उच्च शिक्षा में हालात इमरजेंसी के हैं और करोड़ों युवाओं का भविष्य दांव पर लगा हुआ है
ब्रितानी कंपनी- क्वैक्रेल्ली साइमंड्स (क्यू.एस) की ओर से जारी
दुनिया के २०० सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची में एक भी भारतीय
विश्वविद्यालय या संस्थान अपनी जगह नहीं बना पाया है. स्वाभाविक तौर पर इस रिपोर्ट
के आने के बाद से भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों खासकर विश्वविद्यालयों की दुर्गति
और उनके खराब अकादमिक स्तर को लेकर एक बार फिर स्यापा शुरू हो गया है.
मजे की बात यह है कि उच्च शिक्षा व्यवस्था के नीति-नियंता इस रिपोर्ट पर ऐसी मासूमियत के साथ हैरानी जाहिर कर रहे हैं, जैसे उन्होंने उच्च शिक्षा की स्थिति सुधारने के लिए दिन-रात एक कर दिया हो और उन्हें उम्मीद थी कि भारतीय विश्वविद्यालय इस वैश्विक सूची में जरूर होंगे.
यहाँ तक कि कई केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति (चांसलर)
राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने पिछले एक साल में कई उच्च शिक्षा संस्थानों के
दीक्षांत और अन्य समारोहों में भारतीय विश्वविद्यालयों के दुनिया के २००
सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची में जगह न बना पाने पर चिंता जाहिर की है.
खुद प्रधानमंत्री भी इसपर कई बार चिंता जाहिर कर चुके हैं.
लेकिन भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था और ज्यादातर संस्थानों/विश्वविद्यालयों पर कब्ज़ा जमाए बैठी दमघोंटू नौकरशाही, अकादमिक दिशाहीनता और शैक्षिक अन्धकार से वाकिफ लोगों के लिए यह हैरान करनेवाली रिपोर्ट नहीं है कि दुनिया के बेहतरीन २०० विश्वविद्यालयों में एक भी भारतीय शिक्षा संस्थान नहीं है या दुनिया के सर्वश्रेष्ठ ८०० उच्च शिक्षा संस्थानों की सूची में में भारत से केवल ११ शिक्षा संस्थान शामिल हैं.
टुकड़ों से ज्यादा कीमत नहीं रखती हैं. योजना आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश के ६० फीसदी विश्वविद्यालयों और ८० फीसदी कालेजों से पास स्नातक ‘रोजगार के लायक नहीं’ (अनइम्प्लायबल) हैं क्योंकि उनके पास न तो कोई तकनीकी कौशल है, न खुद को बेहतर तरीके से अभिव्यक्त करने की भाषा दक्षता है और न ही बुनियादी सामान्य ज्ञान है.
हैरानी की बात नहीं है कि कुछ चुनिंदा अभिजात्य विश्वविद्यालयों और कालेजों को छोड़कर ज्यादातर शिक्षा संस्थान आज शिक्षित बेरोजगार पैदा करने की फैक्ट्री में बदल गए हैं क्योंकि वहां पठन-पाठन के अलावा बाकी सब कुछ हो रहा है.
योजना आयोग ने १२वीं पंचवर्षीय योजना (२०१२-१७) में उच्च शिक्षा में जी.ई.आर को २५.१ फीसदी पहुंचाने का लक्ष्य रखा है. अगर यह लक्ष्य हासिल भी हो गया तो भी २०१७ में ७५ फीसदी युवा कालेज/महाविद्यालय से बाहर रहेंगे और भारत उच्च शिक्षा में प्रवेश के मामले में अपने समकक्ष देशों से पीछे रहेगा.
उसपर तुर्रा यह कि अब यू.पी.ए सरकार उच्च शिक्षा की इस महा-दुर्गति का हल विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपने परिसर खोलने का न्यौता देने में खोज रही है. सवाल यह है कि दुनिया के किस देश में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता विदेशी विश्वविद्यालयों के आने से सुधरी है? यह भी कि हार्वर्ड या एमआईटी या स्टैनफोर्ड या आक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज ने दुनिया के किन देशों में अपनी शाखाएं खोली हैं और क्या वह शाखा भी विश्वस्तरीय रैंकिंग में है?
छोड़ दिया गया है. इसी तरह तमाम वायदों और दावों के बावजूद देश में शिक्षा का कुल बजट जी.डी.पी के ३-४ फीसदी तक पहुँच पाया है और इसमें भी उच्च शिक्षा के लिए कुल बजट जी.डी.पी के एक फीसदी से भी कम है जबकि ६० के दशक में कोठारी आयोग ने शिक्षा के लिए जी.डी.पी का न्यूनतम ६ फीसदी बजट मुहैया कराने की सिफारिश की थी.
