गुरुवार, अगस्त 30, 2012

क्या मीडिया हमें अँधेरे में रख रहा है?

लोग न्यूज चैनलों और मीडिया से नाराज क्यों हैं?   

पहली किस्त

उम्मीद है कि आप सबने यह खबर पढ़ी होगी. असम और म्यामार में मुसलमानों के साथ ज्यादती के विरोध में मुंबई के आज़ाद मैदान में आयोजित विरोध सभा में हिस्सा लेने आए युवाओं का एक हिस्सा हिंसा पर उतर आया. मुस्लिम युवाओं के उस समूह ने उसके बाद पुलिस पर हमला किया, उसकी गाड़ियों में आग लगा दी, बसों में तोड़फोड़ की और आग लगा दी और फिर वहां खड़ी मीडिया पर हमले किये खासकर तीन न्यूज चैनलों की ओ.बी वैन को आग लगा दी.
मीडियाकर्मियों के कैमरे तोड़ दिए, पुलिसकर्मियों की पिटाई की और आमलोगों के साथ भी मारपीट की. पुलिस को भीड़ को काबू में करने के लिए लाठीचार्ज करना पड़ा और हवा में गोलियाँ चलानी पड़ी. उस हिंसा में दो लोग मारे गए और दर्जन भर से ज्यादा गंभीर रूप से घायल हो गए.
इसके बाद इससे मिलती-जुलती हिंसा और हुडदंग की घटनाएँ लखनऊ और इलाहाबाद में भी हुई जहाँ नमाज पढकर मस्जिद से निकल रहे मुस्लिम युवाओं की उग्र भीड़ ने डंडों और सरियों से लैस होकर आमलोगों को पीटा, पत्रकारों-फोटोग्राफरों पर हमला किया, उनके कैमरे तोड़ दिए, बाजार में तोड़फोड़ की और आसपास के पार्क में बुद्ध-महावीर की मूर्ति को तोड़ने की कोशिश की.

जाहिर है कि इन घटनाओं ने सबको चौंका दिया. पुलिस हैरान है. मीडिया हैरान है. इसलिए भी कि इन सभी घटनाओं में हिंसक और अराजक भीड़ के निशाने पर मुख्यतः पुलिस और मीडिया ही थी.

यही कारण है कि पुलिस और मीडिया के साथ राजनेता, बुद्धिजीवी और आमलोग भी हैरान हैं कि आखिर असम और म्यामार में मुस्लिम समुदाय के साथ ज्यादती की कथित घटनाओं पर ऐसी हिंसक प्रतिक्रिया मुंबई या लखनऊ और इलाहाबाद में क्यों हुई? क्या यह पूर्वनियोजित हिंसा की घटनाएँ थीं?
इन और इन जैसे कई सवालों का अभी तक कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला है. लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि हिंसा और उसके स्केल का अनुमान पुलिस भी नहीं लगा सकी और वह इससे निपटने में नाकाम रही.
लेकिन मुंबई की हिंसा के मामले में जहाँ इसका पूर्वानुमान लगा पाने और हिंसा को रोकने में पुलिस की भूमिका की आलोचना हो रही है, वहीं हिंसक भीड़ से निपटने में संयम और उसे जल्दी ही नियंत्रित कर लेने के लिए मुंबई पुलिस की प्रशंसा भी हो रही है.
लेकिन सवाल न्यूज चैनलों को लेकर भी उठ रहे हैं. उनके दर्शकों को जरूर पूछना चाहिए कि मुंबई या लखनऊ और इलाहाबाद की हिंसा क्यों हुई? इसके पीछे क्या कारण थे? हिंसक भीड़ पुलिस के साथ मीडिया खासकर चैनलों से क्यों नाराज थी? मीडिया को भी मुस्लिम युवाओं के इस गुस्से का इल्म क्यों नहीं हो पाया?

आखिर क्या कारण है कि न्यूज चैनल मुंबई, लखनऊ और इलाहाबाद में मुस्लिम युवाओं के गुस्से और उससे निकली हिंसा को भांप नहीं पाए जबकि न्यूज चैनलों और अखबारों की इन सभी शहरों में पर्याप्त मौजूदगी (रिपोर्टरों/संपादकों और ओ.बी/स्टूडियो सहित) है?

क्या यह चैनलों/मीडिया और मुस्लिम समाज के बीच बढ़ती दूरी और उसके कारण बढते अविश्वास का नतीजा नहीं है? क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि न्यूज चैनल और मीडिया मुस्लिम समुदाय से कट से गए हैं और उनका मुस्लिम समाज खासकर युवाओं से संवाद कमजोर हुआ है? क्या यह संवादहीनता न्यूज चैनलों/मीडिया में मुस्लिम समाज के प्रति बढते पूर्वाग्रह, स्टीरियोटाइप और खुद मीडिया में मुस्लिम समाज की कम मौजूदगी के कारण नहीं पैदा हुई और बढ़ी है?
आखिर मुंबई के हिंसक युवाओं की चैनलों/मीडिया से शिकायत क्या थी? रिपोर्टों के मुताबिक, हिंसक मुस्लिम युवाओं की मीडिया खासकर न्यूज चैनलों से यह शिकायत थी कि वे असम और म्यामार में मुस्लिम समुदाय पर हो रहे जुल्म और अत्याचार की रिपोर्टिंग नहीं कर रहे हैं, वे सच्चाई को सामने लाने के बजाय उसे दबा रहे हैं और खासकर चैनलों और न्यूज मीडिया ने अमेरिका में गुरूद्वारे में सिख समुदाय पर हुई हिंसा की जितनी व्यापक रिपोर्टिंग की और उसे मुद्दा बनाया, उसकी तुलना में असम और म्यामार में मुस्लिमों विरोधी हिंसा की बहुत कम कवरेज की.
आज़ाद मैदान में हुए भाषणों में भी ये मुद्दे उठे और मुस्लिम नेताओं की शिकायत थी कि न्यूज चैनलों/मीडिया में मुस्लिम समुदाय के साथ भेदभावपूर्ण रवैया अपनाया जा रहा है और उनके सवालों और मुद्दों को जानबूझकर अनदेखा किया जाता है.

