उत्तर प्रदेश में 90 के दशक की जहरीली सांप्रदायिक और सामंती दबदबे की राजनीति पैर जमाने की कोशिश कर रही है
बनारस की लड़ाई अपने आखिरी दौर में पहुँच गई है. बनारस में बहुत कुछ दाँव पर लगा हुआ है. पूरे देश की निगाहें इस ऐतिहासिक शहर पर लगी हुई हैं. कारण साफ़ है. यह सिर्फ एक और वी.आई.पी सीट की लड़ाई नहीं है और न ही कोई स्थानीय मुद्दों पर हो रहा मुकाबला है. यह न तो गंगा को साफ़ करने और बचाने की जद्दोजहद है और न ही शहर को आध्यात्मिक नगर के रूप में पहचान दिलाने का चुनाव है. यह न तो चिकनी सड़क और २४ घंटे बिजली के लिए संघर्ष है और न ही बनारस को पेरिस या लन्दन बनाने की चाह का मुकाबला है. अगर ये मुद्दे कहीं थे भी तो अब पृष्ठभूमि में जा चुके हैं.
उसकी इन कोशिशों को उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार की नाकामियों, जनता की बढ़ी हुई उम्मीदों पर खरा न उतरने और जातिवादी-सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की संकीर्ण राजनीति से लाभ उठाने की हताश कोशिशों से बहुत मदद मिली है. यही नहीं, बहुजन समाज पार्टी की वह अवसरवादी और सिनिकल जातिवादी राजनीति भी उतार पर है जिसकी सीमाएं और अंतर्विरोध साफ़ दिखने लगी हैं और जिसके पास सामाजिक-आर्थिक बराबरी पर आधारित समाज का कोई सपना नहीं है.
यह लड़ाई यहीं खत्म नहीं होनेवाली है. बनारस इस लड़ाई का एक महत्वपूर्ण मोर्चा है. लेकिन इस लड़ाई में अभी और भी कई मोर्चे आनेवाले हैं.
बनारस की लड़ाई अपने आखिरी दौर में पहुँच गई है. बनारस में बहुत कुछ दाँव पर लगा हुआ है. पूरे देश की निगाहें इस ऐतिहासिक शहर पर लगी हुई हैं. कारण साफ़ है. यह सिर्फ एक और वी.आई.पी सीट की लड़ाई नहीं है और न ही कोई स्थानीय मुद्दों पर हो रहा मुकाबला है. यह न तो गंगा को साफ़ करने और बचाने की जद्दोजहद है और न ही शहर को आध्यात्मिक नगर के रूप में पहचान दिलाने का चुनाव है. यह न तो चिकनी सड़क और २४ घंटे बिजली के लिए संघर्ष है और न ही बनारस को पेरिस या लन्दन बनाने की चाह का मुकाबला है. अगर ये मुद्दे कहीं थे भी तो अब पृष्ठभूमि में जा चुके हैं.
यह बनारस में गंगा से ज्यादा गंगा-जमुनी संस्कृति और इस शहर की वह
आत्मा को बचाने की लड़ाई हो रही है. यह इस शहर की सांस्कृतिक, वैचारिक और राजनीतिक
विविधता, अनेकता और बहुलता को बनाए रखने की लड़ाई है. लेकिन यह सिर्फ इस ऐतिहासिक
शहर की आत्मा की लड़ाई नहीं है. दरअसल, बनारस की विविधता और बहुलता के बहाने यह ‘भारत’
के उस विचार के झंडे को बुलंद रखने की लड़ाई है जो अपनी सांस्कृतिक, वैचारिक,
राजनीतिक विविधता और बहुलता पर गर्व करता है और जो हर तरह की और खासकर हिंदुत्व की
संकीर्ण-पुनरुत्थानवादी से लेकर सामंती-फासीवादी धार्मिक पहचान से लड़ता आया है.
