लेकिन समस्या की जड़
में टेलीविजन कारोबार का मौजूदा माडल है जो विज्ञापनों पर अति निर्भर है
एन.डी.टी.वी के इस फैसले के बाद टी.वी उद्योग में खासी हलचल है. हालाँकि अभी भी ज्यादातर टी.वी चैनल (प्रसारणकर्ता) या विज्ञापनदाता या विज्ञापन एजेंसियां इस मुद्दे पर खुलकर नहीं बोल रहे हैं लेकिन कुछ प्रभावशाली आवाजें सामने आई हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि बड़े और ताकतवर प्रसारक और उनके चैनल इस व्यवस्था के सबसे बड़े लाभार्थी हैं. उनकी टी.आर.पी हमेशा अच्छी आती है और उनमें ही यह क्षमता और शक्ति है कि वे टी.आर.पी की खामियों और गडबडियों को अपने पक्ष में इस्तेमाल कर सकें. इसलिए वे नहीं चाहते हैं कि इसमें कोई बदलाव हो.
माना जाता है कि टी.आर.पी से टी.वी दर्शकों की पसंद-नापसंद का पता चलता है. इससे यह पता चलता है कि सबसे अधिक लोकप्रिय कार्यक्रम और चैनल कौन है? किसी कार्यक्रम को कितने दर्शकों ने कितनी देर तक देखा? चैनल और उसके कार्यक्रमों की लोकप्रियता के आधार पर ही विज्ञापनदाता उसे विज्ञापन देते हैं जो फिलहाल चैनलों की आय का मुख्य स्रोत है.
इसी तरह से टी.आर.पी के दबाव में न्यूज चैनलों के संपादक ख़बरों को मनोरंजक बनाने लगते हैं और पत्रकारिता के एथिक्स को परे रखकर ख़बरों को सनसनीखेज बनाकर, बढ़ा-चढ़ाकर और नाटकीय बनाकर पेश करने लगते हैं. यही नहीं, ख़बरों के साथ ‘खेलने और उसे तानने’ से लेकर खबर गढ़ने और बनाने की कोशिशें होने लगी हैं. यह सब टी.आर.पी के नाम पर होता है.
इस तरह गाँवों के कोई ६.२ करोड़ दर्शकों की पसंद के कोई मायने नहीं हैं. यही नहीं, सबसे ज्यादा पीपुलमीटर देश के मेट्रो शहरों खासकर मुंबई और दिल्ली में हैं. मजे की बात यह है कि इन ८१६० पीपुलमीटर से आए नतीजों को ही देश के १५ करोड़ टी.वी घरों की पसंद बता दिया जाता है.
आरोप है कि जानबूझकर पीपुलमीटर की संख्या नहीं बढ़ाई जा रही है क्योंकि उस स्थिति में उसके नतीजों में जोड़तोड़ करना मुश्किल हो जायेगा. इसके अलावा इस पूरी व्यवस्था के लाभार्थी भी नहीं चाहते हैं कि मौजूदा व्यवस्था में कोई सुधार हो. बड़े प्रसारकों के अलावा वे विज्ञापनदाता और विज्ञापन एजेंसियां भी नहीं चाहती हैं कि यह व्यवस्था बदले क्योंकि उनकी दिलचस्पी सभी भारतीय दर्शकों की पसंद जानने के बजाय महानगरीय और संपन्न टी.वी घरों की पसंद जानने में ज्यादा है.
नतीजा यह कि टी.आर.पी का पूरा गोरखधंधा वास्तव में व्यावसायिक टेलीविजन का एक ऐसा दुश्चक्र बन गया है जिससे मौजूदा बिजनेस माडल के तहत निकलना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन जैसा दिखता है. यहाँ यह उल्लेख करना जरूरी है कि दुनिया के उन सभी विकसित पूंजीवादी देशों में जहाँ टी.वी उद्योग का बिजनेस माडल विज्ञापनों से होनेवाली आय पर अति निर्भर है, वहां टी.आर.पी को लेकर कमोबेश ऐसी ही समस्याएं और गडबडियां हैं.
ऐसे में, अगर टैम के पीपुलमीटर बढ़ाकर तीस हजार भी कर दिए जाएँ या एक वैकल्पिक रेटिंग एजेंसी खड़ी कर दी जाए तो भी चैनलों पर टी.आर.पी का दबाव कम होनेवाला नहीं है और न ही उस दबाव से पैदा होनेवाली गडबडियां खत्म होनेवाली हैं.