इसके अलावा मुस्लिम समुदाय की यह शिकायत लंबे समय से चली आ रही है कि चैनल/मीडिया उनकी नकारात्मक छवि पेश करते हैं और ‘आतंकवाद से युद्ध’ के नामपर निर्दोष मुस्लिम युवाओं की भी ऐसी छवि बना दी है जैसे वे सभी आतंकवादी हों. इसके कारण उन्हें रोजमर्रा के जीवन में भेदभाव और अपमान झेलना पड़ता है. (इस मुद्दे पर विस्तार से पढ़ने के लिए देखें ‘कथादेश’ के दिसंबर’11 अंक में इलेट्रानिक मीडिया स्तम्भ और इसी ब्लॉग पर दिसंबर'11 के पोस्ट)

यह सही है कि चैनलों/मीडिया या पुलिस से कोई भी नाराजगी या शिकायत मुंबई या लखनऊ की आपराधिक हिंसा और गुंडागर्दी को जायज नहीं ठहरा सकती है. लेकिन यह कहते हुए भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि चैनलों/मीडिया को लेकर मुस्लिम समाज की कई शिकायतों में दम है. इनमें से कई शिकायतें पुरानी हैं.
इन शिकायतों को अनदेखा करने से न्यूज चैनलों और मीडिया की अपनी साख और विश्वसनीयता दांव पर लग गई है. न्यूज चैनलों और मीडिया की साख इसलिए भी दांव पर है क्योंकि उसके दर्शकों और पाठकों की उससे सबसे बड़ा अपेक्षा यह होती है कि वे उन्हें देश-समाज में चल रही हलचल और खदबदाहट से अवगत कराएँगे.
लेकिन मुंबई की हिंसा के मामले में मुस्लिम समाज के एक छोटे हिस्से में ही चल रही खदबदाहट को भांपने और उसके बारे में अपने दर्शकों को सूचित करने के मामले में चैनलों की विफलता साफ़ दिखाई दे रही है. मुस्लिम युवा क्यों नाराज हैं? उसका एक बहुत छोटा हिस्सा ही सही लेकिन वह हिस्सा हिंसा पर क्यों उतारू हो रहा है और इंडियन मुजाहिदीन जैसे आतंकवादी समूहों से जुड़ रहा है?

क्या यह जानना हम दर्शकों/पाठकों के लिए जरूरी नहीं है? क्या इस बारे में पर्याप्त जानकारी के मौजूदा विस्फोटक स्थिति में कोई बदलाव संभव है? क्या इस मुद्दे पर कोई गहरी, विवेकपूर्ण और संवेदनशील बहस और चर्चा तथ्यपूर्ण और वस्तुनिष्ठ रिपोर्ट के बिना संभव है?

इससे कुछ वैसी ही स्थिति बन रही है कि जब अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड टावर पर आतंकवादी हमला हुआ तो सरकार, पुलिस, ख़ुफ़िया एजेंसियों से लेकर मीडिया तक सब हैरान थे कि यह कैसे और क्यों हुआ?
उस दौरान सबसे अधिक पूछा जाने वाला सवाल यह था कि आखिर उन्हें (आतंकवादियों को) अमेरिका से क्या शिकायत या चिढ़ है? वे अमेरिका से क्यों नाराज हैं? यह भी कि यह अफगानिस्तान कहाँ है और उनकी समस्या क्या है?
कहने की जरूरत नहीं है कि अमेरिकी समाज और उसके नागरिक ऐसे किसी बड़े आतंकवादी हमले के लिए तैयार नहीं थे. इसकी बड़ी वजह यह थी कि अमेरिकी मीडिया ने उन्हें अँधेरे में रखा था. अमेरिकी मीडिया ने अमेरिकी नागरिकों को इस बारे में पर्याप्त रूप से सूचित और शिक्षित नहीं किया था कि मध्य पूर्व के मुस्लिम समाज में अमेरिकी नीतियों को लेकर कितनी नाराजगी है?

वह नाराजगी मुस्लिम युवाओं खासकर पढ़े-लिखे प्रोफेशनल्स के एक हिस्से को किस तरह से आतंकवाद और हिंसा की ओर धकेल रही है, इसे लेकर अमेरिकी मीडिया ने लोगों को सूचित और शिक्षित नहीं किया था?

ये सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि अगर इन मुद्दों पर अमेरिकी मीडिया ने अपने पाठकों/दर्शकों/श्रोताओं को सूचित और शिक्षित किया होता तो संभव है कि देश में एक ऐसा जागरूक जनमत तैयार होता जो अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान को उन नीतियों पर पुनर्विचार करने और मुस्लिम समाज के साथ संवाद शुरू करने को बाध्य कर सकता था जिनके कारण टकराव यहाँ तक पहुँच गया.
यह सही है कि अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान ने अमेरिकी जनता को अँधेरे में रखा लेकिन उसके साथ ही यह भी उतना ही सच है कि इसमें अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान का सबसे बड़ा मददगार अमेरिकी न्यूज मीडिया ही था.
जारी...

(इस लम्बी टिप्पणी का संक्षिप्त और सम्पादित/संशोधित अंश 'जनसत्ता' के सम्पादकीय पृष्ठ पर 29 जून को प्रकाशित) 

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