगा और उसका क्या भविष्य है? लेकिन इतना तय है कि नव उदारवाद के साथ भारतीय मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से का एकतरफा प्यार और गहरा रिश्ता टूटते सपनों-आकांक्षाओं के बीच जबरदस्त तनाव और दबाव में है.
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 28 जुलाई को प्रकाशित टिप्पणी)
1 टिप्पणी:
bilkul sahi. madhya varg aur nav-udarwad ke beech rishta complicated hai.
lekin higher class aur nav-udarwad & lower class aur nav udarwad ke beech rishta crystal-clear hai.
inke beech jo rishtein hain usme kisi ko bhi do rai shayad hi ho.
ek ke liye puri duniya unki mutthi mein to dusre ke liye ve khud duniyan ki mutthi mein.
ek samay aayega jab phir se Marx, M.N. Roy, Ram Manohar Lohiya, Mahatma Gandhi jaise log janm lenge.
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