भारतीय टेलीविजन की दुनिया में चल रही अधिकांश गडबडियों के लिए
टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट (टी.आर.पी) की मौजूदा व्यवस्था को जिम्मेदार ठहराया जाता
रहा है. उसकी आलोचनाएं भी खूब होती रही हैं, उसमें बदलाव की मांग भी उठती रही है
और यहाँ तक कि उसका विकल्प खोजने की कोशिशें भी हुई हैं.
लेकिन मजा देखिये कि
टी.वी उद्योग में सबसे अधिक चलनेवाले इस सिक्के – टी.ए.एम (टैम) के टी.आर.पी के
खोटे होने की चर्चाओं के बावजूद न उसमें कोई खास सुधार हुआ और न ही उसका कोई
विकल्प खड़ा हो पाया है. नतीजा यह कि तमाम खामियों, समस्याओं और धोखाधड़ी-बेईमानी
जैसे गंभीर आरोपों के बाद भी टैम की टी.आर.पी की तानाशाही जारी है.
इसकी सबसे बड़ी वजह यह रही है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधने के लिए
कोई तैयार नहीं था. लेकिन अब एन.डी.टी.वी ने यह हिम्मत दिखाई है. एन.डी.टी.वी ने
एक अमेरिकी कोर्ट में भारत में टी.आर.पी जारी करने वाली अकेली कंपनी – टैम मीडिया
रिसर्च प्राइवेट लिमिटेड की स्वामी कंपनियों- ए.सी निएल्शन और कंटर के खिलाफ
धोखाधड़ी और फर्जीवाड़े का आरोप लगाते हुए १.३९ अरब डालर के मुआवजे का मुकदमा ठोंक
दिया है. एन.डी.टी.वी के इस फैसले के बाद टी.वी उद्योग में खासी हलचल है. हालाँकि अभी भी ज्यादातर टी.वी चैनल (प्रसारणकर्ता) या विज्ञापनदाता या विज्ञापन एजेंसियां इस मुद्दे पर खुलकर नहीं बोल रहे हैं लेकिन कुछ प्रभावशाली आवाजें सामने आई हैं.
जैसे प्रसार भारती (दूरदर्शन) के सी.ई.ओ जवाहर सरकार ने भी संकेत दिया
है कि वे भी टैम के खिलाफ कार्रवाई पर विचार कर रहे हैं क्योंकि उसकी टी.आर.पी में
दूरदर्शन के चैनलों और उनके दर्शकों को अनदेखा किया जाता है. इसी तरह जानी-मानी
विज्ञापन एजेंसी- लिंटास की सी.ई.ओ लिन डी-सूजा ने भी टैम और उसकी टी.आर.पी की
आलोचना की है.
यही नहीं, एक बार फिर से टैम के विकल्प के बतौर प्रसारकों,
विज्ञापनदाताओं और विज्ञापन एजेंसियों की सामूहिक पहल - ब्राडकास्टिंग आडिएंस
रिसर्च काउंसिल (बार्क) के तहत टी.वी के लिए एक नई रेटिंग व्यवस्था शुरू करने की
प्रक्रिया को तेज करने की बातें होने लगी हैं.
लेकिन अफसोस की बात यह है कि बार्क के तहत एक वैकल्पिक टी.आर.पी
व्यवस्था खड़ी करने की बात पिछले चार वर्षों से हो रही है लेकिन सारी कसरत के बाद
नौ दिन, चले अढाई कोस की स्थिति बनी हुई है. असल में, टैम की मौजूदा टी.आर.पी
व्यवस्था में सबके निहित स्वार्थ इतनी गहराई से जुड़े हुए हैं कि उसकी आलोचनाओं,
शिकायतों और उसमें सुधार की मांगों के बावजूद वास्तव में कोई उसमें बदलाव चाहता
नहीं है. कहने की जरूरत नहीं है कि बड़े और ताकतवर प्रसारक और उनके चैनल इस व्यवस्था के सबसे बड़े लाभार्थी हैं. उनकी टी.आर.पी हमेशा अच्छी आती है और उनमें ही यह क्षमता और शक्ति है कि वे टी.आर.पी की खामियों और गडबडियों को अपने पक्ष में इस्तेमाल कर सकें. इसलिए वे नहीं चाहते हैं कि इसमें कोई बदलाव हो.
