सोमवार, अगस्त 27, 2012

सोशल मीडिया पर निशाना : बदरंग चेहरों का गुस्सा आईने पर

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुद्दा सबसे ऊपर है लेकिन साम्प्रदायिक घृणा अभियान को कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता है

असम में हिंसा और उसके बाद देश भर में साम्प्रदायिक-कट्टरपंथी संगठनों द्वारा शुरू किये गए साम्प्रदायिक घृणा और विद्वेष भरे अभियान को रोकने में नाकाम रही यू.पी.ए सरकार ने खिसियाहट में न्यू मीडिया और सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर गुस्सा उतारना शुरू कर दिया है. उसने इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनियों को आनन-फानन में ३०० से ज्यादा साइट्स और सोशल मीडिया वेब पेज को ब्लाक करने का निर्देश दिया जिसमें उसके मुताबिक, सांप्रदायिक घृणा फैलाने वाली सामग्री मौजूद थी.
लेकिन मीडिया रिपोर्टों के अनुसार सरकार की ओर से ब्लाक की गई सूची में कुछ वरिष्ठ पत्रकारों के अलावा ऐसे ब्लागर भी हैं जो साम्प्रदायिक घृणा अभियान चलानेवालों की पोल खोलने में लगे हुए थे. इससे यह सन्देश गया कि सरकार सांप्रदायिक घृणा और भडकाऊ प्रोपेगंडा को रोकने के नाम पर अपने विरोधियों का मुंह बंद करने की कोशिश कर रही है.
साफ़ है कि सरकार ने जल्दबाजी में जरूरी होमवर्क नहीं किया और इसका नतीजा यह हुआ है कि एक ओर वह मजाक का विषय बन गई है और दूसरी ओर, सोशल मीडिया और इंटरनेट पर उसे यूजर्स के गुस्से का सामना करना पड़ रहा है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी समाज में सांप्रदायिक घृणा फैलाने और लोगों को भड़काने का लाइसेंस नहीं है और कोई भी सभी समाज इसकी इजाजत नहीं दे सकता है.
खासकर भारत बहुधर्मी, बहुभाषी, बहुजातीय और बहुसांस्कृतिक राष्ट्र में जहाँ सांप्रदायिक, जातीय और क्षेत्रीय तनावों, दंगों और संघर्षों का इतिहास रहा है, जहाँ सांप्रदायिक, एथनिक और क्षेत्रीय फाल्टलाइन अभी भी मौजूद हैं, वहाँ इस मामले में अतिरिक्त सतर्कता और सजगता बरतने की जरूरत है.

यही नहीं, अधिकांश लोगों का मानना है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी स्वछंद या पूरी तरह निर्बंध नहीं है. यह भी सच है कि कई भगवा सांप्रदायिक संगठन और मुस्लिम समूह/व्यक्ति न्यू और सोशल मीडिया का इस्तेमाल झूठे, जहरीले और भडकाऊ सांप्रदायिक अभियान के लिए कर रहे हैं. उससे देश के कई हिस्सों में तनाव फैलने, लोगों के भडकने और डर के कारण शहर छोड़कर भागने जैसी घटनाओं की भी रिपोर्टें हैं.

लेकिन इसके बावजूद यू.पी.ए सरकार जिस तरह से सांप्रदायिक घृणा और भडकाऊ प्रचार को रोकने के नाम पर न्यू और सोशल मीडिया पर नियंत्रण लगाने की कोशिश कर रही है, उसे अधिकांश लोगों के लिए पचा पाना मुश्किल हो रहा है. कहने की जरूरत नहीं है कि इसकी सबसे बड़ी वजह खुद सरकार की कमजोर साख और विश्वसनीयता है जिसके कारण लोगों को उसकी मंशा पर शक हो रहा है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि सरकार न्यू और सोशल मीडिया से नाराज और चिढ़ी हुई है और पिछले कई महीनों से सोशल मीडिया को काबू में करने की कोशिश कर रही है. यह भी कि सोशल मीडिया से उसकी नाराजगी की सबसे बड़ी वजह यह है कि सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को संगठित करने में उसकी बड़ी भूमिका रही है.
हालाँकि सरकार शुरू से यह दावा करती रही है कि वह सोशल मीडिया पर नियंत्रण नहीं लगाना चाहती है और चाहती है कि नेटवर्किंग खुद ही सांप्रदायिक, भडकाऊ, अश्लील और मानहानिपूर्ण कंटेंट को जांच-परखकर अपलोड करें. लेकिन सरकार की मंशा शुरू से संदेह के घेरे में थी.

हैरानी की बात नहीं है कि गूगल की ट्रांसपरेंसी रिपोर्ट यह खुलासा करती है कि उसे भारत सरकार और दूसरी सरकारी एजेंसियों से पिछले साल जून से दिसंबर के बीच कुल १०१ निर्देश मिले जो उससे पहले की अवधि में मिले निर्देशों की तुलना में ४९ फीसदी ज्यादा थे. इनमें कुल २५५ कंटेंट को हटाने की मांग की गई थी और गूगल ने कोई २९ फीसदी निर्देशों को मानकर उस कंटेंट को हटा भी दिया.