सवाल यह है कि वैश्विक स्तर पर सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय/संस्थानों की सूची में भारतीय उच्च शिक्षा संस्थान अपनी जगह कैसे बना पाएंगे, अगर उन्हें उनके समक्ष वैश्विक संस्थानों की तरह संसाधन, आज़ादी और स्वायतत्ता नहीं दी जायेगी?
अध्यापन और शोध को कृत्रिम तरीके से एक-दूसरे से काट देने का नतीजा यह हुआ है कि अधिकांश उच्च शिक्षा संस्थान न खुदा ही मिला और न विसाल-ए-सनम की तर्ज पर न अध्यापन में बेहतर कर पा रहे हैं और न ही शोध में कोई कमाल दिखा पा रहे हैं. जाहिर है कि मौजूदा स्थिति में अधिकांश शिक्षा संस्थान अंतर्राष्ट्रीय छात्र या अध्यापक आकर्षित नहीं कर पा रहे हैं.
मजे की बात यह है कि उच्च शिक्षा व्यवस्था के नीति-नियंता इस रिपोर्ट पर ऐसी मासूमियत के साथ हैरानी जाहिर कर रहे हैं, जैसे उन्होंने उच्च शिक्षा की स्थिति सुधारने के लिए दिन-रात एक कर दिया हो और उन्हें उम्मीद थी कि भारतीय विश्वविद्यालय इस वैश्विक सूची में जरूर होंगे.
लेकिन भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था और ज्यादातर संस्थानों/विश्वविद्यालयों पर कब्ज़ा जमाए बैठी दमघोंटू नौकरशाही, अकादमिक दिशाहीनता और शैक्षिक अन्धकार से वाकिफ लोगों के लिए यह हैरान करनेवाली रिपोर्ट नहीं है कि दुनिया के बेहतरीन २०० विश्वविद्यालयों में एक भी भारतीय शिक्षा संस्थान नहीं है या दुनिया के सर्वश्रेष्ठ ८०० उच्च शिक्षा संस्थानों की सूची में में भारत से केवल ११ शिक्षा संस्थान शामिल हैं.
हालाँकि इस वैश्विक रैंकिंग में कई प्रविधिमूलक समस्याएं हैं, इसके
विकसित पश्चिमी देशों की शैक्षिक व्यवस्था और उसके मानदंडों के पक्ष में
पूर्वाग्रह भी स्पष्ट हैं और बुनियादी तौर पर असमान और भिन्न परिस्थितियों में
विकसित हुए और काम कर रहे शैक्षिक संस्थानों की वैश्विक रैंकिंग बेमानी है लेकिन
इसका अर्थ यह नहीं है कि भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था और संस्थानों में कोई समस्या
नहीं है या उसका प्रदर्शन संतोषजनक है.
इसके उलट सच्चाई यह है कि अधिकांश उच्च
शिक्षा संस्थान अकादमिक तौर पर जबरदस्त गतिरुद्धता के शिकार हैं, शिक्षण और शोध की
दशा और दिशा बद से बदतर होती जा रही है और वे मूलतः दाखिले-परीक्षा और डिग्रियां
बाँटने तक सीमित रह गए हैं.
अफसोस की बात यह है कि इनमें से अधिकांश विश्वविद्यालयों/संस्थानों की
डिग्रियां भी कागज केटुकड़ों से ज्यादा कीमत नहीं रखती हैं. योजना आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश के ६० फीसदी विश्वविद्यालयों और ८० फीसदी कालेजों से पास स्नातक ‘रोजगार के लायक नहीं’ (अनइम्प्लायबल) हैं क्योंकि उनके पास न तो कोई तकनीकी कौशल है, न खुद को बेहतर तरीके से अभिव्यक्त करने की भाषा दक्षता है और न ही बुनियादी सामान्य ज्ञान है.
हैरानी की बात नहीं है कि कुछ चुनिंदा अभिजात्य विश्वविद्यालयों और कालेजों को छोड़कर ज्यादातर शिक्षा संस्थान आज शिक्षित बेरोजगार पैदा करने की फैक्ट्री में बदल गए हैं क्योंकि वहां पठन-पाठन के अलावा बाकी सब कुछ हो रहा है.
यह स्थिति एक बड़ी राष्ट्रीय त्रासदी में बदलती जा रही है. एक ओर
उद्योग और सेवा क्षेत्र में प्रतिभाओं की कमी का रोना रोया जा रहा है और दूसरी ओर,
उच्च शिक्षा संस्थानों से डिग्री लेकर निकले करोड़ों युवा हैं जो एक गरिमापूर्ण
रोजगार के लिए भटक रहे हैं. इसका सीधा असर भारतीय अर्थव्यवस्था, उसकी प्रतियोगी
क्षमता और उसमें नवोन्मेष (इन्नोवेशन) पर पड़ रहा है.