हैरानी की बात नहीं है कि दबी जुबान से यह भी चर्चा हो रही है कि जब
तक एन.डी.टी.वी इस व्यवस्था में टी.आर.पी चार्ट में ऊपर रहा, उसने कोई शिकायत नहीं
की लेकिन पिछले दो-ढाई साल से टी.आर.पी चार्ट में फिसलने के बाद उसे टैम और उसकी
टी.आर.पी में कमियां और खामियां और यहाँ तक कि धोखाधड़ी और फर्जीवाडा भी दिखने लगा.
हालाँकि एन.डी.टी.वी का दावा है कि वह २००४ से ही टैम से शिकायत कर रहा है और उसे
टी.आर.पी व्यवस्था में सुधार की सलाह दे रहा है लेकिन वायदों के बावजूद जब कोई
सुधार नहीं हुआ और उल्टे स्थितियां बद से बदतर होती चली गईं तो उसे मजबूरी में
न्यूयार्क के कोर्ट में हर्जाने का मुकदमा करना पड़ा है.
बहरहाल, इस मुकदमे का फैसला चाहे जो हो लेकिन इसने टैम और उसकी
टी.आर.पी व्यवस्था को गंभीर चुनौती दी है. टैम और उसके क्रियाकलापों पर फिर से
सवाल उठने लगे है. इसकी वजह यह है कि टी.वी उद्योग में टी.आर.पी ही वह करेंसी है
जिसपर पूरा कारोबार आधारित है और कोई १२००० करोड़ रूपये के विज्ञापनों का फैसला
होता है जिससे चैनलों का भाग्य और भविष्य तय होता है. माना जाता है कि टी.आर.पी से टी.वी दर्शकों की पसंद-नापसंद का पता चलता है. इससे यह पता चलता है कि सबसे अधिक लोकप्रिय कार्यक्रम और चैनल कौन है? किसी कार्यक्रम को कितने दर्शकों ने कितनी देर तक देखा? चैनल और उसके कार्यक्रमों की लोकप्रियता के आधार पर ही विज्ञापनदाता उसे विज्ञापन देते हैं जो फिलहाल चैनलों की आय का मुख्य स्रोत है.
चूँकि चैनलों को मिलनेवाले विज्ञापनों और उसकी दर का फैसला इसी
टी.आर.पी रेटिंग के आधार पर होता है, इसलिए चैनलों के लिए यह जीवन-मरण का मुद्दा
बन जाता है. हालाँकि विज्ञापनदाता कुछ और भी कारकों का ध्यान में रखते हैं लेकिन
उनमें सबसे अधिक महत्व टी.आर.पी का ही है. इस कारण जिस चैनल और कार्यक्रम की जितनी
अधिक टी.आर.पी, उसकी उतनी अधिक आमदनी.
नतीजा यह कि चैनलों में ऊँची टी.आर.पी
रेटिंग के लिए अंधी होड़ सी चल रही है और सारा जोर अधिक से अधिक दर्शकों का ध्यान
आकर्षित करने की ओर है. टी.आर.पी किसी चैनल और किसी कार्यक्रम की सफलता का एकमात्र
पैमाना बन गया है और कार्यक्रम निर्माताओं से लेकर संपादकों की सारी उर्जा
टी.आर.पी कमाने में ‘सफल’ कार्यक्रम बनाने में लग रही है.
इसके कारण कार्यक्रमों में सृजनात्मकता, प्रयोगधर्मिता, नयापन,
विविधता और बहुलता के बजाय टी.आर.पी के पैमाने पर सफल ‘फार्मूलों’ की नक़ल, दोहराव
और एकरूपता बढ़ जाती है. आश्चर्य नहीं कि सभी चैनलों पर एक जैसे सीरियल या रीयलिटी
शो आदि की बाढ़ आई हुई है. इसी तरह से टी.आर.पी के दबाव में न्यूज चैनलों के संपादक ख़बरों को मनोरंजक बनाने लगते हैं और पत्रकारिता के एथिक्स को परे रखकर ख़बरों को सनसनीखेज बनाकर, बढ़ा-चढ़ाकर और नाटकीय बनाकर पेश करने लगते हैं. यही नहीं, ख़बरों के साथ ‘खेलने और उसे तानने’ से लेकर खबर गढ़ने और बनाने की कोशिशें होने लगी हैं. यह सब टी.आर.पी के नाम पर होता है.
