यू.पी.ए सरकार न उगल पा रही है और न निगल पा रही
उल्लेखनीय है कि यू.पी.ए सरकार ने पिछले साल मॉनसून सत्र के दौरान इस विधेयक को संसद में पेश किया था जिसे ग्रामीण विकास मामलों की संसदीय स्टैंडिंग कमिटी के पास विचार के लिए भेज दिया गया था लेकिन इस साल मई में स्टैंडिंग कमिटी ने इस विधेयक पर कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए और यहाँ तक सिफारिश कर दी कि निजी क्षेत्र की किसी भी ऐसी परियोजना के लिए सरकार को भूमि अधिग्रहण नहीं करना चाहिए जिसका उद्देश्य मुनाफा कमाना हो.
इसी तरह सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे दलों में सपा भी इस विवाद में ऐसा कोई फैसला नहीं करना चाहेगी जिससे उसकी किसान विरोधी छवि बने. असल में, यू.पी.ए सरकार की कमजोर राजनीतिक स्थिति और मध्यावधि चुनावों की आहट के कारण भी यू.पी.ए के घटक दल और उसे बाहर से समर्थन दे रहे दल भूमि अधिग्रहण कानून जैसे अत्यधिक ज्वलनशील मुद्दे में हाथ जलाने के लिए तैयार नहीं है.
असल में, यू.पी.ए सरकार के लिए भूमि अधिग्रहण विधेयक एक ऐसा विधेयक बन गया है जिसे वह न निगल पा रही है और न उगल पा रही है. एक ओर उसपर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स-उद्योग जगत का दबाव है जो एक नरम और उद्योग समर्थक भूमि अधिग्रहण कानून की वकालत कर रहे हैं जिससे औद्योगिकीकरण-शहरीकरण की प्रक्रिया को तेज किया जा सके.
इसके लिए वे एक ऐसा कानून चाहते हैं जिसमें भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया न सिर्फ आसान और तेज हो बल्कि उनपर कम से कम आर्थिक-वित्तीय बोझ पड़े. इसके अलावा कार्पोरेट-उद्योग जगत यह भी चाहता है कि भूमि अधिग्रहण में सरकार की सक्रिय भूमिका होनी चाहिए.
कहने की जरूरत नहीं है कि बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स इस कानून को संसद में जल्दी से जल्दी पास करना चाहते हैं. इस कानून को अब तक पास करा पाने में सरकार की नाकामी को वे उसकी नीतिगत लकवे से जोड़कर देखते हैं और उनके लिहाज से यह मुद्दा मनमोहन सिंह सरकार के लिए एक टेस्ट केस है.
वे मानते हैं कि अगर सरकार आर्थिक सुधारों के प्रति वचनबद्ध है तो उसे बिना किसी विलम्ब के एक ऐसा भूमि अधिग्रहण कानून पारित कराना चाहिए जिससे भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया सरल, तेज और उद्योगीकरण को बढानेवाली साबित हो सके. इस मुद्दे पर यू.पी.ए सरकार पर कार्पोरेट्स का जबरदस्त दबाव है.
दूसरी ओर, वे जनांदोलन और जनसंगठन हैं जो देश भर में उद्योगों/रीयल इस्टेट के लिए भूमि अधिग्रहण के खिलाफ जीवन-मरण की लड़ाई छेड़े हुए हैं. इन आन्दोलनों के कारण आज देश भर के अधिकांश इलाकों में हालत यह हो गई है कि सरकार उद्योगों और विभिन्न परियोजनाओं के लिए जमीन अधिग्रहण नहीं कर पा रही है और अधिकांश निजी-सरकारी परियोजनाएं ठप्प पड़ी हैं.
इन संगठनों और आन्दोलनों की मांग रही है कि सरकार जमीन की कारपोरेट लूट को रोकने के लिए कानून बनाए. इन आन्दोलनों का ही दबाव है कि सरकार को ब्रिटिश हुकूमत के बनाए भूमि अधिग्रहण कानून’१८९४ की जगह नया कानून बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा है और उसमें भूमि अधिग्रहण के साथ पुनःस्थापन और पुनर्वास के मुद्दे को भी जोड़ना पड़ा है.
