शुक्रवार, अगस्त 31, 2012

असम की हिंसा की न्यूज मीडिया में अनदेखी के नतीजे

असम की हिंसा इसलिए भी फैली कि  न्यूज मीडिया ने इसकी व्यापक कवरेज नहीं की और राष्ट्रीय एजेंडा नहीं बनाया    
दूसरी किस्त  
नोम चोमस्की जैसे बहुतेरे मीडिया विश्लेषक इसी कारण अमेरिकी कारपोरेट मीडिया पर यह आरोप भी लगाते रहे हैं कि वह सत्ता प्रतिष्ठान के साथ मिलकर जनमत को तोड़ने-मरोड़ने और उसके व्यापक राजनीतिक हितों के मुताबिक ‘सहमति का निर्माण’ करने में मदद करता रहा है. इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो यह काफी हद तक सही है कि राष्ट्रीय न्यूज चैनलों और यहाँ तक कि पूरे भारतीय न्यूज मीडिया ने भी असम और म्यामार की घटनाओं के बारे में बारीकी, विस्तार और गहराई से रिपोर्टिंग नहीं की.
असम की हिंसा की शुरुआत में बहुत कम कवरेज हुई, उसकी फील्ड रिपोर्टिंग में रूचि नहीं ली गई, हिंसा के कारणों की छानबीन और उसकी तह में जाने की कोशिश नहीं हुई और जब मामला बहुत आगे बढ़ गया तो चैनलों/अखबारों ने अपने रिपोर्टर भेजे लेकिन वे भी गुवाहाटी और कोकराझार के कुछ इलाकों तक सीमित रहे.
सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि फील्ड और शोधपूर्ण रिपोर्टिंग और चर्चा-बहस की कमी को सनसनीखेज रिपोर्टिंग और उत्तेजक चर्चाओं/बहसों से भरने की कोशिश हुई. कहने की जरूरत नहीं है कि न्यूज चैनलों पर असम की सीमित, सतही और सनसनीखेज कवरेज के बहुत घातक नतीजे हुए.

पहला, असम में हिंसा की आग फैलती रही और राज्य और केन्द्र सरकार सोती रहीं. अगर न्यूज मीडिया ने शुरू से ही इसे व्यापक कवरेज दिया होता तो राज्य-केन्द्र सरकार के लिए हाथ पर हाथ धरे बैठना संभव नहीं होता.

याद कीजिए, मशहूर अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन की वह स्थापना जिसके मुताबिक लोकतान्त्रिक समाजों में एक सतर्क और सजग न्यूज मीडिया किसी आपदा/संकट के समय उस मुद्दे को जोरशोर से उठाकर सरकार और सिविल सोसायटी को उसपर तत्काल उपयुक्त कार्रवाई के लिए बाध्य कर देता है और बड़ी त्रासदी को टालने में मदद करता है. साफ़ है कि अगर न्यूज मीडिया और चैनलों ने असम की हिंसा को शुरू में ही उठाया होता तो उस हिंसा और आग को रोकने में मदद मिल सकती थी.
दूसरा, असम की सीमित और सतही कवरेज के कारण समाजविरोधी और साम्प्रदायिक तत्वों को अफवाहें फैलाने का मौका मिला. आखिर अफवाहें वहीं फैलती हैं जहाँ वास्तविक जानकारी उपलब्ध न हो या बहुत सीमित मात्रा में हो. क्या यह कहना सही नहीं होगा कि न्यूज मीडिया की सीमित और सतही कवरेज और असम की सच्चाई को तथ्यों/पृष्ठभूमि के साथ पेश करने में उसकी नाकामी ने अफवाहों को मौका दिया.

तीसरे, अफवाहों को कुछ हद स्वीकार्यता वहीं मिलती है जहाँ सूचना के दूसरे माध्यमों की साख और विश्वसनीयता कमजोर हो. सवाल यह है कि असम के मामले में अफवाहों को मुस्लिम समाज के बीच जो स्वीकार्यता मिली और जिसके कारण हिंसक विरोध प्रदर्शन हुए, क्या उसके पीछे एक बड़ा कारण मुस्लिम समाज में भारतीय न्यूज मीडिया की घटती साख और विश्वसनीयता तो नहीं है?