लेकिन जिस टी.आर.पी को टी.वी उद्योग और कारोबार की करेंसी मान लिया
गया है, वह खुद अवैज्ञानिक, त्रुटिपूर्ण और जोड़तोड़ की शिकार है. मौजूदा टी.आर.पी व्यवस्था
के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसपर टैम का एकाधिकार है. उसकी किसी से
प्रतियोगिता नहीं है और जाहिर है कि इसके कारण उसकी मनमानी सी चलती है.
यही नहीं,
एकाधिकार होने के कारण उसमें जोड़तोड़ की गुंजाइश भी काफी बढ़ जाती है. इसके साथ
दूसरी सबसे बड़ी और बुनियादी समस्या यह है कि भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश
के १५ करोड़ से अधिक टी.वी घरों की पसंद को जानने के लिए टैम ने जो सैम्पल साइज
चुनी है, वह न सिर्फ ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर है बल्कि वह उसकी विविधता को
भी व्यक्त नहीं करता है.
उल्लेखनीय है कि १५ करोड़ टी.वी घरों की पसंद बताने के लिए टैम ने देश
के एक लाख की आबादी वाले २६५ शहरों और उससे कम आबादी वाले महाराष्ट्र के कस्बों
में सिर्फ ८१६० घरों में पीपुलमीटर लगाये हैं. सबसे हैरानी की बात यह है कि देश के
गाँवों में कोई पीपुलमीटर नहीं है और न ही पूरे उत्तर पूर्व या कश्मीर जैसे राज्य
में कोई पीपुलमीटर है. इस तरह गाँवों के कोई ६.२ करोड़ दर्शकों की पसंद के कोई मायने नहीं हैं. यही नहीं, सबसे ज्यादा पीपुलमीटर देश के मेट्रो शहरों खासकर मुंबई और दिल्ली में हैं. मजे की बात यह है कि इन ८१६० पीपुलमीटर से आए नतीजों को ही देश के १५ करोड़ टी.वी घरों की पसंद बता दिया जाता है.
कहने की जरूरत नहीं है कि मौजूदा टी.आर.पी व्यवस्था में पीपुलमीटर की
सीमित संख्या और उसके कुछ खास इलाकों तक सीमित होने के कारण उसमें जोड़तोड़ और
हेराफेरी करने की गुंजाइश बढ़ जाती है. यही नहीं, सैम्पल साइज छोटा होने के कारण
पीपुलमीटर लगे कुछ घरों तक पहुँचने और उन्हें प्रभावित करने पर रेटिंग को अपने
पक्ष में मोड़ा जा सकता है.
एन.डी.टी.वी ने टैम के खिलाफ अपनी अपील में यह शिकायत
की है कि टैम के साथ काम करनेवाले कुछ कर्मचारियों ने एन.डी.टी.वी के अधिकारियों
से कहा था कि अगर वे पैसे खर्च करने को तैयार हों तो पीपुलमीटर लगे घरों को
प्रभावित किया जा सकता है. वैसे यह शिकायत करनेवाला एन.डी.टी.वी पहला चैनल नहीं है
बल्कि कई साल पहले सी.एन.बी.सी चैनल ने एक स्टिंग आपरेशन में इस गोरखधंधे का
खुलासा किया था.
हालाँकि नियमानुसार यह जानकारी बिलकुल गोपनीय होती है कि किन घरों में
पीपुलमीटर लगा हुआ है. इसके बावजूद ऐसी शिकायतें आती रहती हैं जिससे टी.आर.पी
व्यवस्था की पूरी साख सवालों के घेरे में रही है. हैरानी की बात यह है टैम ने कुछ
साल पहले वायदा किया था कि वह पीपुलमीटर की संख्या बढ़ाकर ३०००० करेगा लेकिन वह
अपने वायदे को पूरा करने में नाकाम रहा है. आरोप है कि जानबूझकर पीपुलमीटर की संख्या नहीं बढ़ाई जा रही है क्योंकि उस स्थिति में उसके नतीजों में जोड़तोड़ करना मुश्किल हो जायेगा. इसके अलावा इस पूरी व्यवस्था के लाभार्थी भी नहीं चाहते हैं कि मौजूदा व्यवस्था में कोई सुधार हो. बड़े प्रसारकों के अलावा वे विज्ञापनदाता और विज्ञापन एजेंसियां भी नहीं चाहती हैं कि यह व्यवस्था बदले क्योंकि उनकी दिलचस्पी सभी भारतीय दर्शकों की पसंद जानने के बजाय महानगरीय और संपन्न टी.वी घरों की पसंद जानने में ज्यादा है.
