दुनिया भर के अनुभवों से साफ़ है कि खुदरा व्यापार
में विदेशी पूंजी को इजाजत देने से फायदे कम हैं और नुकसान ज्यादा
यही नहीं, वह इस फैसले से देशी-विदेशी निवेशकों के बीच अर्थव्यवस्था को लेकर ‘फीलगुड’ का माहौल भी बनाना चाहती है. इस बीच, ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि संसद के मॉनसून सत्र के बाद सरकार इस फैसले को लागू करने का एलान कर सकती है. उद्योग और वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का विषय बना लिया है और इसके लिए खुले पी.आर अभियान में जुटे हुए हैं. उन्होंने हाल में विपक्ष शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को चिट्ठी लिखकर उनकी राय मांगी है.
दूसरी ओर, वे खुदरा व्यापार में बड़ी विदेशी पूंजी को इजाजत देने से होनेवाली क्रांति का अहर्निश गुणगान करने में जुटे हैं. हालाँकि इसमें नया कुछ नहीं है लेकिन आनंद शर्मा इसे महंगाई, कृषि संकट, बेरोजगारी जैसी समस्याओं के रामबाण इलाज से लेकर किसानों, उपभोक्ताओं और उत्पादकों सबके लिए फायदे का सौदा साबित करने में लगे हैं.
सबसे पहले सरकार के इस दावे को लीजिए कि खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी के आने से किसानों को उनकी उपज की अधिक कीमत मिलेगी क्योंकि बड़ी विदेशी रिटेल कम्पनियाँ किसानों से सीधे खरीदेंगी और नतीजे में बिचौलिए खत्म हो जाएंगे. इससे उपभोक्ताओं को भी वस्तुएँ/उत्पाद सस्ते मिलेंगे.
यही नहीं, रिटेल कम्पनियाँ कोल्ड स्टोरेज आदि भी लगाएंगी जिससे कृषि उत्पादों खासकर फलों-सब्जियों की बर्बादी को रोका जा सकेगा. लेकिन अगर वालमार्ट जैसी बड़ी रिटेल कंपनियों से किसानों को उनकी उपज की ऊँची कीमत मिलती और उन्हें इतना ही फायदा होता तो अमेरिका और यूरोप के किसानों को सरकारी सब्सिडी की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए थी.
मेक्सिको में भी यही हाल है जबकि खुद अमेरिका की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सुपर स्टोर्स ने १९९४ से २००४ के बीच टमाटरों की कीमतें ४६ फीसदी बढ़ा दीं लेकिन किसानों को मिलनेवाली वास्तविक कीमत में २५ फीसदी की कमी आ गई. असल में, यह समझना बहुत जरूरी है कि वैश्विक स्तर पर कृषि उत्पादों के व्यापार और वितरण पर बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों जैसे कारगिल, कांटिनेंटल और लुइ ड्रेफस और वालमार्ट, टेस्को, मेट्रो आदि का कब्ज़ा है.
इसी तरह अर्जेंटीना में १९८४ से १९९३ के बीच बड़े रिटेल के आने के बाद छोटे दूकानों की संख्या में कोई ३० फीसदी और खुदरा व्यापार में रोजगार पाए लोगों की संख्या में २६ फीसदी की गिरावट देखी गई. हैरानी की बात नहीं है कि आज लातिन अमेरिका में खाद्य वस्तुओं के खुदरा व्यापार का ६० फीसदी से ज्यादा बड़े और संगठित रिटेल स्टोर्स के हाथों में है.
दूसरे, बड़ी रिटेल कंपनियों को सिर्फ दस लाख से अधिक की आबादी वाले शहरों में ही स्टोर्स खोलने की इजाजत दी जा रही है. तीसरे, उन्हें अनुचित प्रतियोगिता से रोकने के लिए यानी बहुत सस्ता सामान बेचकर छोटे दूकानदारों को प्रतियोगिता से बाहर करने की इजाजत नहीं दी जाएगी और उनकी इस रणनीति पर कम्पटीशन कमीशन की नजर रहेगी.
