जरूरत अर्थव्यवस्था में निवेश खासकर सार्वजनिक निवेश बढ़ने की है : क्या प्रणब मुखर्जी इसके लिए तैयार हैं?
रेल बजट में किरायों में बढ़ोत्तरी के बाद यू.पी.ए सरकार के अंदर पैदा हुए राजनीतिक संकट के बीच अगर गुरुवार को संसद में पेश आर्थिक समीक्षा की मानें तो इस साल अर्थव्यवस्था के बदतर प्रदर्शन के बावजूद ज्यादा चिंता की बात नहीं है क्योंकि वित्त मंत्रालय को भरोसा है कि अर्थव्यवस्था का आधार मजबूत है और अगले साल वह फिर से ऊँची वृद्धि दर की पटरी पर दौड़ने लगेगी.
समीक्षा के मुताबिक, चालू वित्तीय वर्ष (११-१२) में जी.डी.पी की ६.९ प्रतिशत की धीमी रफ़्तार के बावजूद अगले साल अर्थव्यवस्था ७.६ फीसदी और २०१३-१४ में ८.६ प्रतिशत की ऊँची रफ़्तार हासिल कर लेगी.
यहाँ यह उल्लेख करना जरूरी है कि बीते साल की आर्थिक समीक्षा में उम्मीद जाहिर की गई थी कि इस साल जी.डी.पी की वृद्धि दर ९ फीसदी के आसपास रहेगी. लेकिन सिर्फ १२ महीनों में यह उम्मीद धराशाई हो गई और जी.डी.पी की वृद्धि दर लुढ़कते हुए ६.९ प्रतिशत रह गई है.
ऐसा क्यों हुआ? ताजा आर्थिक समीक्षा में यू.पी.ए सरकार के आर्थिक मैनेजरों ने इसकी सारी जिम्मेदारी वैश्विक आर्थिक संकट खासकर अमेरिकी और यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं की बिगड़ती स्थिति, जापानी अर्थव्यवस्था के ठहराव और कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोत्तरी के मत्थे डाल दी है.
यही नहीं, आर्थिक समीक्षा ने इस साल अर्थव्यवस्था के उम्मीद से खराब प्रदर्शन की रही-सही जिम्मेदारी यह कहते हुए रिजर्व बैंक पर डाल दी है कि मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए ब्याज दरों में बढ़ोत्तरी से निवेश प्रभावित हुआ जिसका विकास दर पर नकारात्मक असर पड़ा है.
साफ़ है कि पिछले नौ वर्षों में अर्थव्यवस्था के इस दूसरे सबसे बदतर प्रदर्शन के लिए वित्त मंत्रालय अपनी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है. अलबत्ता, वह मानता है कि अर्थव्यवस्था की स्थिति चिंताजनक है लेकिन दूसरी ही सांस में अर्थव्यवस्था के बारे में उम्मीदों और खुशफहमियों के तूमार बांधने में भी जुट जाता है.
दरअसल, ये परस्पर विरोधी आकलन एक रणनीति के तहत पेश किये गए हैं. आर्थिक समीक्षा जानबूझकर पहले अर्थव्यवस्था के बारे में एक चिंताजनक तस्वीर पेश करती है. लेकिन इसके लिए अपनी जिम्मेदारी लेने के बजाय इसकी जवाबदेही आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में आ रही रुकावटों पर डाल देती है.
इस तरह बहुत चतुराई के साथ अर्थव्यवस्था के अच्छे प्रदर्शन को आर्थिक सुधारों की गति को तेज करने की शर्त से जोड़ देती है. यू.पी.ए के नव उदारवादी आर्थिक मैनेजरों का तर्क है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को मौजूदा स्थिति से निकालकर तेज वृद्धि दर की राह पर ले जाने के लिए जरूरी है कि सख्त फैसले किये जाएँ.
इस सिलसिले में आर्थिक सर्वेक्षण ने हर बार की तरह इस बार भी सरकार की बिगड़ती वित्तीय स्थिति को सबसे बड़ी चुनौती बताते हुए वित्तीय घाटे को काबू में करने और उसके लिए सब्सिडी में कटौती खासकर खाद और डीजल सब्सिडी में कटौती का सुझाव दिया है.
हालाँकि इन सुझावों में कोई नई बात नहीं है. बिना किसी अपवाद के आर्थिक समीक्षा में यही बातें पिछले कई वर्षों से थोड़े बहुत बदलाव के साथ दोहराई जा रही हैं. इस मायने में आर्थिक समीक्षा तैयार करने वाले अफसरों और आर्थिक सलाहकारों की दाद देनी पड़ेगी कि दुनिया भर में नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को लेकर उठ रहे सवालों के बावजूद इन नीतियों के प्रति उनकी अगाध आस्था में रत्ती भर भी परिवर्तन नहीं हुआ है.
ताजा आर्थिक समीक्षा इसकी एक और मिसाल है. आश्चर्य नहीं कि सरकार के आर्थिक मैनेजर को अर्थव्यवस्था की सभी समस्याओं का हल उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों में दिखाई पड़ रहा है जिनके कारण यह संकट पैदा हुआ है.
उदाहरण के लिए, आर्थिक समीक्षा के मुताबिक अर्थव्यवस्था के प्रबंधन के मामले में सबसे बड़ी चुनौती वित्तीय घाटे पर काबू पाना है जो चालू वित्तीय वर्ष में बजट अनुमानों से कहीं ज्यादा रहनेवाली है. गोया वित्तीय घाटे पर काबू पाने भर से सभी समस्याओं का समाधान हो जायेगा.