यही नहीं, मुआवजे के नामपर उनके साथ छल हुआ और साथ ही, बड़े पैमाने पर विस्थापन भी हुआ. विस्थापितों से जो वायदे किये गए, वे पूरे नहीं हुए. कौडियों के भाव जमीन ली गई और खुद सरकार और बड़ी कंपनियों ने उससे भारी कमाई की. खासकर आदिवासी बहुल इलाकों में जहाँ खनिजों और बड़ी परियोजनाओं के लिए जमीनें ली गईं, उन्हें मुआवजा तो कुछ खास नहीं ही मिला, विस्थापन ने उन्हें पूरी तरह से बर्बाद कर दिया.
इस दबाव में यू.पी.ए सरकार उद्योग जगत को खुश करने में लगी है और इसका सबूत यह है कि वह एक ऐसा भूमि अधिग्रहण विधेयक संसद में लाने जा रही है जिसमें दिखाने के लिए बहुत ऊँची-ऊँची बातें की गईं हैं, पुनःस्थापन और पुनर्वास से लेकर ऊँचे मुआवजों के दावे किये जा रहे हैं लेकिन अपनी आत्मा में वह १८९४ के ब्रिटिश कानून का ही नया संस्करण भर है.
ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश अपनी ओर से हर तईं कोशिश कर रहे हैं
कि भूमि अधिग्रहण, पुनःस्थापना और पुनर्वास विधेयक को संशोधनों के साथ संसद के
मॉनसून सत्र में दोबारा पेश करके पास करवा लिया जाए लेकिन इस विधेयक के साथ जुड़े
तीखे विवादों और असहमतियों को देखते हुए यह इतना आसान नहीं दिख रहा है.
ये विवाद
कितने गहरे और तीखे हैं, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि यू.पी.ए
सरकार २००४ से ही नया भूमि अधिग्रहण कानून बनाने की कोशिश कर रही है और इस दौरान
इस प्रस्तावित कानून के चार ड्राफ्ट तैयार किये गए लेकिन सरकार अभी भी राजनीतिक
सहमति बनाने में नाकाम रही है.
इस प्रस्तावित विधेयक को लेकर असहमतियों और विवादों का अंदाज़ा इस बात
से भी लगाया जा सकता है कि न सिर्फ संसद से बाहर विभिन्न जनांदोलन और जनसंगठन इसका
खुला विरोध कर रहे हैं बल्कि संसद के अंदर विपक्षी दलों के अलावा खुद यू.पी.ए के
घटक दलों और यहाँ तक कि कांग्रेस के अंदर भी गंभीर मतभेद बने हुए हैं. उल्लेखनीय है कि यू.पी.ए सरकार ने पिछले साल मॉनसून सत्र के दौरान इस विधेयक को संसद में पेश किया था जिसे ग्रामीण विकास मामलों की संसदीय स्टैंडिंग कमिटी के पास विचार के लिए भेज दिया गया था लेकिन इस साल मई में स्टैंडिंग कमिटी ने इस विधेयक पर कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए और यहाँ तक सिफारिश कर दी कि निजी क्षेत्र की किसी भी ऐसी परियोजना के लिए सरकार को भूमि अधिग्रहण नहीं करना चाहिए जिसका उद्देश्य मुनाफा कमाना हो.
यही नहीं, संसदीय स्टैंडिंग कमिटी ने यह भी सिफारिश की कि निजी
क्षेत्र या सार्वजनिक-निजी साझेदारी परियोजनाओं के लिए भी सरकार को भूमि अधिग्रहण
नहीं करना चाहिए और निजी क्षेत्र को इन परियोजनाओं के लिए खुद जमीन खरीदनी होगी. स्टैंडिंग
कमिटी ने भूमि अधिग्रहण के लिए दिए जानेवाले तर्क ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ (पब्लिक
परपज) को भी स्पष्ट और सीमित करने की पैरवी की थी.
लेकिन अब ऐसी ख़बरें आ रही है कि
सरकार ने न सिर्फ संसदीय स्टैंडिंग कमिटी की प्रमुख सिफारिशों को ख़ारिज कर दिया है
बल्कि वह संसद के आगामी मॉनसून सत्र में जो संशोधित विधेयक पेश करने जा रही है,
उसमें भूमि अधिग्रहण के लिए ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ के दायरे को व्यापक रूप से बढ़ाकर
उसमें सामाजिक और भौतिक ढांचागत क्षेत्र के विकास के लिए वस्तुओं और सेवाओं के
उत्पादन हेतु भी जमीन अधिग्रहण करने का प्रस्ताव है.