असल में, टी.आर.पी की बुनियादी खामी यह है कि यह दर्शकों के लिए नहीं
बल्कि विज्ञापनदाताओं और विज्ञापन एजेंसियों के लिए तैयार किया जाता है जिनकी
दिलचस्पी उन दर्शकों में सबसे ज्यादा होती है जिनके पास क्रयशक्ति हो, जो आमदनी
में उपरी पायदान पर हों और खर्च करने के लिए तत्पर हों.
इस कारण टैम जैसी
कम्पनियाँ सैम्पल साइज का चुनाव करते हुए विज्ञापनदाताओं की इस इच्छा का सबसे अधिक
ख्याल रखती हैं. दूसरी ओर, विज्ञापनदाताओं का ध्यान खींचने के लिए चैनल भी अमीरों
और मध्यमवर्ग की रुचियों, जरूरतों और आकांक्षाओं का सबसे अधिक ध्यान रखते हैं.
स्वाभाविक तौर पर चैनलों के कंटेंट में इन वर्गों के सरोकारों, रुचियों और जरूरतों
की सबसे अधिक झलक दिखाई पड़ती है.
असल में, समस्या की जड़ में टी.वी उद्योग का वह कारोबारी माडल है जो
अपनी आय के लिए विज्ञापनों पर अति निर्भर है. लेकिन विज्ञापन मिलने की शर्त ऊँची
टी.आर.पी है और वह भी खाते-पीते मध्यमवर्ग से होनी चाहिए. नतीजा यह कि टी.आर.पी का पूरा गोरखधंधा वास्तव में व्यावसायिक टेलीविजन का एक ऐसा दुश्चक्र बन गया है जिससे मौजूदा बिजनेस माडल के तहत निकलना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन जैसा दिखता है. यहाँ यह उल्लेख करना जरूरी है कि दुनिया के उन सभी विकसित पूंजीवादी देशों में जहाँ टी.वी उद्योग का बिजनेस माडल विज्ञापनों से होनेवाली आय पर अति निर्भर है, वहां टी.आर.पी को लेकर कमोबेश ऐसी ही समस्याएं और गडबडियां हैं.
ऐसे में, अगर टैम के पीपुलमीटर बढ़ाकर तीस हजार भी कर दिए जाएँ या एक वैकल्पिक रेटिंग एजेंसी खड़ी कर दी जाए तो भी चैनलों पर टी.आर.पी का दबाव कम होनेवाला नहीं है और न ही उस दबाव से पैदा होनेवाली गडबडियां खत्म होनेवाली हैं.
दरअसल, दुनिया के विकसित देशों खासकर यूरोप में व्यावसायिक टी.वी की
सीमाओं, कमियों और खामियों के विकल्प के बतौर सार्वजनिक धन से चलनेवाला लोक
प्रसारक टेलीविजन (पब्लिक ब्राडकास्टर) है जो कार्यक्रमों में विविधता और बहुलता
के अलावा सामाजिक जिम्मेदारियों को ध्यान में रखकर प्रसारण करता है.
लेकिन मुश्किल
यह है कि भारत में पब्लिक ब्राडकास्टर के बतौर दूरदर्शन और आकाशवाणी प्राइवेट
टी.वी चैनलों और रेडियो स्टेशनों के हास्यास्पद नक़ल भर बनकर रह गए हैं. उनमें और
निजी चैनलों में कंटेंट के मामले में फर्क करना मुश्किल है.
कारण यह है कि पब्लिक
ब्राडकास्टर होते हुए भी दूरदर्शन टी.आर.पी की अंधी दौड़ में फंस गया है और
विज्ञापनदाताओं को आकर्षित करने के लिए उन्हीं फार्मूलों को अपनाता दिखता है जो
प्राइवेट चैनलों की पहचान बन गए हैं.
(साप्ताहिक 'शुक्रवार' के ताजा अंक में प्रकाशित लेख)
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