चैनलों और अखबारों में भारत नहीं, 'इंडिया' दिखता और सुनाई देता है
वरिष्ठ टी.वी पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने इस कमी को खुद स्वीकार किया है लेकिन उनका यह तर्क समझ से परे है कि असम की हिंसा को पर्याप्त और इन-डेप्थ कवरेज न मिलने के पीछे बड़ी वजह उसका दिल्ली और हिंसाग्रस्त इलाकों का राजधानी गुवाहाटी से दूर होना है.
क्या इसकी वजह सिर्फ पूर्वोत्तर भारत का दिल्ली से दूर होना या उसका दुर्गम होना है? या इसकी वजह पूर्वोत्तर भारत के प्रति न्यूजरूम में गहरे बैठे सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों का होना है? कहीं इसका एक बड़ा कारण यह तो नहीं है कि पूर्वोत्तर भारत में टी.आर.पी का एक भी पीपुलमीटर नहीं लगा है और बाकी देश में भी पूर्वोत्तर के दर्शकों की संख्या नाममात्र की है?
आखिर दिल्ली और चैनलों/अखबारों के दफ्तरों के आसपास लाखों मजदूर छोटी-बड़ी फैक्ट्रियों में काम करते हैं लेकिन क्यों किसी चैनल/अखबार में श्रमिक बीट कवर करनेवाला रिपोर्टर नहीं है और न श्रमिक मुद्दों की नियमित रिपोर्टिंग होती है?
गोया वे इस देश के नागरिक ही न हों. लेकिन अगर हमारे राष्ट्रीय चैनलों/अख़बारों में पूर्वोत्तर भारत और करोड़ों मजदूर नहीं हैं तो उनमें कौन सा देश दिखता और बातें करता है?
('तहलका' के 30 अगस्त के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)
“एक अच्छा अखबार वह है जिसमें देश खुद से
बातें करता हो.”
- आर्थर मिलर, अमेरिकी
नाटककार और लेखक
कोई ५० साल पहले अमेरिकी लेखक आर्थर मिलर ने एक
अच्छे अखबार की परिभाषा देते हुए जो कसौटी बताई थी, उसपर अपने राष्ट्रीय अखबारों
और चैनलों को कसिये तो कितनों में देश खुद से बातें करता हुआ दिखाई या सुनाई देता
है? जो देश उसमें दिखाई या सुनाई देता है, वह ‘भारत’ है या ‘इंडिया’?
कहने को
दर्जनों राष्ट्रीय चैनल और अखबार हैं. चैनलों पर चर्चाओं और बहसों के दर्जनों
कार्यक्रम हैं बल्कि सच पूछिए तो प्राइम टाइम में चर्चाएं ही चर्चाएं हैं. लेकिन
क्या उनमें देश और उसके असली नुमाइंदे दिखाई और सुनाई देते हैं?
कुछ हालिया उदाहरण लीजिए. असम के बोडो इलाके में
पिछले एक महीने से सांप्रदायिक हिंसा जारी है जिसमें अब तक ८० से अधिक लोगों की
जान जा चुकी है जबकि चार लाख से अधिक लोग घरबार छोडकर राहत शिविरों में रहने को
मजबूर हैं. लेकिन इसकी जैसी व्यापक लेकिन संवेदनशील रिपोर्टिंग होनी चाहिए थी, वह
नहीं हुई. वरिष्ठ टी.वी पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने इस कमी को खुद स्वीकार किया है लेकिन उनका यह तर्क समझ से परे है कि असम की हिंसा को पर्याप्त और इन-डेप्थ कवरेज न मिलने के पीछे बड़ी वजह उसका दिल्ली और हिंसाग्रस्त इलाकों का राजधानी गुवाहाटी से दूर होना है.
इक्का-दुक्का अपवादों और मौकों को छोड़ दिया जाए
तो सच यह है कि असम और पूरा पूर्वोत्तर भारत कथित राष्ट्रीय न्यूज मीडिया के राडार
पर कहीं नहीं दिखता है. जैसे वह भारत का हिस्सा ही नहीं हो. अलबत्ता वहां देश से
अलग होने का कोई आंदोलन शुरू हो जाए या चीन अरुणाचल प्रदेश पर दावा करने लगे तो
राष्ट्रीय न्यूज मीडिया का तीसरा नेत्र खुल जाता है.