कहने की जरूरत नहीं है कि इन संशोधनों के साथ पेश होने जा रहे इस
विधेयक को पारित कराना यू.पी.ए सरकार के लिए आसान नहीं होगा. लोकसभा में उसके पास
मामूली बहुमत है जबकि राज्यसभा में वह अल्पमत में है. इस विधेयक को लेकर तृणमूल
कांग्रेस की आपत्तियां किसी से छुपी नहीं हैं. ममता बैनर्जी इस समय किसी ऐसे भूमि
अधिग्रहण कानून का समर्थन नहीं करना चाहेंगी जिसे लेकर वामपंथी पार्टियां उन्हें
बंगाल में घेर लें. इसी तरह सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे दलों में सपा भी इस विवाद में ऐसा कोई फैसला नहीं करना चाहेगी जिससे उसकी किसान विरोधी छवि बने. असल में, यू.पी.ए सरकार की कमजोर राजनीतिक स्थिति और मध्यावधि चुनावों की आहट के कारण भी यू.पी.ए के घटक दल और उसे बाहर से समर्थन दे रहे दल भूमि अधिग्रहण कानून जैसे अत्यधिक ज्वलनशील मुद्दे में हाथ जलाने के लिए तैयार नहीं है.
असल में, यू.पी.ए सरकार के लिए भूमि अधिग्रहण विधेयक एक ऐसा विधेयक बन गया है जिसे वह न निगल पा रही है और न उगल पा रही है. एक ओर उसपर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स-उद्योग जगत का दबाव है जो एक नरम और उद्योग समर्थक भूमि अधिग्रहण कानून की वकालत कर रहे हैं जिससे औद्योगिकीकरण-शहरीकरण की प्रक्रिया को तेज किया जा सके.
इसके लिए वे एक ऐसा कानून चाहते हैं जिसमें भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया न सिर्फ आसान और तेज हो बल्कि उनपर कम से कम आर्थिक-वित्तीय बोझ पड़े. इसके अलावा कार्पोरेट-उद्योग जगत यह भी चाहता है कि भूमि अधिग्रहण में सरकार की सक्रिय भूमिका होनी चाहिए.
कहने की जरूरत नहीं है कि बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स इस कानून को संसद में जल्दी से जल्दी पास करना चाहते हैं. इस कानून को अब तक पास करा पाने में सरकार की नाकामी को वे उसकी नीतिगत लकवे से जोड़कर देखते हैं और उनके लिहाज से यह मुद्दा मनमोहन सिंह सरकार के लिए एक टेस्ट केस है.
वे मानते हैं कि अगर सरकार आर्थिक सुधारों के प्रति वचनबद्ध है तो उसे बिना किसी विलम्ब के एक ऐसा भूमि अधिग्रहण कानून पारित कराना चाहिए जिससे भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया सरल, तेज और उद्योगीकरण को बढानेवाली साबित हो सके. इस मुद्दे पर यू.पी.ए सरकार पर कार्पोरेट्स का जबरदस्त दबाव है.
दूसरी ओर, वे जनांदोलन और जनसंगठन हैं जो देश भर में उद्योगों/रीयल इस्टेट के लिए भूमि अधिग्रहण के खिलाफ जीवन-मरण की लड़ाई छेड़े हुए हैं. इन आन्दोलनों के कारण आज देश भर के अधिकांश इलाकों में हालत यह हो गई है कि सरकार उद्योगों और विभिन्न परियोजनाओं के लिए जमीन अधिग्रहण नहीं कर पा रही है और अधिकांश निजी-सरकारी परियोजनाएं ठप्प पड़ी हैं.
इन संगठनों और आन्दोलनों की मांग रही है कि सरकार जमीन की कारपोरेट लूट को रोकने के लिए कानून बनाए. इन आन्दोलनों का ही दबाव है कि सरकार को ब्रिटिश हुकूमत के बनाए भूमि अधिग्रहण कानून’१८९४ की जगह नया कानून बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा है और उसमें भूमि अधिग्रहण के साथ पुनःस्थापन और पुनर्वास के मुद्दे को भी जोड़ना पड़ा है.
लेकिन जनांदोलनों और जनसंगठनों का आरोप है कि यू.पी.ए सरकार का
प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण विधेयक गरीबों, किसानों, आदिवासियों आदि के हितों के
खिलाफ है और इससे एक बार फिर जमीन की लूट को बढ़ावा मिलेगा.