बनारस की इस लड़ाई में सामाजिक-आर्थिक समता और बराबरी पर आधारित एक
आधुनिक, प्रगतिशील, समतामूलक, बहुलतावादी और भविष्योन्मुखी भारत का सपना दाँव पर
लगा हुआ है. यह वह सपना है जिसे आज़ादी की लड़ाई के दौरान भगत सिंह जैसे
क्रांतिकारियों ने देखा था. कहने की जरूरत नहीं है कि आज़ादी के पिछले ६७ सालों में
इस सपने को मारने और खत्म करने की अनेकों कोशिशें की गईं हैं. लेकिन यह सपना
जिन्दा है उन हजारों जनांदोलनों में जहाँ इस देश के गरीब आज भी अपने हक-हुकूक और
एक बेहतर समाज और देश बनाने की लड़ाई लड़ रहे हैं.
आज अगर देश में लोकतंत्र जिन्दा है तो इन्हीं छोटी-बड़ी लड़ाइयों के कारण
जिन्दा है. लोकतंत्र सिर्फ़ पांच साला चुनावों से नहीं, जनांदोलनों और आमलोगों की सक्रिय राजनीतिक-सामाजिक भागीदारी से चलता है. लेकिन बनारस में यह लड़ाई दाँव पर है. बनारस में एक ओर हिंदुत्व की
झंडाबरदार वे सांप्रदायिक ताकतें हैं जो देश को ‘विकास और सुशासन’ का सपना दिखाकर
मध्ययुग में वापस ले जाना चाहती हैं. हैरानी की बात नहीं है कि बनारस और पूरे उत्तर
प्रदेश में एक बार फिर ८० और ९० के दशक की जहरीली और आक्रामक सांप्रदायिक भाषा
वापस लौट आई है. उसी तरह के जहरीले नारे, तेवर और तनाव के बीच नफरत का बुखार सिर
चढ़कर बोल रहा है. यह राजनीति उत्तर प्रदेश को दो दशक पीछे खींच ले जाना चाहती है.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस हिंदुत्व की सांप्रदायिक राजनीति के
उभार के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार यू.पी.ए गठबंधन खासकर कांग्रेस है जिसकी केन्द्र
सरकार भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोजगारी रोकने में नाकाम रही है. हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक
राजनीति उसकी इन्हीं नाकामियों का फायदा उठाकर एक नई राजनीतिक वैधता और जन-समर्थन हासिल
करने की कोशिश कर रही है. उसकी इन कोशिशों को उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार की नाकामियों, जनता की बढ़ी हुई उम्मीदों पर खरा न उतरने और जातिवादी-सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की संकीर्ण राजनीति से लाभ उठाने की हताश कोशिशों से बहुत मदद मिली है. यही नहीं, बहुजन समाज पार्टी की वह अवसरवादी और सिनिकल जातिवादी राजनीति भी उतार पर है जिसकी सीमाएं और अंतर्विरोध साफ़ दिखने लगी हैं और जिसके पास सामाजिक-आर्थिक बराबरी पर आधारित समाज का कोई सपना नहीं है.
सच पूछिए तो ऐसा लगता है कि कांग्रेस और सपा-बसपा ने मिलकर अपनी तरफ़ से उत्तर
प्रदेश को भाजपा को सौंप दिया है. सच यह है कि उनके पास न तो हिंदुत्व की सांप्रदायिक राजनीति
से लड़ने की वैचारिक तैयारी है और न कोई प्रतिबद्धता. बिना किसी प्रगतिशील और
जनोन्मुखी कार्यक्रम के जाति-संप्रदाय की गोलबंदी की संकीर्ण और सिनिकल राजनीति भी
अंधे कुएं में फंस गई है. इसलिए कांग्रेस-सपा से हिंदुत्व की सांप्रदायिक राजनीति
को चुनौती की कोई उम्मीद नहीं है. सबसे बड़ा खतरा यह है कि इन कथित धर्मनिरपेक्ष दलों की अवसरवादी, सिनिकल और आमलोगों खासकर गरीबों के मुद्दों, आकांक्षाओं और अपेक्षाओं से कटी हुई 'धर्मनिरपेक्ष राजनीति' के कारण 'धर्मनिरपेक्षता' का विचार और राजनीति दोनों गहरे संकट में फंस गई है.