('दैनिक भाष्कर', नई दिल्ली के 6 अगस्त'12 के अंक में आप-एड पृष्ठ पर प्रकाशित)
यह किसी से छुपा नहीं है कि यू.पी.ए सरकार खुदरा व्यापार में
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई) को इजाजत देने के पिछले साल नवंबर में लिए गए
फैसले को लागू करने लिए बेचैन है. इसके लिए सरकार पर देशी-विदेशी बड़ी रिटेल
कंपनियों का भी जबरदस्त दबाव है. भारतीय खुदरा व्यापार में घुसने के लिए बेचैन अमेरिकी
बहुराष्ट्रीय रिटेल कंपनी वालमार्ट से लेकर यूरोपीय रिटेल कम्पनियाँ- टेस्को,
कारफोर और मेट्रो आदि जमकर लाबीईंग कर रही हैं.
इसके लिए इन कंपनियों ने अपनी
सरकारों को भी मैदान में उतार दिया है. आश्चर्य नहीं कि खुद अमेरिकी राष्ट्रपति
बराक ओबामा से लेकर विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन और ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड
कैमरून तक व्यक्तिगत रूप से मनमोहन सिंह सरकार पर खुदरा व्यापार को जल्दी से जल्दी
विदेशी पूंजी के लिए खोलने का दबाव डाल रहे हैं.
दूसरी ओर, यू.पी.ए सरकार पर घरेलू बड़ी रिटेल कंपनियों और उद्योग जगत
का भी भारी दबाव है. इस फैसले को लागू न करा पाने के कारण उसपर ‘नीतिगत लकवे’ का
आरोप भी लगता रहा है. कहने की जरूरत नहीं है कि यू.पी.ए सरकार खुदरा व्यापार में
५१ फीसदी एफ.डी.आई की इजाजत के फैसले को लागू करके न सिर्फ ‘नीतिगत लकवे’ के
आरोपों को धोना और आर्थिक सुधारों के प्रति अपनी वचनबद्धता साबित करना चाहती है
बल्कि वह सरकार से नाराज देशी-विदेशी कार्पोरेट्स को भी खुश करना चाहती है. यही नहीं, वह इस फैसले से देशी-विदेशी निवेशकों के बीच अर्थव्यवस्था को लेकर ‘फीलगुड’ का माहौल भी बनाना चाहती है. इस बीच, ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि संसद के मॉनसून सत्र के बाद सरकार इस फैसले को लागू करने का एलान कर सकती है. उद्योग और वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का विषय बना लिया है और इसके लिए खुले पी.आर अभियान में जुटे हुए हैं. उन्होंने हाल में विपक्ष शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को चिट्ठी लिखकर उनकी राय मांगी है.
दूसरी ओर, वे खुदरा व्यापार में बड़ी विदेशी पूंजी को इजाजत देने से होनेवाली क्रांति का अहर्निश गुणगान करने में जुटे हैं. हालाँकि इसमें नया कुछ नहीं है लेकिन आनंद शर्मा इसे महंगाई, कृषि संकट, बेरोजगारी जैसी समस्याओं के रामबाण इलाज से लेकर किसानों, उपभोक्ताओं और उत्पादकों सबके लिए फायदे का सौदा साबित करने में लगे हैं.
लेकिन तथ्य और दूसरे देशों के अनुभव वाणिज्य मंत्री के दावों की
पुष्टि नहीं करते हैं. इन दावों की पड़ताल जरूरी है.
किसानों से उपभोक्ताओं तक की चांदी?सबसे पहले सरकार के इस दावे को लीजिए कि खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी के आने से किसानों को उनकी उपज की अधिक कीमत मिलेगी क्योंकि बड़ी विदेशी रिटेल कम्पनियाँ किसानों से सीधे खरीदेंगी और नतीजे में बिचौलिए खत्म हो जाएंगे. इससे उपभोक्ताओं को भी वस्तुएँ/उत्पाद सस्ते मिलेंगे.
यही नहीं, रिटेल कम्पनियाँ कोल्ड स्टोरेज आदि भी लगाएंगी जिससे कृषि उत्पादों खासकर फलों-सब्जियों की बर्बादी को रोका जा सकेगा. लेकिन अगर वालमार्ट जैसी बड़ी रिटेल कंपनियों से किसानों को उनकी उपज की ऊँची कीमत मिलती और उन्हें इतना ही फायदा होता तो अमेरिका और यूरोप के किसानों को सरकारी सब्सिडी की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए थी.
