धर्मनिरपेक्षता कुशासन और नाकामियों को छिपाने का हथियार नहीं है और लोकतंत्र में जवाबदेही तय होनी चाहिए
कांग्रेस का राजनीतिक रूप से लगभग सफ़ाया हो गया़ है. वह ऐतिहासिक हार की ओर बढ़ रही है. हालाँकि यह बहुत पहले ही तय हो चुका था. इसमें हैरान होने की कोई बात नहीं है. कांग्रेस नेता भी कमोबेश इस नियति को स्वीकार कर चुके थे. लेकिन कांग्रेस की ऐसी शर्मनाक हार होगी, यह आशंका कांग्रेस नेताओं और उससे सहानुभूति रखनेवाले धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों को भी नहीं थी.
कांग्रेस की हार की वजह भी यही है. उसके पैरों के नीचे की ज़मीन खिसक चुकी थी लेकिन उसके नेताओं को या तो पता नहीं था या फिर अपने अहंकार और चापलूसी की संस्कृति के कारण वे उसे देखने को तैयार नहीं थे. कहने की ज़रूरत नहीं है कि अपनी इस ऐतिहासिक हार के लिए कांग्रेस ख़ुद ज़िम्मेदार है. उसके नेतृत्व की नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के प्रति अंधभक्ति का यही हश्र होना था.
दरअसल, कांग्रेस को यूपीए सरकार के राज में बढ़ते भ्रष्टाचार, महँगाई, बेरोज़गारी और ग़रीबों को राहत पहुँचाने में उसकी नाकामियों की सज़ा मिली है. यह जनतंत्र के हक़ में है. जनतंत्र में सरकार की नाकामियों और कुशासन की क़ीमत पार्टियों को चुकानी ही चाहिए. कल्पना कीजिए कि कांग्रेस की तमाम नाकामियों और कुशासन के बावजूद अगर कांग्रेस की जीत होती तो कांग्रेस के अहंकार पता नहीं किस आसमान पर पहुँच जाता? क्या वह कारपोरेट लूट और नव उदारवादी नीतियों के लिए जनादेश की तरह व्याख्या नहीं करती?
इस अर्थ में यह फ़ैसला जनतंत्र के हक़ में है. कांग्रेस और उसके शुभचिंतकों ने अपनी नाकामियों और कुशासन को 'धर्मनिरपेक्षता' की आड़ में छुपाने की बहुत कोशिश की लेकिन लोग इस झाँसे में नहीं आए. यह धर्मनिरपेक्षता की नहीं बल्कि साफ़ तौर पर धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे को लोगों के रोज़ी-रोटी के मुद्दों से काटकर सिर्फ सत्ता के लिए भुनाने की राजनीति की नाकामी है.
यह उन सभी बुद्धिजीवियों के लिए एक सबक़ है जो कांग्रेस और सपा-राजद जैसी पार्टियों के सीमित, संकीर्ण और अवसरवादी राजनीति के भरोसे सांप्रदायिक राजनीति से लड़ने की वकालत करते हैं. साफ़ है कि सांप्रदायिक राजनीति का मुक़ाबला एक नई और बेहतर जनोन्मुखी राजनीति ही कर सकती है.
कांग्रेस का राजनीतिक रूप से लगभग सफ़ाया हो गया़ है. वह ऐतिहासिक हार की ओर बढ़ रही है. हालाँकि यह बहुत पहले ही तय हो चुका था. इसमें हैरान होने की कोई बात नहीं है. कांग्रेस नेता भी कमोबेश इस नियति को स्वीकार कर चुके थे. लेकिन कांग्रेस की ऐसी शर्मनाक हार होगी, यह आशंका कांग्रेस नेताओं और उससे सहानुभूति रखनेवाले धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों को भी नहीं थी.
कांग्रेस की हार की वजह भी यही है. उसके पैरों के नीचे की ज़मीन खिसक चुकी थी लेकिन उसके नेताओं को या तो पता नहीं था या फिर अपने अहंकार और चापलूसी की संस्कृति के कारण वे उसे देखने को तैयार नहीं थे. कहने की ज़रूरत नहीं है कि अपनी इस ऐतिहासिक हार के लिए कांग्रेस ख़ुद ज़िम्मेदार है. उसके नेतृत्व की नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के प्रति अंधभक्ति का यही हश्र होना था.
दरअसल, कांग्रेस को यूपीए सरकार के राज में बढ़ते भ्रष्टाचार, महँगाई, बेरोज़गारी और ग़रीबों को राहत पहुँचाने में उसकी नाकामियों की सज़ा मिली है. यह जनतंत्र के हक़ में है. जनतंत्र में सरकार की नाकामियों और कुशासन की क़ीमत पार्टियों को चुकानी ही चाहिए. कल्पना कीजिए कि कांग्रेस की तमाम नाकामियों और कुशासन के बावजूद अगर कांग्रेस की जीत होती तो कांग्रेस के अहंकार पता नहीं किस आसमान पर पहुँच जाता? क्या वह कारपोरेट लूट और नव उदारवादी नीतियों के लिए जनादेश की तरह व्याख्या नहीं करती?
इस अर्थ में यह फ़ैसला जनतंत्र के हक़ में है. कांग्रेस और उसके शुभचिंतकों ने अपनी नाकामियों और कुशासन को 'धर्मनिरपेक्षता' की आड़ में छुपाने की बहुत कोशिश की लेकिन लोग इस झाँसे में नहीं आए. यह धर्मनिरपेक्षता की नहीं बल्कि साफ़ तौर पर धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे को लोगों के रोज़ी-रोटी के मुद्दों से काटकर सिर्फ सत्ता के लिए भुनाने की राजनीति की नाकामी है.
यह उन सभी बुद्धिजीवियों के लिए एक सबक़ है जो कांग्रेस और सपा-राजद जैसी पार्टियों के सीमित, संकीर्ण और अवसरवादी राजनीति के भरोसे सांप्रदायिक राजनीति से लड़ने की वकालत करते हैं. साफ़ है कि सांप्रदायिक राजनीति का मुक़ाबला एक नई और बेहतर जनोन्मुखी राजनीति ही कर सकती है.
1 टिप्पणी:
अब अवसरवाद नहीं चलेगा। और ये अच्छा ही है की देश एक बार रैडिकल दक्षिणपंथ से भी उूब लें,
लेकिन इसके खतरा भी बहुत ज्यादा है..
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