सबसे चौंकानेवाली बात यह है कि इनमें सांप्रदायिक, भडकाऊ और घृणा फैलानेवाले संदेशों की तुलना में मानहानि से संबंधित कंटेंट को हटाने की मांग दोगुनी से ज्यादा थी. सरकार के आलोचकों का आरोप है कि मानहानि के नामपर वह उसकी पोल खोलनेवाले कंटेंट को हटाने की कोशिश करती रही है.
यही कारण है कि सोशल मीडिया का सांप्रदायिक घृणा के लिए इस्तेमाल किये जाने के खिलाफ आवाज़ उठानेवाले एक्टिविस्ट्स और विश्लेषक भी सरकार के ताजा फैसले के सख्त खिलाफ हैं. इसके लिए न सिर्फ सरकार की आधे-अधूरे, जल्दबाजी और मनमाने तरीके से लिया गया ताजा फैसला जिम्मेदार है बल्कि उसकी मंशा को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं.
असल में, आशंका यह है कि सोशल मीडिया पर सांप्रदायिक घृणा फैलानेवाले संदेशों को रोकने के नामपर अगर मनमाने तरीके से कंटेंट को ब्लाक करने या सोशल नेटवर्किंग या सर्च कंपनियों पर उसे हटाने का दबाव डालने की छूट दी गई तो वह इसका इस्तेमाल अपने आलोचकों और विरोधी विचारों को दबाने के लिए करेगी.

यही नहीं, आशंका यह भी है कि अगर एक बार सरकार को यह मौका मिल गया तो वह कल नए-नए बहानों जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा, राष्ट्रद्रोह, देश की एकता और अखंडता, कानून-व्यवस्था आदि से न्यू और सोशल मीडिया को नियंत्रित और निर्देशित करने लगेगी. कहने की जरूरत नहीं है कि ये ऐसे बहाने हैं जिनका दायरा बहुत व्यापक और मनमाना है क्योंकि राष्ट्रीय सुरक्षा से लेकर राष्ट्रद्रोह तक की परिभाषा सरकारें मनमाने तरीके से गढ़ने लगती है.

यही नहीं, इसके बाद एक ऐसा रास्ता खुल जाएगा कि केन्द्र और राज्य सरकारें इस या उस बहाने न सिर्फ न्यू और सोशल मीडिया पर नियंत्रण लगाने की होड़ करने लगेंगी बल्कि उसपर सक्रिय आलोचकों का मुंह बंद करने के लिए उनके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई भी करने से बाज नहीं आएगी.
ऐसे कई उदाहरण है जब सरकार को अपने आलोचकों को दण्डित करने में कोई शर्म महसूस नहीं हुई है. बिहार में फेसबुक पर सरकार की आलोचना के आरोप में मुसाफिर बैठा और जीतेन्द्र नारायण को निलंबित करने के मामले बहुत पुराने नहीं पड़े हैं.
बुनियादी बात यह है कि न्यू और सोशल मीडिया सिर्फ माध्यम भर हैं. उनकी असली ताकत यह है कि वे लाखों-करोड़ों लोगों को एक-दूसरे से जुड़ने, अपनी भावनाएं-मुद्दे-विचार शेयर करने, गोलबंद करने और सबसे बढ़कर खुलकर अपनी राय जाहिर करने की आज़ादी दे रहे हैं. लोग इसका जमकर इस्तेमाल भी कर रहे हैं.

अरब वसंत से लेकर आक्युपाई वाल स्ट्रीट आंदोलन और भारत में भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना आंदोलन तक में सोशल मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. मुश्किल यह है कि मुख्यधारा के पारंपरिक कारपोरेट मीडिया को मैनेज करने में कामयाब सरकारें इसे मैनेज करने में नाकाम रही हैं और उनका डर बढ़ता जा रहा है. इसीलिए वे सोशल मीडिया को नियंत्रित करने और उसपर पाबंदी लगाने के लिए रोज-रोज नए-नए बहाने ढूंढने में लगी हुई हैं.

जाहिर है कि कोई भी लोकतान्त्रिक और स्वतंत्रचेता समाज और देश इसे स्वीकार नहीं कर सकता है. अक्सर बदरंग चेहरों को सारा दोष आईने में दिखता है लेकिन क्या इस आधार पर आईने को तोड़ने की इजाजत कैसे दी जा सकती है? अफसोस और चिंता की बात यह है कि यू.पी.ए सरकार भी आईने को तोड़ने की कोशिश करती दिखाई दे रही है.





('दैनिक जागरण' के मुद्दा परिशिष्ट में 26 अगस्त को प्रकाशित सम्पादित टिप्पणी का सम्पूर्ण आलेख)

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