चौथे, न्यूज मीडिया और चैनलों की एक बड़ी नाकामी यह भी है कि वह इन अफवाहों और झूठी सूचनाओं को रोकने में समय रहते पहल नहीं कर सका. असल में, ये अफवाहें वेबसाइट्स, सोशल मीडिया और मोबाइल के जरिये झूठी खबरों और फोटोग्राफ के रूप में लोगों तक पहुँच रही थीं, सर्कुलेट हो रही थी और लोग उत्तेजित हो रहे थे लेकिन न्यूज मीडिया समय रहते इनकी पोल खोलने और पर्दाफाश करने में नाकाम रहा.
हैरानी की बात यह है कि सभी प्रमुख चैनलों/अखबारों/न्यूज एजेंसियों के संपादकों से लेकर रिपोर्टर तक सोशल मीडिया पर खासे सक्रिय हैं, उनके अखबार/चैनलों का सोशल मीडिया साइटों पर पेज है और वे जब तब सोशल मीडिया पर चल रही बहसों/गतिविधियों को खबर का विषय भी बनाते हैं. लेकिन क्या कारण है कि वे समय रहते इन झूठी रिपोर्टों और फर्जी फोटोग्राफ की पोल नहीं खोल पाए?                  
क्या कारण है कि खुद न्यूज मीडिया ने इस घृणा अभियान की बारीकी से जांच-पड़ताल और छानबीन नहीं की? इसी तरह बंगलूर सहित दक्षिण भारत के कई शहरों से उत्तर पूर्व के लोगों का पलायन की खबर भी हैरान करती हुई आई. आखिर ऐसा क्या हुआ कि अचानक उत्तर पूर्व के हजारों लोग बंगलूर जैसे बड़े महानगरों से पलायन करने लगे और सरकार के साथ-साथ मीडिया भी सोता हुआ पाया गया?

जाहिर है कि इसके पीछे भी सबसे बड़ी वजह यह है कि बड़े महानगरों में पढ़ और काम कर रहे उत्तर पूर्व के लाखों लोगों के बीच चैनलों और न्यूज मीडिया की पहुँच नहीं के बराबर है. उनसे उसका संवाद लगभग नहीं है. न्यूज मीडिया के लिए देश के अधिकांश शहरों में काम कर रहे आप्रवासी गुमनाम लोग हैं और अगर वे उत्तर पूर्व के हैं तो उन्हें विदेशी मान लिया जाता है.

यही नहीं, इस संवादहीनता और गैर-जानकारी का एक और कारण न्यूजरूम में उत्तर पूर्व के लोगों की बहुत कम मौजूदगी भी है. हिंदी न्यूज चैनलों/अखबारों में तो उत्तर पूर्व का शायद ही कोई मिले. यही हाल मुस्लिम समुदाय का भी है जिसकी न्यूज मीडिया के अंदर मौजूदगी कम है.
नतीजा यह है कि चैनलों/अखबारों के न्यूजरूम में जहाँ खबरों का चयन और प्रस्तुति का निर्णय होता है, उत्तर पूर्व और मुस्लिम समाज के सरोकारों, चिंताओं और मुद्दों को अनदेखा किया जाता है. यही नहीं, इन समुदायों से जुडी हुई खबरों में भी उनका परिप्रेक्ष्य नहीं आ पाता है. सच पूछिए तो यह भारतीय न्यूज मीडिया का ‘लोकतान्त्रिक घाटा’ है जो उसके न्यूजरूम और गेटकीपरों में भारतीय समाज के कई वर्गों का प्रतिनिधित्व बहुत कम या न के बराबर है.
भारतीय न्यूज मीडिया के इस ‘लोकतान्त्रिक घाटे’ का साफ़ असर उसकी कवरेज और प्रस्तुति के टोन में भी दिखाई पड़ता है. इसी का दूसरा पक्ष है कि भारतीय न्यूज मीडिया देश के सभी हिस्सों में अपने रिपोर्टर और न्यूज ब्यूरो नहीं रखता है. उत्तर पूर्व इसका सबसे बदतर उदाहरण है जहाँ अधिकांश राष्ट्रीय कहे जानेवाले चैनलों/अखबारों के संवाददाता नहीं हैं.