तथ्य यह है कि अमेरिका और यूरोप के किसानों की आय वालमार्ट और टेस्को
जैसी बड़ी कंपनियों के कारण नहीं बल्कि अपनी सरकारों द्वारा मिलनेवाली भारी सब्सिडी
के कारण है. यही नहीं, अगर बड़ी रिटेल कंपनियों से किसानों की आय बढ़ती है तो भारत
में रिलायंस से लेकर आदित्य बिडला समूह जैसे दर्जनों कंपनियों की मौजूदगी का फायदा
किसानों को मिलना चाहिए था.
लेकिन ऐसे उदाहरण दुर्लभ हैं जिनसे यह पता चलता हो कि बड़ी
रिटेल कंपनियों ने किसानों को ऊँची कीमत दी हो. दूसरी ओर, उनकी मौजूदगी से सीमित
ही सही उपभोक्ताओं को भी दावों के मुताबिक, कृषि उत्पाद सस्ते मिलने चाहिए थे.
लेकिन सच यह है कि अधिकांश मामलों में इन कंपनियों के सुपर स्टोर्स में ज्यादातर
कृषि उत्पादों की कीमतें खुले बाजार से ज्यादा और कुछ मामलों में उसके बराबर पाई
गईं.
यही नहीं, दुनिया के कई देशों के अनुभव भी खासे कड़वे हैं. थाईलैंड में
बड़े रिटेल स्टोर्स में कीमतें छोटे खुदरा व्यापारियों की तुलना में १० फीसदी अधिक
पाई गईं जबकि अर्जेंटीना में पूरे ९० के दशक में कीमतों में यह अंतर कोई १४ फीसदी
अधिक था. वियतनाम में २००२ में बड़े रिटेल स्टोर्स में कीमतें १० फीसदी अधिक थीं.
मेक्सिको में भी यही हाल है जबकि खुद अमेरिका की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सुपर स्टोर्स ने १९९४ से २००४ के बीच टमाटरों की कीमतें ४६ फीसदी बढ़ा दीं लेकिन किसानों को मिलनेवाली वास्तविक कीमत में २५ फीसदी की कमी आ गई. असल में, यह समझना बहुत जरूरी है कि वैश्विक स्तर पर कृषि उत्पादों के व्यापार और वितरण पर बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों जैसे कारगिल, कांटिनेंटल और लुइ ड्रेफस और वालमार्ट, टेस्को, मेट्रो आदि का कब्ज़ा है.
वैश्विक बाजार में वे ही कृषि उत्पादों की कीमतें तय करती हैं और
भारतीय किसानों के लिए उनसे मोलभाव करना संभव नहीं होगा. यही नहीं, इस मामले में
भारतीय उदाहरण भी गौरतलब है. कृषि व्यापार में जब से कारगिल और आई.टी.सी जैसी बड़ी
कंपनियों की घुसपैठ बढ़ी है, कृषि जिंसों में सट्टेबाजी, जमाखोरी और मुनाफाखोरी
बहुत ज्यादा बढ़ गई है.
कृषि उत्पादों और खाद्यान्नों की आसमान छूती महंगाई में इन
कंपनियों और बड़ी रिटेल कंपनियों की भूमिका सवालों के घेरे में है. इसके अलावा ऐसी
भी रिपोर्टें हैं कि कोल्ड स्टोरेज आदि के बावजूद ये बड़ी कम्पनियाँ जितना कृषि
उत्पाद खरीदती हैं उसका आधे से अधिक बर्बाद हो जाता है.
विदेशी रिटेल कंपनियों की आक्रामक रणनीति : छोटे
दूकानदारों के उजड़ने की आशंका
माना जाता है कि वालमार्ट जैसी बड़ी रिटेल कम्पनियाँ जहाँ जाती हैं, वे
अपने प्रतियोगियों को बाजार से बाहर करने के लिए आक्रामक रणनीति का सहारा लेती
हैं. इसके लिए वे शुरू में घाटा खाकर भी सस्ते में बेचती हैं जिसका मुकाबला छोटे
खुदरा व्यापारी नहीं कर पाते हैं.
नतीजा यह होती है कि वे कुछेक महीनों या साल-दो
साल में बाजार से बाहर हो जाते हैं और जैसे ही प्रतियोगिता खत्म होती है, बड़ी
रिटेल कम्पनियाँ उपभोक्ताओं से मनमानी कीमत वसूलने लगती हैं. खुद अमेरिका में हुए
कई शोधों से यह पता चलता है कि वालमार्ट ने देश कई शहरों/इलाकों में इस रणनीति के
इस्तेमाल करके प्रतियोगियों खासकर छोटे खुदरा व्यापारियों को बाजार से बाहर कर
दिया.