इसके बावजूद उत्तर प्रदेश और बनारस में अगर कोई उम्मीद बची है तो वह
उन गरीबों, कमजोर वर्गों, दलितों, अल्पसंख्यकों और आम लोगों के कारण बची है जो
हिंदुत्व की सांप्रदायिक राजनीति के पीछे छिपे खतरों को समझ रहे हैं. वे हिंदुत्व
के उभार के पीछे खड़ी उन सामंती और बड़ी पूंजी की कारपोरेट ताकतों को देख रहे हैं जो
पिछले दशकों की लड़ाइयों से मिले राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक हकों को पलटने के लिए
जोर मार रहे हैं.
वे अपने निजी अनुभवों से जानते हैं कि हिंदुत्व के इस उभार में जो सामाजिक
वर्ग सबसे अधिक उछल और आक्रामक हो रहा है, वह उसके हितों के लिए लड़नेवाला नहीं
बल्कि उन्हें छीनने और दबानेवाला वर्ग है. बनारस में भी हिंदुत्व की आक्रामक
राजनीति के पीछे खड़े चेहरों को पहचानना मुश्किल नहीं है. खासकर भगवा टोपी में
दनदना रहे और विरोध और विवेक की हर आवाज़ को दबाने के लिए धमकाने से लेकर हिंसा तक
का सहारा ले रहे हिंदुत्व के पैदल सैनिकों (फुट सोल्जर्स) में अच्छी-खासी तादाद उन
सामंती दबंगों की है जिनकी गाली और लाठी की मार इन गरीबों और कमजोर वर्गों पर पड़ती
रही है.
क्या इससे कांग्रेस और उसके प्रत्याशी अजय राय लड़ सकते हैं? गौर करने
की बात यह है कि अजय राय के साथ उसी सामंती दबंगों से बने सामाजिक आधार का तलछठ बचा
हुआ है जो इस समय भाजपा का अगुवा दस्ता बना हुआ है. इसलिए उससे यह उम्मीद करना खुद
को धोखे में रखना है कि वह साम्प्रदायिकता से मुकाबला करेगा और बनारस की आत्मा की
हिफाजत करेगा. मजे की बात यह है कि भाजपा के नेता भी बहुत सोची-समझी रणनीति के तहत
कांग्रेस और अजय राय को मुकाबले में बता रहे हैं. यह भ्रम पैदा करने और विपक्ष के
वोटों का बंटवारा सुनिश्चित कराने की कोशिश है. दूसरी ओर, बनारस में सपा और बसपा
के प्रत्याशी पहले ही लड़ाई में हथियार डाल चुके हैं.
अच्छी बात यह है कि बनारस में लोगों के सामने आम आदमी पार्टी और अरविंद
केजरीवाल के रूप में एक मुकम्मल न सही लेकिन फौरी विकल्प है. इस लड़ाई का नतीजा
चाहे जो हो लेकिन केजरीवाल ने भाजपा के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को राजनीतिक-वैचारिक
तौर पर चुनौती दी है. हालाँकि इस चुनौती की सीमाएं हैं. लेकिन खुद केजरीवाल के
मैदान में उतरने से बनारस की लड़ाई एकतरफा नहीं रह गई है. उससे भी महत्वपूर्ण बात
यह है कि बनारस की वैचारिक-राजनीतिक विविधता और बहुलता को पूरी तरह कुचलने की कोशिशें
कामयाब नहीं हुईं.
असल में, बनारस की इस लड़ाई में केजरीवाल के साथ और स्वतंत्र तौर पर भी
दर्जनों सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों, जनांदोलनों, वाम-लोकतान्त्रिक छात्र-युवा संगठनों और
बुद्धिजीवियों ने जो मुद्दे उठाए हैं, लोगों के बीच जाकर बात कही है और हिंदुत्व की राजनीति के खतरों पर एक
राजनीतिक-वैचारिक बहस खड़ी की है, उससे बनारस में राजनीतिक माहौल बदला है. एक
उम्मीद पैदा हुई है. नतीजा चाहे जो हो लेकिन बनारस में ‘भारत के विचार’ की भविष्य
की लड़ाई की चुनौतियाँ और संभावनाएं एक साथ दिख रही हैं. यह लड़ाई यहीं खत्म नहीं होनेवाली है. बनारस इस लड़ाई का एक महत्वपूर्ण मोर्चा है. लेकिन इस लड़ाई में अभी और भी कई मोर्चे आनेवाले हैं.
1 टिप्पणी:
Bahut dino baad aapne blog likha ..pad kar aacha laga...
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