वेतन और सेवाशर्तों से लेकर न्यूजरूम के अंदर के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं
पहली किस्त
“चैनल में काम करना ईंट भट्ठे पर काम करने जैसा लगता है..या कोयले के इंजन का ड्राइवर जैसे गर्मी में आग के सामने कोयला डालता था, बिना रूके..इस डर से की इंजन बंद हो जाएगा...वैसा ही अनुभव कराता है तथाकथित न्यूज रूम...पत्रकारिता त्याग मांगती है लेकिन ऐसा त्याग क्या कि एक सैनिक बार्डर पर नहीं...बल्कि अपने ही बैरक में गोली का शिकार हो जाए.”
“न्यूजरूम का माहौल: भेड़ बकरी चराने वाले जैसे चीखते हैं ....जानवरों को हांकने में वैसा ही कुछ बॉस चीखते हैं...जैसे चीख कर ही जूनिएर की कान में आवाज पहुंचाई जा सकती हो..क्या चीख चिल्ला कर ही काम किया जा सकता है?...क्या ऐसे अम्बिएंस में काम कर सकना लम्बे समय तक संभव है ?...न्यूज़ रूम और बॉस की नज़र में अपनी ब्रांडिंग करने का सबसे आसान तरीका चीखना चिल्लाना...अधिकांश लोग अपनी जानकारी और लिखने की कला को छोटा समझने लगे है और चीखने चिल्लाने को बड़ा...काश, मैं भी चीख सकता...की भावना आ रही है लोगो में..लगातार न्यूज़ परोसने के दबाव में नाम पर न्यूज़ रूम को टोर्चेर रूम बनाया जा रहा है..”
-एक न्यूज चैनल में कार्यरत युवा रिपोर्टर
“मैं अपने आपको रोज जलील होते देखता हूँ तो लगता है कि शायद सभी को ये सब सहना होता होगा, पर फिर लगता है कि शायद हमने ही पढाई नहीं की होगी..ऐसे ही हमें भर्ती कर लिया गाली सुनने के लिए...मैं अपना विश्वास खो रहा हूँ...शायद ये इलेक्ट्रानिक मीडिया का विनोद कापडी कल्चर है जो कुछ चैनलों के खून में बस चुका है और टी.आर.पी नामक अस्पताल में हमारा इलाज तो संभव नहीं...”
- चैनल छोड़ चुके एक युवा पत्रकार की व्यथा जो उसने मीडिया स्टडीज ग्रुप के सर्वेक्षण के दौरान बताई
ये कुछ बानगियाँ हैं जो बताती हैं कि आज न्यूज चैनलों के अंदर काम करनेवाले पत्रकारों की क्या स्थिति है? चैनलों में ऐसी आपबीतियों की कमी नहीं है. आप चैनलों के पत्रकारों से न्यूजरूम के अंदर कामकाज की परिस्थितियों के बारे में पूछिए और सम्भावना यह है कि लगभग ६० से ७५ प्रतिशत टी.वी पत्रकारों से आपको ऐसी ही शिकायतें और आपबीती सुनने को मिले.
इसमें कोई शक नहीं है कि न्यूज चैनलों के बीच गलाकाट प्रतियोगिता के कारण न्यूजरूम के अंदर पत्रकारों पर खासा दबाव और तनाव रहता है लेकिन यह दबाव और तनाव हाल के वर्षों में जिस तरह से बढ़ा है, उसका सीधा असर पत्रकारों के स्वास्थ्य और कामकाज पर भी पड़ रहा है.
हालांकि न्यूज चैनलों के अंदर के इस दमघोंटू माहौल के बारे टी.वी पत्रकारों खासकर युवा पत्रकारों के बीच कानाफूसियाँ बहुत दिनों से होती रही हैं. लेकिन पिछले महीने जब मैंने फेसबुक, गूगल-बज और आई.आई.एम.सी पूर्व छात्र ग्रुप मेल पर टी.वी पत्रकारों से उनके वेतन, सेवाशर्तों और कामकाज की परिस्थितियों के बारे में उनकी राय मांगी तो विभिन्न चैनलों के अनेकों टी.वी पत्रकारों ने लिखित और मौखिक रूप में जो बताया, वह कई मामलों में भयावह और रोंगटे खड़े कर देनेवाला और अधिकांश मामलों में चिंतित और परेशान करनेवाला है. उसकी कुछ बानगियाँ ऊपर दी हैं और जगह की कमी के कारण कई छोड़नी पड़ रही हैं.