उदाहरण के लिए ब्राजील में बड़े रिटेल स्टोर्स के खुलने के बाद १९८७ से
१९९६ के बीच फल-सब्जियों की बिक्री में छोटे खुदरा दुकानदारों की हिस्सेदारी में
२८ फीसदी की गिरावट दर्ज की गई जबकि दूध की बिक्री में छोटे स्टोर्स और दूधियों की
के हिस्से में क्रमश: २७ और ५३ फीसदी की कमी आ गई. इसी तरह अर्जेंटीना में १९८४ से १९९३ के बीच बड़े रिटेल के आने के बाद छोटे दूकानों की संख्या में कोई ३० फीसदी और खुदरा व्यापार में रोजगार पाए लोगों की संख्या में २६ फीसदी की गिरावट देखी गई. हैरानी की बात नहीं है कि आज लातिन अमेरिका में खाद्य वस्तुओं के खुदरा व्यापार का ६० फीसदी से ज्यादा बड़े और संगठित रिटेल स्टोर्स के हाथों में है.
इंडोनेशिया में तो सिर्फ एक साल (०२-०३) में कोई १.५४ लाख यानी नौ
फीसदी छोटी दुकाने बंद हो गईं. ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है. भारत जैसे देश के लिए
यह सबसे महत्वपूर्ण कसौटी है क्योंकि यहाँ खुदरा व्यापार रोजगार की दृष्टि से कृषि
के बाद दूसरा सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं.
एक अनुमान के मुताबिक, देश में
कोई १.४ करोड़ खुदरा दूकानें हैं जिनमें कोई चार करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ है.
अगर इनमें से हर व्यक्ति के परिवार को औसतन चार से पांच का माना जाए तो कोई १६ से
२० करोड़ लोगों की आजीविका इन छोटी किराना दुकानों के भरोसे है. हैरानी की बात नहीं
है कि छोटी खुदरा दूकानों के घनत्व के मामले में भारत दुनिया के तमाम देशों में
अव्वल है और यहाँ प्रति एक हजार की आबादी पर ११ छोटी किराना दुकानें हैं.
लेकिन यह इस कारण है कि जिसे और कोई काम नहीं मिला तो वह छोटी से
पूंजी से अपने घर में या सड़क पर एक छोटी सी दूकान शुरू कर देता है और उससे आजीविका
कमाता है. सवाल है कि वालमार्ट जैसे बड़े विदेशी सुपर स्टोर्स के आगे वे कितने दिन
ठहर पायेंगे? सरकार का दावा है कि छोटे खुदरा व्यापारियों को कोई नुकसान नहीं होगा
क्योंकि उनका स्थानीय लोगों के साथ नजदीकी रिश्ता है. दूसरे, बड़ी रिटेल कंपनियों को सिर्फ दस लाख से अधिक की आबादी वाले शहरों में ही स्टोर्स खोलने की इजाजत दी जा रही है. तीसरे, उन्हें अनुचित प्रतियोगिता से रोकने के लिए यानी बहुत सस्ता सामान बेचकर छोटे दूकानदारों को प्रतियोगिता से बाहर करने की इजाजत नहीं दी जाएगी और उनकी इस रणनीति पर कम्पटीशन कमीशन की नजर रहेगी.
लेकिन पिछले अनुभवों से यह साफ़ है कि एक बार बड़ी विदेशी रिटेल
कंपनियों के भारतीय बाजार में आ जाने के बाद ये सभी दावे बेमानी हो जाएंगे. सबसे
ताज़ा उदाहरण खुदरा व्यापार से ही है. यू.पी.ए सरकार ने पिछले साल नवंबर में एकल
ब्रांड खुदरा व्यापार में १०० फीसदी एफ.डी.आई की इजाजत देने का फैसला किया था.
इसके तहत स्वीडन की बहुराष्ट्रीय फर्नीचर स्टोर कंपनी- इकिया ने देश में १.५ अरब
यूरो के निवेश का प्रस्ताव किया है लेकिन वह भारतीय लघु और मंझोले उद्योगों से ३०
फीसदी उत्पाद खरीदने की शर्त से मुक्ति चाहती है और हैरानी की बात नहीं है कि
सरकार इस शर्त को लचीला बनाने और ढीला करने में जुट गई है.
