निजीकरण और व्यवसायीकरण के जरिये शिक्षा को बड़े कारपोरेट समूहों के हवाले करने की तैयारी
इस समिति ने शिक्षा में निजी क्षेत्र के अलावा पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप को बढ़ावा देने की वकालत की और इसके साथ ही शिक्षा के निजीकरण की प्रक्रिया ने रफ़्तार पकड़ ली. इसी दौरान देश भर में केन्द्र और राज्य सरकारों ने बड़े पैमाने पर निजी इंजीनियरिंग, मेडिकल और दूसरे प्रोफेशनल संस्थानों के अलावा निजी विश्वविद्यालयों को बिना किसी जांच-पड़ताल और देखरेख के अनुमति देना शुरू कर दिया.
औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबी संगठन – एसोचैम के मुताबिक, भारत में अभी शिक्षा का कुल बाजार लगभग २५ अरब डालर (१३७५ अरब रूपये) का है जो २०१५ तक बढ़कर लगभग ५० अरब डालर (२७५० अरब रूपये) का हो जाने का अनुमान है. यही नहीं, शिक्षा को एक मंदीमुक्त कारोबार माना जाता है. कहने की जरूरत नहीं है कि कारपोरेट समूहों की इस ओर ललचाई निगाहें लगी हुई हैं. वे सरकार पर इसे पूरी तरह से खोलने यानी मुनाफा बाहर ले जाने की मांग कर रहे हैं.
यही नहीं, सारे नियम और अंकुश सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों पर होंगे और प्राइवेट संस्थानों को हर तीन-तिकडम की छूट होगी. दोनों के बीच प्रतियोगिता संभव ही नहीं है. रही-सही कसर विदेशी विश्वविद्यालयों के आने के बाद पूरी हो जाएगी. लेकिन सरकार प्रतियोगिता चाहती भी कहाँ है? वह तो निजीकरण और व्यवसायीकरण के जरिये शिक्षा को बड़े कारपोरेट समूहों के हवाले करने की ओर बढ़ रही है.
लेकिन इसका नतीजा क्या हो रहा है? शिक्षा दिन पर दिन महंगी और गरीबों की पहुँच से बाहर होती जा रही है. यहाँ तक कि आम मध्यवर्गीय परिवारों में भी बच्चों की पढाई खासकर उच्च शिक्षा के लिए कर्ज लेने की नौबत आ गई है. उन्हें अपनी सारी जमा-पूंजी बच्चों की शिक्षा पर खर्च करनी पड़ रही है. परिवारों के बजट पर दबाव बढ़ रहा है.
प्रतिभाशाली लेकिन गरीब छात्र/छात्राओं को अच्छे शिक्षा संस्थानों में दाखिला लेना मुश्किल होने लगा है. यही नहीं, शिक्षा की गुणवत्ता भी प्रभावित हो रही है. प्रोफेशनल कोर्सेज की मांग बढ़ रही है और पारंपरिक विज्ञान और मानविकी का अध्ययन घट रहा है.
शिक्षा का बाजारीकरण: दूसरी किस्त
यह एक बहुत सोची-समझी राजनीति के तहत हो रहा था. निजी शैक्षिक
संस्थानों के फलने-फूलने के लिए यह जरूरी था कि न सिर्फ सरकारी संस्थानों को
बर्बाद किया जाये, उन्हें बदनाम किया जाये बल्कि उनकी फीसों को भी बढ़ाया जाए ताकि
निजी शैक्षिक संस्थानों को उनसे मुकाबला करने में आसानी हो.
हैरानी की बात नहीं है
कि ९० के दशक में सरकारी स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक में फीस बढ़ाने के लिए
कई सरकारी समितियां जैसे जस्टिस पुनैय्या समिति, मह्मुदुर्रहमान समिति,
बिडला-अम्बानी समिति आदि गठित की गईं और फीस बढ़ाई गई. यह वही दौर था जब उदारीकरण,
निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों से फायदा उठानेवाला एक नव दौलतिया वर्ग पैदा हो
रहा था और जो निजीकरण और बाजार का सबसे बड़ा पैरोकार बनकर उभर रहा था.
दूसरी ओर, देशी-विदेशी पूंजीपतियों और कारपोरेट का एक बड़ा वर्ग शिक्षा
में एक बड़ा बाजार और भारी मुनाफे की संभावनाएं देखने लगे थे. उनकी ओर से इस
क्षेत्र को बड़ी निजी पूंजी के लिए खोलने की मांग उठने लगी थी. इसी दौरान एन.डी.ए
सरकार ने शिक्षा के बारे में आगे का रोडमैप तैयार करने के लिए बिडला-अम्बानी समिति
का गठन किया. इस समिति ने शिक्षा में निजी क्षेत्र के अलावा पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप को बढ़ावा देने की वकालत की और इसके साथ ही शिक्षा के निजीकरण की प्रक्रिया ने रफ़्तार पकड़ ली. इसी दौरान देश भर में केन्द्र और राज्य सरकारों ने बड़े पैमाने पर निजी इंजीनियरिंग, मेडिकल और दूसरे प्रोफेशनल संस्थानों के अलावा निजी विश्वविद्यालयों को बिना किसी जांच-पड़ताल और देखरेख के अनुमति देना शुरू कर दिया.