त्रासदी यह है कि भारत की
आबादी में दो-तिहाई युवाओं की मौजूदगी के कारण देश को जिस ‘जनसांख्यकीय लाभांश’ का
फायदा उठाते हुए तेजी से तरक्की करना चाहिए था, वह उच्च शिक्षा की मौजूदा दुर्गति
के कारण देश के लिए ‘जनसांख्यकीय दु:स्वपन’ में बदलता जा रहा है.
सच पूछिए तो यह उन युवाओं के साथ भी अन्याय है जिन्हें उच्च शिक्षा
संस्थानों/विश्वविद्यालयों की दुर्दशा की असली कीमत चुकानी पड़ रही है. यह तब है जब
देश में विश्वविद्यालय/कालेज जाने की उम्रवाले युवाओं में से सिर्फ १८.१ फीसदी
कालेज/विश्वविद्यालय का मुंह देख पाते हैं. इसके उलट विकसित देशों में यह ५० फीसदी
से ऊपर है जबकि भारत जैसे कई विकासशील और उभरती अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों में
उच्च शिक्षा में कुल पंजीकरण अनुपात (जी.ई.आर) ३० फीसदी से ऊपर है. योजना आयोग ने १२वीं पंचवर्षीय योजना (२०१२-१७) में उच्च शिक्षा में जी.ई.आर को २५.१ फीसदी पहुंचाने का लक्ष्य रखा है. अगर यह लक्ष्य हासिल भी हो गया तो भी २०१७ में ७५ फीसदी युवा कालेज/महाविद्यालय से बाहर रहेंगे और भारत उच्च शिक्षा में प्रवेश के मामले में अपने समकक्ष देशों से पीछे रहेगा.
लेकिन उच्च शिक्षा तक पहुँच से भी बड़ी समस्या उसकी गुणवत्ता का है
जिसकी ओर केन्द्र और राज्य सरकारों का बिलकुल ध्यान नहीं है. असल में, उच्च शिक्षा
की मौजूदा स्थिति सिर्फ चिंता की बात नहीं है बल्कि यह एक राष्ट्रीय इमरजेंसी की
स्थिति है. यह स्थिति एक दिन में पैदा नहीं हुई है. पिछले दशकों में नीति नियंताओं
ने उच्च शिक्षा की जिस तरह से अनदेखी की, उसके साथ खिलवाड़ किया और उच्च शिक्षा
संस्थानों को धीमी मौत मरने के लिए छोड़ दिया, उसका नतीजा सबके सामने है.
यही नहीं,
कोढ़ में खाज की तरह उच्च शिक्षा में प्रवेश और गुणवत्ता की चुनौती से निपटने के
लिए पिछले डेढ़ दशकों में केन्द्र और राज्य सरकारों ने शिक्षा के निजीकरण और
व्यवसायीकरण को बढ़ावा दिया है, उसके कारण स्थिति बद से बदतर हुई है.
यही नहीं, उच्च शिक्षा के निजीकरण और बाजारीकरण का नतीजा न सिर्फ उच्च
शिक्षा के महंगे होने और गरीबों की पहुँच से बाहर होने के रूप में सामने आया है
बल्कि उसकी गुणवत्ता के साथ भी समझौता किया जा रहा है. उच्च शिक्षा के निजीकरण के
नाम जिस तरह पर से दुकानें खुली हैं और लूट सी मची हुई है, वह अब किसी से छुपा
नहीं है. उसपर तुर्रा यह कि अब यू.पी.ए सरकार उच्च शिक्षा की इस महा-दुर्गति का हल विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपने परिसर खोलने का न्यौता देने में खोज रही है. सवाल यह है कि दुनिया के किस देश में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता विदेशी विश्वविद्यालयों के आने से सुधरी है? यह भी कि हार्वर्ड या एमआईटी या स्टैनफोर्ड या आक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज ने दुनिया के किन देशों में अपनी शाखाएं खोली हैं और क्या वह शाखा भी विश्वस्तरीय रैंकिंग में है?
असल में, उच्च शिक्षा व्यवस्था के नीति नियंता उसकी बुनियादी और
संरचनात्मक समस्याओं और मर्ज से मुंह मोड़कर केवल लक्षणों का इलाज करने की कोशिश कर
रहे हैं जिसके कारण मर्ज बढ़ता और गंभीर होता जा रहा है.
