आनंद प्रधान
ऐसा लगता है कि लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट पर जारी चर्चा में एक जरूरी प्रसंग को जानबूझकर अनदेखा किया जा रहा है। आयोग ने रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद और 6 दिसंबर को मस्जिद ध्वंस के दौरान मीडिया की भूमिका के बारे में भी कुछ ऐसी टिप्पणियां की हैं जिनपर बात जरूरी है. आयोग की रिपोर्ट में पृष्ठ ८९० से ९१४ तक यानि कुल २४ पृष्ठों में मीडिया की भूमिका और मीडिया के प्रति संघ-वी.एच.पी-बी.जे.पी नेताओं के आक्रामक रवैये की पड़ताल करते कुछ दिलचस्प और व्यापक नतीजों वाली सिफारिशें भी की गई हैं. आयोग का निष्कर्ष है कि ६ दिसंबर को मस्जिद ध्वंस के दौरान देशी-विदेशी मीडियाकर्मियों पर हुआ जानलेवा हमला न सिर्फ पूर्वनियोजित था बल्कि इसे संघ-वी.एच.पी-बी.जे.पी के आला नेताओं के अलावा तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह और स्थानीय प्रशासन की शह हासिल थी. आयोग के मुताबिक यह हमला इसलिए किया गया था क्योंकि मस्जिद ध्वंस के जिम्मेदार उसके स्वतंत्र सबूत नष्ट करना चाहते थे. वे नहीं चाहते थे कि मीडिया इसका प्रत्यक्षदर्शी रहे. यही नहीं, यह हमला उन पत्रकारों को सबक सिखाने के लिए भी किया गया था जो संघ-वी.एच.पी-बी.जे.पी के विचारों में विश्वास नहीं करते थे और सेकुलर माने जाते थे. सबसे अधिक अफ़सोस की बात यह है कि बाद में आयोग के सामने गवाहियों के दौरान संघ और बी.जे.पी के कई नेताओं ने मीडिया पर कारसेवकों के जानलेवा हमलों को इस या उस बहाने उचित ठहराने की कोशिश की है.
यह है संघ-बी.जे.पी का असली चरित्र और चेहरा जो बातें तो स्वतंत्र प्रेस और अभिव्यक्ति की आज़ादी की करता है लेकिन व्यवहार में अपने विचारों से सहमति न रखनेवालों को सबक सिखाने में किसी भी तानाशाह से कम नहीं है. यहां तक कि आडवानी जैसे नेता ने आयोग के सामने अपनी गवाही में मीडिया की शिकायत करते हुए कहा कि वह रामजन्मभूमि आन्दोलन को राष्ट्रीय शर्म, पागलपन और बर्बर बता रहा था और उनकी रामरथ यात्रा के प्रति अनर्गल आरोप लगा रहा था. हालांकि उन्होंने खुलकर पत्रकारों पर कारसेवकों के हमले को सही नहीं ठहराया लेकिन उनकी मंशा साफ जाहिर है. कहने कि जरूरत नहीं है कि सांप्रदायिक फासीवाद का यह चरित्र नया नहीं है और 6 दिसम्बर को अयोध्या और फैजाबाद में पत्रकारों को इसका प्रत्यक्ष अनुभव भी हुआ. जाहिर है कि वह कोई अपवाद नहीं था और न ही भावनाओं का विस्फोट था. वह सिलसिला आज भी जारी है. सबसे ताजा मिसाल है महाराष्ट्र जहां शिव सेना के भगवाधारी गुंडे अखबारों-चैनलों और उनके संपादकों-पत्रकारों को सबक सिखाने में जुटे हुए हैं.