याद रहे कि पिछले एक-डेढ़
दशकों में भूमि अधिग्रहण का मुद्दा इसलिए इतना अधिक विवादास्पद और ज्वलनशील हो गया
है क्योंकि इन वर्षों में विकास, रीयल इस्टेट और औद्योगिकीकरण के नाम पर बड़े
पैमाने पर जमीन की लूट हुई है. खासकर सेज परियोजनाओं के नाम पर यू.पी.ए सरकार ने
बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को जमीन हथियाने की खुली छूट दे दी. बड़े देशी-विदेशी
कार्पोरेट और उद्योग समूहों ने जमीन कब्जाकर ‘लैंड बैंक’ बनाना शुरू कर दिया.
यहाँ तक कि योजना आयोग की एक समिति यह टिप्पणी करने को मजबूर हो गई कि
यह कोलंबस के बाद की जमीन की सबसे बड़ी लूट है. इस लूट में उन मध्यम, छोटे-सीमांत
किसानों और उस जमीन पर निर्भर भूमिहीन किसानों के हितों की सबसे ज्यादा बलि चढ़ाई
गई. यही नहीं, मुआवजे के नामपर उनके साथ छल हुआ और साथ ही, बड़े पैमाने पर विस्थापन भी हुआ. विस्थापितों से जो वायदे किये गए, वे पूरे नहीं हुए. कौडियों के भाव जमीन ली गई और खुद सरकार और बड़ी कंपनियों ने उससे भारी कमाई की. खासकर आदिवासी बहुल इलाकों में जहाँ खनिजों और बड़ी परियोजनाओं के लिए जमीनें ली गईं, उन्हें मुआवजा तो कुछ खास नहीं ही मिला, विस्थापन ने उन्हें पूरी तरह से बर्बाद कर दिया.
कहने की जरूरत नहीं है कि भूमि अधिग्रहण को लेकर इन कड़वे अनुभवों ने
गरीब किसानों, आदिवासियों और दूसरे समुदायों को सतर्क और सचेत कर दिया है. वे किसी
भी कीमत पर अब जमीन देने को तैयार नहीं है. वे ‘विकास’ के नामपर अपनी बलि चढाने के
लिए तैयार नहीं हैं.
इसलिए इन समूहों और जनांदोलनों की ओर से एक सुर में यह आवाज़
उठ रही है कि कृषि भूमि का अधिग्रहण बंद किया जाए और जमीन अधिग्रहण के लिए ग्राम
सभा की सहमति अनिवार्य की जाये. इसके अलावा परियोजनाओं के सामाजिक-पर्यावरणीय
प्रभावों की स्वतंत्र जांच अनिवार्य की जाये. यही नहीं, भूमि अधिग्रहण के लिए
मुआवजा और पुनः स्थापन और पुनर्वास की मौजूदा प्रणाली को भी बदलने और उसकी जगह एक
समग्र नीति की मांग जोरशोर से उठ रही है.
लेकिन उद्योग जगत इसके लिए तैयार नहीं है. हालाँकि वह यह अच्छी तरह
जानता है कि उसकी इच्छाओं और पसंद के मुताबिक कानून बना पाना संभव नहीं है और समय
बदल चुका है लेकिन वह एक हद से ज्यादा पीछे हटने और किसानों/आदिवासियों के हितों
को प्राथमिकता देने के लिए तैयार नहीं है. इस दबाव में यू.पी.ए सरकार उद्योग जगत को खुश करने में लगी है और इसका सबूत यह है कि वह एक ऐसा भूमि अधिग्रहण विधेयक संसद में लाने जा रही है जिसमें दिखाने के लिए बहुत ऊँची-ऊँची बातें की गईं हैं, पुनःस्थापन और पुनर्वास से लेकर ऊँचे मुआवजों के दावे किये जा रहे हैं लेकिन अपनी आत्मा में वह १८९४ के ब्रिटिश कानून का ही नया संस्करण भर है.
साफ़ है कि ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश के लिए इस विधेयक को संसद
में पारित करवाना एक चुनौती होगी. खासकर इस तथ्य को देखते हुए कि इस विधेयक को
संसद और उससे ज्यादा बाहर चुनौती मिल रही है.
('राष्ट्रीय सहारा' के 4 जुलाई के अंक में 'हस्तक्षेप' में प्रकाशित टिप्पणी)
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