लेकिन बाकी समय में
पूर्वोत्तर भारत के लोग किस तरह से रह रहे हैं, वहां क्या हो और चल रहा है, उनकी
समस्याएं क्या हैं, वे किस बात पर नाराज हैं और उनके सवाल और मुद्दे क्या हैं आदि को
रिपोर्ट या चर्चा के लायक नहीं समझा जाता है.
हैरानी की बात नहीं है कि अधिकांश राष्ट्रीय
चैनलों या अखबारों के पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में रिपोर्टर नहीं हैं. खुद
राजदीप सरदेसाई के मुताबिक, किसी भी राष्ट्रीय चैनल के पास पूर्वोत्तर के सभी
राज्यों में तो छोडिये, असम की राजधानी गुवाहाटी में भी ओ.बी नहीं है. क्या इसकी वजह सिर्फ पूर्वोत्तर भारत का दिल्ली से दूर होना या उसका दुर्गम होना है? या इसकी वजह पूर्वोत्तर भारत के प्रति न्यूजरूम में गहरे बैठे सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों का होना है? कहीं इसका एक बड़ा कारण यह तो नहीं है कि पूर्वोत्तर भारत में टी.आर.पी का एक भी पीपुलमीटर नहीं लगा है और बाकी देश में भी पूर्वोत्तर के दर्शकों की संख्या नाममात्र की है?
लेकिन अगर असम के बोडो इलाके में फैली
सांप्रदायिक हिंसा की असंतोषजनक कवरेज का कारण उसका दिल्ली से दूर और दुर्गम होना
मान भी लिया जाए तो दिल्ली से सटे मानेसर में मारुति की कार फैक्ट्री में श्रमिक
असंतोष के बाद भडकी हिंसा में एक अधिकारी की मौत और उसके बाद श्रमिकों के
दमन-उत्पीडन की लगभग एकतरफा, आधी-अधूरी और कुछ मामलों में फर्जी रिपोर्टिंग का
कारण क्या है?
इक्का-दुक्का रिपोर्टों को छोड़ दिया जाए तो सभी चैनल/अखबार मारुति
के श्रमिकों और यूनियन के खलनायकीकरण में लगे रहे? सबका ध्यान १८ जुलाई की हिंसा
की घटना पर था लेकिन किसी की दिलचस्पी उसके पीछे के कारणों को जानने में नहीं थी.
ऐसा लगा कि मानेसर और
मारुति से दिल्ली और चैनलों/अखबारों की ज्यादा नजदीकी उनके मारुति और जिला प्रशासन
का प्रवक्ता बन जाने में दिखाई दी. क्या यह सिर्फ संयोग है या फिर सोची-समझी
संपादकीय नीति का नतीजा? आखिर दिल्ली और चैनलों/अखबारों के दफ्तरों के आसपास लाखों मजदूर छोटी-बड़ी फैक्ट्रियों में काम करते हैं लेकिन क्यों किसी चैनल/अखबार में श्रमिक बीट कवर करनेवाला रिपोर्टर नहीं है और न श्रमिक मुद्दों की नियमित रिपोर्टिंग होती है?
गोया वे इस देश के नागरिक ही न हों. लेकिन अगर हमारे राष्ट्रीय चैनलों/अख़बारों में पूर्वोत्तर भारत और करोड़ों मजदूर नहीं हैं तो उनमें कौन सा देश दिखता और बातें करता है?
('तहलका' के 30 अगस्त के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)
1 टिप्पणी:
आज की पत्रकारिता में नैतिकता की कमी है ! वैसे भी आज के पत्रकारों में बौधिक ज्ञान का अभाव है | वो मिडिया में पत्रकरिता के लिए नही आते है वो सिर्फ प्रसिद्ध होने के लिए आते है | और रही बात समाचार चैनलों की तो उन्हें पैसा बनाने से मतलब है ! एन - केन - प्रकारेण उन्हें पैसा चाहिए | हम अपने भारत को तो कोसो मील पीछे छोड़ आये है | अब तो सिर्फ India है
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