लेकिन लिब्राहन आयोग ने मीडिया के एक हिस्से खासकर भाषाई और स्थानीय प्रेस की भूमिका की भी इस बात के लिए कड़ी आलोचना की है कि उसने एकपक्षीय, सच्ची-झूठी रिपोर्टों और यहां तक कि अफवाहों को खबर की तरह छापकर लोगों की भावनाओं को भड़काने और दो समुदायों में नफ़रत फ़ैलाने का काम किया। हालांकि यह कोई नया तथ्य नहीं है और उस समय एन.आर चंद्रन,रघुवीर सहाय और के विक्रम राव आदि के नेतृत्व वाली प्रेस काउन्सिल की जांच समिति ने भी हिंदी के अधिकांश अखबारों को रामजन्मभूमि आन्दोलन के पक्ष में एकतरफा, आधारहीन और भावनाएं भड़कानेवाली रिपोर्टिंग के लिए दोषी ठहराया था. इसके अलावा भी कई अन्य स्वतंत्र नागरिक संगठनो की जांच रिपोर्टों में भी रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को लेकर हिंदी अख़बारों की कवरेज को पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों जैसे वस्तुनिष्ठता, तथ्यपरकता, निष्पक्षता, संतुलन आदि के खिलाफ बताया गया था. उस कवरेज में तर्क, तथ्य और विवेक की जगह कुतर्क, भावनाओं और अफवाहों ने ले ली थी. इसमें कोई दोराय नहीं है कि उस दौर में भाषाई खासकर कई बड़े हिंदी अख़बारों की भूमिका शर्मनाक थी और वह भारतीय पत्रकारिता के इतिहास का एक काला अध्याय है.
ऐसे में, यह स्वाभाविक सवाल उठता है कि वह सब कुछ फिर न दोहराया जाए, इसके लिए क्या किया जाना चाहिए? इस बारे में लिब्राहन आयोग ने कुछ बहुत दूरगामी सिफारिशें की हैं। उसका कहना है कि प्रेस काउन्सिल को दण्डित करने का कोई अधिकार न होने के कारण पीत पत्रकारिता के लिए दोषी पत्रकारों या अखबारों पर कोई लगाम नहीं रह गया है. इसलिए जरूरी है कि मेडिकल काउन्सिल आफ इंडिया या बार काउन्सिल आफ इंडिया की तरह एक संस्था का गठन किया जाए जिसमें एक स्थाई न्यायाधिकरण हो जो पत्रकारों या मीडिया संस्थानों के खिलाफ शिकायतों की सुनवाई कर सके. यही नहीं, आयोग ने यह भी सिफारिश की है कि अन्य कई पेशों की तरह पत्रकारों को भी काम शुरू करने से पहले लाइसेंस लेना अनिवर्य कर दिया जाए जिसे गलती करने पर निलंबित या निरस्त भी किया जा सकता है. मजे की बात यह है कि सरकार ने भी ए.टी.आर में न सिर्फ आयोग की टिप्पणियों से सहमति जाहिर की है बल्कि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय और कानून मंत्रालय को ऐसी समिति की जरूरत और संभावना का पाता लगाने के लिए कहा है.
कहने कि जरूरत नहीं है कि आयोग की ये सिफारिशें मीडिया संगठनो की सांस्थानिक-चारित्रिक समस्याओं की तकनीकी, कानूनी और नौकरशाहाना समाधान तलाशने की कोशिश हैं. इनकी न सिर्फ सीमाएं स्पष्ट हैं बल्कि भविष्य में इनके दुरुपयोग की आशंकाओं को नाकारा नहीं जा सकता है. हालांकि कई देशों में पत्रकारों के लिए लाइसेंस या पत्रकारिता की डिग्री जैसी व्यवस्थाएं मौजूद हैं लेकिन इससे उनकी पत्रकारिता की गुणवत्ता में कोई खास सुधार आया हो, ऐसे प्रमाण नहीं दिखते हैं. यही नहीं, अभी पिछले दिनों ब्राज़ील के सुप्रीम कोर्ट ने पत्रकार बनने के लिए डिग्री की अनिवार्यता को रद्द कर दिया है. ऐसे में, बेहतर यही होगा कि पत्रकार समुदाय और समाचार संगठन बेबाकी और निर्ममता से आत्मविश्लेषण और आलोचना करें और ईमानदारी से अपनी गलतियों को पहचाने. सुधार और परिष्कार का यही रास्ता भविष्य में ऐसी गलतियों को रोक सकता है, कोई डिग्री या लाइसेंस या न्यायाधिकरण इसकी गारंटी नहीं कर सकता है.
1 टिप्पणी:
Achchhi vivechna, dhanyawad.
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