असल में, चैनलों के स्क्रीन पर दिखने वाली खबरों, रिपोर्टों और कार्यक्रमों, चैनलों के नजरिये और प्रस्तुति को लेकर जितनी चर्चा होती है, उसका एक प्रतिशत भी चैनलों के अंदर की दुनिया और उसके पत्रकारों की स्थिति पर चर्चा नहीं होती है. जबकि चैनलों के अंदर के माहौल और पत्रकारों के वेतन और अन्य सेवाशर्तों का उनके कामकाज पर सीधा असर पड़ता है.
आखिरकार ये गेटकीपर (पत्रकार) ही चैनलों की व्यापक सम्पादकीय लाइन के तहत रोजाना खबरों के चयन से लेकर उनकी प्रस्तुति का फैसला करते हैं. ऐसे में, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि उनकी मानसिक और शारीरिक स्थिति निश्चित ही उनके कामकाज को प्रभावित करती है.
इसके बावजूद चैनलों के अंदर न्यूजरूम के माहौल और उसमें कार्यरत पत्रकारों के वेतन और सेवाशर्तों को चर्चा के लायक नहीं समझा जाता है. न्यूज मीडिया में इसे लेकर जिस तरह की ख़ामोशी और अनदेखा करने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है, वह काफी हद तक एक तरह की ‘षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी’ है. कुछ चुनिन्दा चैनलों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश चैनलों में पत्रकारों की स्थिति अच्छी नहीं है और उन्हें भारी तनाव और दबाव में काम करना पड़ता है.
वेतन और सेवाशर्तों के मामले में भी स्थिति दिन पर दिन बिगड़ती जा रही है. खासकर २००८-०९ की आर्थिक मंदी के बाद हुई छंटनियों के कारण काम का बोझ बढ़ता जा रहा है. लेकिन इसपर चर्चा और सुधार के बजाय चैनलों का प्रबंधन यहाँ तक कि कई संपादक भी मौजूदा स्थितियों का बचाव करते और उसे जायज ठहराते दिख जाते हैं.
सच यह है कि न्यूज चैनलों के पत्रकारों के वेतन, भत्तों, सेवाशर्तों आदि में गंभीर विषमताएं और विसंगतियाँ हैं. वेतन और सेवाशर्तों के मामले में कोई एकरूपता या समानता नहीं है. आमतौर पर अंग्रेजी न्यूज चैनलों में पत्रकारों का वेतन और सेवाशर्तें हिंदी और दूसरी भाषाओँ के न्यूज चैनलों की तुलना में बेहतर हैं.
लेकिन ऐसा नहीं है कि अंग्रेजी न्यूज चैनल में सब कुछ बेहतर ही है. वहां भी काम के घंटों, काम के बोझ और छुट्टियों आदि के मामले में कोई आदर्श स्थिति नहीं है. यही नहीं, कई अंग्रेजी चैनलों खासकर सबसे बडबोले अंग्रेजी चैनल में कामकाज का माहौल बहुत दमघोंटू और तनावपूर्ण है. बात-बात पर गाली-गलौज और अपमानित करने की शिकायतें भी आती रहती हैं.
लेकिन हिंदी न्यूज चैनलों में स्थिति और खराब है. यह सही है कि कुछ बड़े मीडिया समूहों के न्यूज चैनलों में पत्रकारों का वेतन तुलनात्मक रूप में ठीक-ठाक है. लेकिन तथ्य यह भी है कि वेतन वृद्धि के मामले में पिछले दो-ढाई सालों में स्थिति बिगड़ी है. छोटे-बड़े सभी चैनलों ने २००८-०९ की आर्थिक मंदी को बहाना बनाकर न सिर्फ वेतन वृद्धि नहीं की बल्कि बड़े पैमाने पर घोषित-अघोषित छंटनी की और काम का बोझ बढ़ा दिया. ‘स्टाफ रैशनालाइजेशन’ के नाम पर नई भर्तियाँ नहीं हो रही हैं या इक्का-दुक्का भर्तियाँ हो रही हैं. यही नहीं, बड़े और सफल चैनलों में भी निचले और मंझोले स्तर की भर्तियों में वेतन पहले की तुलना में कम हो गया है.