लेकिन बुनियादी सवाल यह है कि वित्तीय घाटे के कारण अर्थव्यवस्था की समस्याएं और संकट हैं या अर्थव्यवस्था की समस्याओं के कारण वित्तीय घाटा बढ़ा है?
असल में, आर्थिक समीक्षा और नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकारों के तर्क गाड़ी को घोड़े के आगे रखने की तरह हैं. तथ्य यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियादी और अंदरूनी समस्याओं के कारण उसके खराब प्रदर्शन से वित्तीय घाटा बढ़ा है.
उदाहरण के लिए, आर्थिक समीक्षा स्वीकार करती है कि कृषि क्षेत्र को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है. उसे नजरंदाज करने के कारण अर्थव्यवस्था को कई मोर्चों पर उसकी कीमत चुकानी पड़ रही है. खासकर पिछले दो-ढाई वर्षों से खाद्यान्नों की ऊँची मुद्रास्फीति दर ने नीति नियंताओं का ध्यान एक बार फिर कृषि क्षेत्र की उपेक्षा की ओर खींचा है.
लेकिन सवाल यह है कि कृषि क्षेत्र की यह हालत क्यों है? खुद समीक्षा यह मानती है कि कृषि क्षेत्र की इस स्थिति के लिए एक बड़ा कारण उसमें निवेश में आई गिरावट है. लेकिन यह गिरावट क्यों आई है और इसके लिए कौन जिम्मेदार है?
तथ्य यह है कि १९९० के दशक में आर्थिक सुधारों की शुरूआत के बाद से ही वित्तीय घाटे में कटौती और उसके लिए सरकारी खर्चों में कमी करने की सबसे अधिक मार कृषि क्षेत्र पर पड़ी है जहाँ पिछले दो दशकों में सार्वजनिक निवेश में काफी गिरावट दर्ज की गई है. इसके कारण कृषि क्षेत्र आज भी मानसून पर निर्भर है. उसकी उत्पादकता में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो रही है.
नतीजा, सबके सामने है. कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर लगातार लक्ष्य से पीछे रह रही है. ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में कृषि के लिए ४ फीसदी वृद्धि दर का लक्ष्य निर्धारित किया गया था लेकिन वास्तविक वृद्धि दर ३.३ फीसदी रही. इसी तरह मानसून पर अति निर्भरता के कारण कृषि की विकास दर में उतार-चढाव बना रहता है.
उदाहरण के लिए, वर्ष २०१०-११ में कृषि की वृद्धि दर ७ फीसदी रही लेकिन चालू वित्तीय वर्ष में उसके लुढ़ककर सिर्फ २.५ प्रतिशत रहने की उम्मीद है. सवाल यह है कि इसके लिए वैश्विक आर्थिक परिस्थितियां जिम्मेदार हैं या खुद सरकार की अपनी नीतियां?
इसी तरह, आर्थिक समीक्षा यह स्वीकार करता है कि इस साल अर्थव्यवस्था के बदतर प्रदर्शन के पीछे सबसे बड़ी वजह निवेश में आई गिरावट है जो २००७-०८ में जी.डी.पी के ३८.१ प्रतिशत तक पहुँच गई थी लेकिन घटते हुए अब ३० फीसदी के करीब पहुँच गई है.
इसका अर्थ यह हुआ कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए निवेश में भारी बढ़ोत्तरी की जरूरत है. इस सच्चाई को आर्थिक समीक्षा भी मानती है. लेकिन नव उदारवादी अर्थनीति के व्यामोह में फंसे आर्थिक मैनेजर चाहते हैं कि निवेश में बढ़ोत्तरी के लिए बड़ी निजी देशी-विदेशी कारपोरेट पूंजी को प्रोत्साहित किया जाये.
मुश्किल यह है कि देशी-विदेशी कारपोरेट पूंजी निवेश के लिए बहुत इच्छुक नहीं है. ऐसे में, यह जरूरी है कि सार्वजनिक निवेश में वृद्धि की जाये जो अर्थव्यवस्था में न सिर्फ मांग में वृद्धि करेगा बल्कि निजी क्षेत्र को भी निवेश के लिए प्रेरित करेगा.
यह कोई रेडिकल अर्थनीति नहीं है. यह पूंजीवाद का कीन्सवादी रणनीति है जो संकट में फंसी अर्थव्यवस्थाओं को बाहर निकालने के लिए इस्तेमाल की जाती रही है. लेकिन नव उदारवादी अर्थनीति के पैरोकार इसके उलट वित्तीय घाटे में कटौती पर जोर देकर संकट को और गहरा कर रहे हैं. अमेरिका और यूरोप की अर्थव्यवस्थाओं का मौजूदा संकट इसी रणनीति का कुपरिणाम है.
अफसोस की बात यह है कि ताजा आर्थिक समीक्षा उससे सबक लेने के बजाय उसी राह पर आगे बढ़ने की वकालत कर रही है. अब गेंद वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के पाले में है. देखना है कि आज बजट में वह कौन सी राह लेते हैं?
('दैनिक भाष्कर', नई दिल्ली के औपेड पृष्ठ पर १६ मार्च को प्रकाशित त्वरित टिप्पणी)
1 टिप्पणी:
शानदार तरीका समझाने का!!!
दरअसल, ये परस्पर विरोधी आकलन एक रणनीति के तहत पेश किये गए हैं. आर्थिक समीक्षा जानबूझकर पहले अर्थव्यवस्था के बारे में एक चिंताजनक तस्वीर पेश करती है. लेकिन इसके लिए अपनी जिम्मेदारी लेने के बजाय इसकी जवाबदेही आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में आ रही रुकावटों पर डाल देती है.
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