कुछ ने रिपोर्टर रखे भी हैं तो आठ राज्यों को कवर करने के लिए एक संवाददाता गुवाहाटी में रख दिया है जबकि उत्तर पूर्व के समाज-संस्कृति-भूगोल की मामूली समझ रखनेवाले जानते हैं कि उत्तर पूर्व के सभी आठ राज्यों को एक रिपोर्टर कवर नहीं कर सकता और न ही वह इस विविधतापूर्ण क्षेत्र की रिपोर्टिंग के साथ न्याय कर सकता है.

हैरानी की बात नहीं है कि उत्तर पूर्व के राज्यों की खबरें हमारे राष्ट्रीय न्यूज मीडिया में बहुत कम दिखती हैं या जो दिखती भी हैं, उनमें गहराई नहीं होती है और ज्यादातर मामलों में उत्तर पूर्व के बारे में बने पूर्वाग्रहों और स्टीरियोटाइप को ही मजबूत करती हैं.
असम की ताजा हिंसा भी इस प्रवृत्ति की अपवाद नहीं है. इस हिंसा की जैसी व्यापक लेकिन संवेदनशील रिपोर्टिंग होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई. वरिष्ठ टी.वी पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने इस कमी को खुद स्वीकार किया है लेकिन उनका यह तर्क समझ से परे है कि असम की हिंसा को पर्याप्त और इन-डेप्थ कवरेज न मिलने के पीछे बड़ी वजह उसका दिल्ली और हिंसाग्रस्त इलाकों का राजधानी गुवाहाटी से दूर होना है.
इक्का-दुक्का अपवादों और मौकों को छोड़ दिया जाए तो सच यह है कि असम और पूरा पूर्वोत्तर भारत कथित राष्ट्रीय न्यूज मीडिया के राडार पर कहीं नहीं दिखता है. जैसे वह भारत का हिस्सा ही नहीं हो. अलबत्ता वहां देश से अलग होने का कोई आंदोलन शुरू हो जाए या चीन अरुणाचल प्रदेश पर दावा करने लगे तो राष्ट्रीय न्यूज मीडिया का ‘तीसरा नेत्र’ खुल जाता है और राष्ट्रवाद मचलने लगता है.

लेकिन बाकी समय में पूर्वोत्तर भारत के लोग किस तरह से रह रहे हैं, वहां क्या हो और चल रहा है, उनकी समस्याएं क्या हैं, वे किस बात पर नाराज हैं और उनके सवाल और मुद्दे क्या हैं आदि को रिपोर्ट या चर्चा के लायक नहीं समझा जाता है.

हैरानी की बात नहीं है कि अधिकांश राष्ट्रीय चैनलों या अखबारों के पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में रिपोर्टर नहीं हैं. खुद राजदीप सरदेसाई के मुताबिक, किसी भी राष्ट्रीय चैनल के पास पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में तो छोडिये, असम की राजधानी गुवाहाटी में भी ओ.बी नहीं है.
लेकिन क्या इसकी वजह सिर्फ पूर्वोत्तर भारत का दिल्ली से दूर होना या उसका दुर्गम होना है? या इसकी वजह पूर्वोत्तर भारत के प्रति न्यूजरूम में गहरे बैठे सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों का होना है? कहीं इसका एक बड़ा कारण यह तो नहीं है कि पूर्वोत्तर भारत में टी.आर.पी का एक भी पीपुलमीटर नहीं लगा है और बाकी देश में भी पूर्वोत्तर के दर्शकों की संख्या नाममात्र की है?
 
जारी.......
(इस लम्बी टिप्पणी का संक्षिप्त और सम्पादित/संशोधित अंश 'जनसत्ता' के सम्पादकीय पृष्ठ पर 29 जून को प्रकाशित)

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