हालत यह हो गई कि छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में सिर्फ कुछ घंटों में राज्य
विधानसभा ने एक साथ २०० निजी विश्वविद्यालय खोलने की अनुमति दे दी. इसमें से
अधिकांश के पास अपनी जमीन या बिल्डिंगें भी नहीं थीं और कुछ सिर्फ दो-चार कमरों तक
सिमटे हुए थे. लेकिन इस मामले में छत्तीसगढ़ अकेला नहीं था. यहाँ तो हर राज्य में
‘रामनाम की लूट मची थी, लूट सके तो लूट’ वाली तर्ज पर शैक्षणिक संस्थानों की लूट
मची हुई थी.
नतीजा, बिना जरूरी सुविधाओं, शिक्षकों, लैब-लाइब्रेरी और क्लासरूम के
इंजीनियरिंग कालेज से लेकर विश्वविद्यालय तक खुल गए और छात्रों/अभिभावकों को
फंसाकर लूटने में लग गए. उनको फलने-फूलने में इसलिए भी मदद मिली कि सरकारी संस्थान
कम थे, उनमें सीटों की संख्या कम थी और छात्र ज्यादा थे. यह स्थिति इसलिए पैदा हुई
थी कि ९० के दशक में सरकार ने आर्थिक संकट का बहाना बनाकर नए विश्वविद्यालय और
शैक्षणिक संस्थान नहीं खोले.
जाहिर है कि इसका सबसे अधिक फायदा शिक्षा के व्यापारियों ने उठाया.
लेकिन शिक्षा के निजीकरण के पहले दौर में अपेक्षाकृत छोटे-मंझोले
व्यापारी-ठेकेदारों ने पूंजी लगाईं लेकिन अब उसपर बड़े कारपोरेट समूहों और विदेशी
शैक्षणिक संस्थानों की निगाहें लगी हुई हैं. औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबी संगठन – एसोचैम के मुताबिक, भारत में अभी शिक्षा का कुल बाजार लगभग २५ अरब डालर (१३७५ अरब रूपये) का है जो २०१५ तक बढ़कर लगभग ५० अरब डालर (२७५० अरब रूपये) का हो जाने का अनुमान है. यही नहीं, शिक्षा को एक मंदीमुक्त कारोबार माना जाता है. कहने की जरूरत नहीं है कि कारपोरेट समूहों की इस ओर ललचाई निगाहें लगी हुई हैं. वे सरकार पर इसे पूरी तरह से खोलने यानी मुनाफा बाहर ले जाने की मांग कर रहे हैं.
केन्द्र सरकार भी उन्हें पूरी शह दे रही है. योजना आयोग के उपाध्यक्ष
मोंटेक सिंह अहलुवालिया का प्रस्ताव है कि शिक्षा के क्षेत्र में प्रतियोगिता बढ़नी
चाहिए. निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के बीच प्रतियोगिता को बढ़ाने के लिए वे वाउचर
व्यवस्था शुरू करने की वकालत कर रहे हैं. इसके तहत हर छात्र को उसकी फीस का पैसा
सरकार वाउचर के रूप में उसे दे देगी और वह छात्र/छात्रा जिस भी संस्थान में दाखिला
लेगा, उसे सरकार उस वाउचर का पैसा देगी.
अहलुवालिया के मुताबिक, अभी सरकार
छात्रों/शिक्षा पर कोई ३६ हजार करोड़ रूपये खर्च कर रही है, इसे सार्वजनिक शिक्षा
संस्थानों को देने के बजाय वह सीधे छात्रों को दे देगी और छात्रों को अपनी ओर
आकर्षित करने के लिए निजी और सरकारी संस्थानों को प्रतियोगिता करनी पड़ेगी.
यह साफ़ तौर पर चोर दरवाजे से निजीकरण और व्यवसायीकरण का प्रस्ताव है.
सच यह है कि सरकारी अंकुश में बंधे सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों को निजी शिक्षा
संस्थानों से प्रतियोगिता करने के लिए न तो संसाधन दिए जाएंगे और न ही निर्णय लेने
में वह स्वायतत्ता. यही नहीं, सारे नियम और अंकुश सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों पर होंगे और प्राइवेट संस्थानों को हर तीन-तिकडम की छूट होगी. दोनों के बीच प्रतियोगिता संभव ही नहीं है. रही-सही कसर विदेशी विश्वविद्यालयों के आने के बाद पूरी हो जाएगी. लेकिन सरकार प्रतियोगिता चाहती भी कहाँ है? वह तो निजीकरण और व्यवसायीकरण के जरिये शिक्षा को बड़े कारपोरेट समूहों के हवाले करने की ओर बढ़ रही है.
लेकिन इसका नतीजा क्या हो रहा है? शिक्षा दिन पर दिन महंगी और गरीबों की पहुँच से बाहर होती जा रही है. यहाँ तक कि आम मध्यवर्गीय परिवारों में भी बच्चों की पढाई खासकर उच्च शिक्षा के लिए कर्ज लेने की नौबत आ गई है. उन्हें अपनी सारी जमा-पूंजी बच्चों की शिक्षा पर खर्च करनी पड़ रही है. परिवारों के बजट पर दबाव बढ़ रहा है.
प्रतिभाशाली लेकिन गरीब छात्र/छात्राओं को अच्छे शिक्षा संस्थानों में दाखिला लेना मुश्किल होने लगा है. यही नहीं, शिक्षा की गुणवत्ता भी प्रभावित हो रही है. प्रोफेशनल कोर्सेज की मांग बढ़ रही है और पारंपरिक विज्ञान और मानविकी का अध्ययन घट रहा है.
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