तर्क यह दिया जा रहा है कि न्यूज चैनलों में यह ‘वेतन के रैशनालाइजेशन’ का दौर है. इसके मुताबिक, शुरूआती दौर में टी.वी पत्रकारों खासकर प्रशिक्षित पत्रकारों की कमी के कारण पत्रकारों को प्रिंट मीडिया की तुलना में काफी ऊँची तनख्वाहें मिलीं. उस समय बार्गेनिंग की शक्ति टी.वी पत्रकारों के पक्ष में झुकी हुई थी.
लेकिन प्रबंधकों के अनुसार, यह स्थिति ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकती थी क्योंकि इससे मीडिया उद्योग में वेतन के मामले में एक तरह का ‘डिस्टार्शन’ पैदा हो गया था. कहने की जरूरत नहीं है कि आर्थिक मंदी ने न्यूज चैनलों के मालिकों और प्रबंधकों को इस कथित ‘डिस्टार्शन’ को सुधारने का मौका दे दिया जिसका उन्होंने जमकर फायदा उठाया है.
('कथादेश' के अगस्त अंक में प्रकाशित स्तम्भ की पहली किस्त..बाकी कल)
5 टिप्पणियां:
सर यह भी पत्रकारों की ही करतूत है.......लॉबी में रहने वाले पत्रकार 40 हज़ार से ऊपर की सेलेरी पर काम करते हैं, जबकि उनका अनुभव मात्र 3-4 साल का होता है। वहीं 5-7 साल के अनुभव वाले पत्रकार जो किसी लॉबी में नहीं है, उनकी सेलेरी 10-15 हज़ार होती है.......यह सारा गंदा काम चंद पत्रकार अपने स्रवार्थ के लिए करते हैं.....देखा जाए तो इसमें चैनल मालिकों का कोई दोष नहीं....सारा दोष जूगाड़ु पत्रकारों का है.......जो औरों की सेलेरी पर भी हाथ साफ़ कर जाते हैं ....फिर भी उनका पेट नहीं भरता.....और साल में तीन बार इस्तीफ़े की धमकी देकर तीन बार अपने और अपने चट्टे-बट्टे की सेलेरी बढ़वाते हैं......
मीडिया पर बनिया मानसिकता के लोगों का कब्जा हो चुका है और वे सिर्फ अपना फायदा देखते हैं। अपने फायदे के लिए ये लोग दूसरे जगह दिखाए गए न्यूज़ को भी ब्रेकिंग न्यूज़ बना देते हैं और वहां काम करने वाले पत्रकारों/ कर्मचारियों की हालत किसी से छुपी नहीं है। कुछ करने की चाहत लेकर मीडिया ज्वाइन करने वाले लोगों का मन इस व्यवस्था से जुड़ने के बाद हकीकत जानकर खिन्न हो जाता है। क्या सोचकर इस क्षेत्र में आए ते और क्या कर रहे हैं। अगर आप चापलूसी नहीं कर सकते तो चाहे कितना भी आपको जानकारी क्यों ना हो आप तरक्की नहीं कर सकते। आपके सामने लोग बॉस की चापलूसी करके कहां- से कहां तक चले जाते हैं और आप देखते रह जाते हैं। सभी जगह विनोद कापड़ी की मानसिकता काम कर रही है। जब पैसे देने की बारी हो या अप्रैजल का वक्त हो तो आपमें तमाम तरह की खामियों वो गिनाने लगते हैं लेकिन काम करते-करते आपकी रीढ़ की हड्डी झुक जाए आपकी बला से। पुराने समय की बात और थी जब इस क्षेत्र में लोग समर्पण की भावना से आते थे लेकिन अब सिर्फ बनिए भरे पड़े हैं।
Very timely post sir...it was time someone wrote about it. and coming from the professor of so many of us (journalists). It adds to the debate..I am sure more senior media functionaries read and debate on this!!
duniya ko sach dikhane ka dawa karne waale apna sach dikhane ki himmat karenge kya. baat naitik mulyo ki hai patrakarita ko dhandha bana dene ke baad "jo dikhta hai woh bikta hai" bechana itna zaroori hai kya?
यह बात बहुत हद तक सही लगती है कि लोबीइंग करने वाले पत्रकार ही मोटी तन्खावाहों में काम करते हैं.और वही बड़े पत्रकार दिखाई पड़ते हैं.और हर जगह यही प्रचारित करते फिरते हैं कि पत्रकारों की स्त्तिथि पहले से बेहतर हुई है.शायद उनके लिए पत्रकारों की अच्छी स्तिथि का पैमाना खुद की स्तिथि से है.
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