सच यह है कि उच्च शिक्षा
को स्कूल और माध्यमिक शिक्षा से काटकर नहीं देखा जा सकता है. आखिर छात्र वहीँ से
कालेज/विश्वविद्यालय पहुँचते हैं. लेकिन शिक्षा के अधिकार के कानून के बावजूद
स्कूली और माध्यमिक शिक्षा खासकर सरकारी स्कूलों की दुर्दशा किसी से छिपी हुई नहीं
है. लेकिन स्कूली शिक्षा की यह दुर्दशा मूलतः दोहरी शिक्षा व्यवस्था का नतीजा है
जिसके तहत एक ओर अभिजात्य निजी पब्लिक स्कूल हैं और दूसरी ओर अभावग्रस्त सरकारी
स्कूल हैं.
चूँकि इस देश के शासक वर्गों के बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं जाते,
इसलिए उन्हें उनके हाल परछोड़ दिया गया है. इसी तरह तमाम वायदों और दावों के बावजूद देश में शिक्षा का कुल बजट जी.डी.पी के ३-४ फीसदी तक पहुँच पाया है और इसमें भी उच्च शिक्षा के लिए कुल बजट जी.डी.पी के एक फीसदी से भी कम है जबकि ६० के दशक में कोठारी आयोग ने शिक्षा के लिए जी.डी.पी का न्यूनतम ६ फीसदी बजट मुहैया कराने की सिफारिश की थी.
सवाल यह है कि वैश्विक स्तर पर सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय/संस्थानों की सूची में भारतीय उच्च शिक्षा संस्थान अपनी जगह कैसे बना पाएंगे, अगर उन्हें उनके समक्ष वैश्विक संस्थानों की तरह संसाधन, आज़ादी और स्वायतत्ता नहीं दी जायेगी?
ध्यान रहे कि वैश्विक रैंकिंग में पहुँचने के लिए जो भारांक हैं, उनके
मुताबिक किसी शैक्षिक संस्थान की अकादमिक प्रतिष्ठा (४० फीसदी), रोजगार प्रदाताओं
के बीच साख (१० फीसदी), छात्र-अध्यापक अनुपात (२० फीसदी), प्रति संकाय सदस्य
शोध/साइटेशन (२० फीसदी), अंतर्राष्ट्रीय छात्र (५ फीसदी) और अंतर्राष्ट्रीय संकाय
सदस्य (५ फीसदी) के आधार पर उसकी रैंकिंग तय होती है.
लेकिन अधिकांश भारतीय उच्च
शिक्षा संस्थानों में छात्र-अध्यापक अनुपात अंतर्राष्ट्रीय मानकों से काफी बदतर
स्थिति में है. हालत यह है कि अधिकांश विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के तीस फीसदी
से अधिक पद खाली हैं. यहाँ तक कि केन्द्रीय विश्वविद्यालयों और आई.आई.टी जैसे
संस्थानों में ३० से ४० फीसदी पद खाली हैं.
इसी तरह ज्यादातर विश्वविद्यालयों/संस्थानों की प्राथमिकता मौलिक शोध
नहीं बल्कि अध्यापन (टीचिंग) है. यह भी शैक्षिक नीतियों का नतीजा है क्योंकि सरकार
ने अध्यापन और शोध को एक ही सिक्के के दो पहलू की तरह देखने के बजाय अधिकांश
कालेजों/विश्वविद्यालयों को अध्यापन संस्थान और उनके समानांतर मौलिक शोध के लिए
अभिजात्य संस्थानों को खड़ा किया जहाँ अध्यापन नहीं होता है. अध्यापन और शोध को कृत्रिम तरीके से एक-दूसरे से काट देने का नतीजा यह हुआ है कि अधिकांश उच्च शिक्षा संस्थान न खुदा ही मिला और न विसाल-ए-सनम की तर्ज पर न अध्यापन में बेहतर कर पा रहे हैं और न ही शोध में कोई कमाल दिखा पा रहे हैं. जाहिर है कि मौजूदा स्थिति में अधिकांश शिक्षा संस्थान अंतर्राष्ट्रीय छात्र या अध्यापक आकर्षित नहीं कर पा रहे हैं.
नतीजा सबके सामने हैं. मानिए या नहीं लेकिन उच्च शिक्षा या कहिए कि
पूरी शिक्षा जिस दुष्चक्र में फंस गई है, वह एक राष्ट्रीय आपातकाल की स्थिति है.
इसे अनदेखा करने का मतलब देश के भविष्य के साथ धोखा करना है. इसकी कीमत युवा पीढ़ी
के साथ देश को भी चुकानी पड़ेगी.
(इस लेख का संक्षिप्त और सम्पादित अंश 'राजस्थान पत्रिका' के सम्पादकीय पृष्ठ पर 17 सितम्बर'13 के अंक में प्रकाशित)
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