साफ़ है कि आज खुदरा व्यापार
को विदेशी पूंजी के लिए खोलने के पक्ष में माहौल बनाने के लिए जितने शर्तों और
सुरक्षा उपायों की बात कर रही है, उनका वालमार्ट जैसी बड़ी कंपनियों और उनकी
तिकडमों के आगे क्या हाल होगा?
कितना रोजगार मिलेगा और कितने बेरोजगार होंगे?
सरकार का यह भी दावा है कि बड़ी विदेशी रिटेल कंपनियों के आने से लाखों
लोगों को रोजगार मिलेगा. लेकिन अगर वालमार्ट जैसी बड़ी विदेशी रिटेल कंपनियों के
बिजनेस माडल पर गौर करें तो प्रति कर्मचारी कुल कारोबार का औसत बहुत ज्यादा है. इसका
अर्थ यह हुआ कि वह कम कर्मचारियों में ज्यादा कारोबार करती है.
उदाहरण के लिए वर्ष
२०१२ में वालमार्ट ने कुल ४४६.९५ अरब डालर का कारोबार किया लेकिन उसके कुल
कर्मचारियों की संख्या मात्र २२ लाख थी. भारत का कुल खुदरा व्यापार बाजार लगभग ४५०
अरब डालर का है जबकि यहाँ १.४ करोड़ लोगों को इसमें रोजगार मिला हुआ है. लेकिन अगर
वालमार्ट ने प्रति कर्मचारी कुल कारोबार के अपने वैश्विक औसत को भारत में लागू
किया तो कोई यहाँ के खुदरा व्यापार में रोजगार पाए १.१८ करोड़ लोग बेरोजगार हो
जाएंगे.
साफ़ है कि खुदरा व्यापार
में एफ.डी.आई में खतरे अधिक है और फायदे कम. इसके बावजूद यू.पी.ए सरकार बड़ी
देशी-विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए जिस हड़बड़ी में दिख रही है, वह देश और खासकर
खुदरा व्यापार से आजीविका कमा रहे करोड़ों लोगों के लिए विनाश का सबब बन सकती है.('दैनिक भाष्कर', नई दिल्ली के 6 अगस्त'12 के अंक में आप-एड पृष्ठ पर प्रकाशित)
4 टिप्पणियां:
कुछ तथ्य मैं रखना चाहूँगा : 1) हिलेरी क्लिंटन वालमार्ट की अधिकारी रह चुकी है और पिछले साल अमेरिका की विदेश मंत्री की हैसियत से भारत आने का उनका मकसद भी यही था. 2) वालमार्ट ने अपने पक्ष में लॉबींग करने के लिए 650 करोड़ रुपये खर्च किये हैं जो हिन्दुस्तान के नेताओं, नौकरशाहों और मीडिया को दिए गए हैं. जो इतने पैसे लेकर अपने देश का सौदा कर सकते हैं वहाँ हम और आप सिर्फ ये बहस ही करते रहेंगे. क्योंकि हमने अपने देश को इन लोगों के हवाले कर दिया है.
Vartman sarkar jab logo ko rozgaar nahi de pa rahi hai to 16 crore logo ka rozgaar chhien lene par kyon aamada hai ! Ussey ''aam aadmi'' se itni nafrat kisliye hai ! Jab sabkuchh corporate jagat ke hawale (privatization) hi kar dena hai to samvidhaan se ''samajwadi, mishrit arhvyavastha'' jaise shabdo aur vicharo ko hata dena chahiye... Anoop Kumar Mishra
संसद में जो लोग इसकी वकालत किए फिरते हैं.....उन्हे तो फर्क नहीं पड़ेगा । बस उन्हें इसी बात से मतलब है।
The government of India has been calculating each and every aspect of life in economic and materialistic terms. This is despite the fact that a large number of our MLA and MP's come from very ordinary background. These representatives have seen how small little things related to agriculture and rural areas matter a lot, not only economically but also socially and culturally in everybody's life. They have forgotten that these small little parchoon shops are not simply shops. They are common platform where people sit and talk. They socialize. Those who do not have cash in their pockets they get things on credit in these shops. None of these social factors matter when it comes to large MNCs. In other words, such policies have serious social and cultural implications as well. We are already witnessing a large number of suicides by our farmers. The NCRB data reveals that a large number of people who commit suicide are involved in informal economy. Will our government take the responsibility for more suicides in this sector?
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