मुख्यधारा के मीडिया के लोकतांत्रिकरण और वैकल्पिक मीडिया के आंदोलन से जुड़ी है नागरिक पत्रकारिता
दुनियाभर के मीडिया में इन दिनों नागरिक पत्रकारिता यानी सिटिजन जर्नलिज्म को लेकर गरमागरम बहस छिड़ी हुई है। हालांकि भारतीय मीडिया के लिए यह शब्द अपेक्षाकृत नया है लेकिन उसे लेकर अब मुख्यधारा के मीडिया में भी हलचल शुरू हो गई है। कुछ महीनों पहले जब वरिष्ठ टीवी पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने अपने नए चैनल सीएनएन-आईबीएन की शुरूआत की तो उसके प्रचार होर्डिंगों में प्रमुख थीम नागरिक पत्रकारिता को ही बनाया गया था। इसमें आम नागरिकों का आह्वान किया गया था कि वे 'सिटिजन जर्नलिस्ट` (नागरिक पत्रकार) बनने के लिए आगे आएं। सीएनएन-आईबीएन की वेबसाइट पर भी लोगों को सिटिजन जर्नलिस्ट बनने के लिए आमंत्रित किया गया है। चैनल का कहना है कि उसके दर्शकों या आम लोगों में से किसी के पास अगर कोई महत्वपूर्ण खबर और उसकी वीडियो क्लिप हो तो वे उसे चैनल को भेज सकते हैं।
सीएनएन-आईबीएन अपने सिटिजन जर्नलिस्ट अभियान के तहत समय-समय पर दर्शकों से मानसून, आरक्षण विरोधी आंदोलन और ऐसे ही सामयिक मुद्दों पर वीडियो क्लिप/फुटेज भेजने की अपील करता रहता है। उसकी अपील पर लोग उसे खबरें और वीडियो/फिल्म भेज भी रहे हैं और उसमें से कुछ खबरें और वीडियो क्लिप चैनल पर दिखाए भी जा रहे हैं। लेकिन अभी तक इक्का-दुक्का मामलों को छोड़कर सिटिजन जर्नलिस्टों की ओर से कोई उल्लेखनीय खबर या फुटेज नहीं आई है। इसके बावजूद चैनल ने नागरिक पत्रकारों को प्रोत्साहित करने के लिए इस साल सर्वश्रेष्ठ नागरिक पत्रकार को पुरस्कार देने की घोषणा भी की है। उसे उम्मीद है कि वह अपने इस अभियान के जरिये बड़ी संख्या में दर्शको को अपने साथ जोड़ पाएगा। यह भी संभव है कि उसे भविष्य में अपने नागरिक पत्रकारों से कोई बड़ी खबर या फुटेज भी मिल जाए जो चैनल की व्यावसायिक सफलता के लिए जरूरी है।
सीएनएन-आईबीएन की देखा-देखी कुछ और समाचार चैनलों और अखबारों ने अपने दर्शकों और पाठकों को खबरें और वीडियो क्लिप भेजने के लिए प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया है। इसका असर भी हुआ है और इन चैनलों और अखबारों में दर्शकों और पाठकों की ओर से भेजी गई खबरों और वीडियो क्लिप को अक्सर दिखाया भी जा रहा है। हालांकि अभी यह शुरूआत है और उसके विभिन्न स्याह-सफेद पहलुओं पर एक व्यापक चर्चा होना बाकी है। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि नागरिक पत्रकारिता ने भारत में भी दस्तक दे दी है। अभी हम चैनलो पर नागरिक पत्रकारिता का सिर्फ एक रूप देख रहे हैं लेकिन अगर दुनिया के और देशों खासकर विकसित देशों के अनुभवों को ध्यान में रखें तो यह स्पष्ट है कि आनेवाले दिनों में यह विचार और जोर पकड़ेगा।
नागरिक पत्रकारिता : एक विचार जिसका समय आ गया है
दरअसल, नागरिक पत्रकारिता वह विचार है जिसका समय आ गया है। मुख्यधारा के कई समाचार संगठनों और पत्रकारो की ओर से व्यक्त किए जा रहे संदेहों और उपेक्षा के भाव के बावजूद अब उसे रोकना संभव नहीं रह गया है। इसकी कई वजहे हैं। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि नागरिक पत्रकारिता भारत में उस समय दस्तक दे रही है जब लंबे संघर्ष के बाद आम नागरिकों को सूचना का अधिकार मिला है। सूचना के अधिकार ने हर नागरिक को एक पत्रकार के अधिकार, सतर्कता और तत्परता से लैस कर दिया है। जाहिर है अब सूचनाओं पर मुट्ठीभर लोगों का अधिकार नहीं रह गया है। पत्रकारों के साथ-साथ अब आम नागरिकों को भी सूचना मांगने का कानूनी अधिकार मिल गया है।
यही नहीं, देश भर में दर्जनों नागरिक संगठन लोगों को सूचना के अधिकार के इस्तेमाल के लिए तैयार और प्रोत्साहित कर रहे हैं। लोग सार्वजनिक से लेकर निजी मामलों तक में सरकार और उसके विभिन्न संगठनों से सूचनाएं मांग रहे हैं। इस तरह अब सूचनाएं सिर्फ पत्रकारों के पास ही नहीं बल्कि आम लोगों के पास भी हैं। कई मामलों में तो पत्रकारों से कहीं ज्यादा सूचनाएं आम लोगों के पास हैं। उनमें से कई सूचनाएं सार्वजनिक महत्व की हैं। उन सूचनाओं का हजारों-लाखों लोगों से सीधा सरोकार है। ये सूचनाएं समाचार की किसी भी परिभाषा और कसौटी पर खरी उतरती है। कोई भी समाचार संगठन उन्हें नजरअंदाज करने का जोखिम नहीं उठा सकता है। अगर वह उन्हें नजरअंदाज करता है तो न सिर्फ उसकी विश्वसनीयता को धक्का लगता है बल्कि वह अपने प्रतियोगी समाचार संगठन को उस सूचना के इस्तेमाल का अवसर मुहैया करा रहा है।
कहने की जरूरत नहीं है कि इस प्रक्रिया में हजारों नागरिक भविष्य के पत्रकार की भूमिका के लिए तैयार हो रहे हैं। अगर पत्रकारिता का अर्थ सूचनाओं का संग्रह, उनकी प्रोसेसिंग और किसी जनमाध्यम के जरिए व्यापक ऑडियंस तक उसकी प्रस्तुति है तो सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर सूचनाएं हासिल कर रहे नागरिक भी पत्रकार की भूमिका के लिए तैयार हो रहे है। इन नागरिक पत्रकारों की खूबी यह है कि वे न सिर्फ मुख्यधारा के समाचार मीडिया के पाठक, दर्शक और श्रोता (ऑडियंस) हैं बल्कि वे पुराने दौर के निष्क्रिय ऑडियंस की तुलना में अपने अधिकारों को लेकर सक्रिय ऑडियंस हैं। वे खुद को सिर्फ सूचनाएं हासिल करने तक सीमित रखने को तैयार नहीं हैं। वे उन सूचनाओं का हथियार की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं।
लोकतंत्र में यह तभी संभव है जब इन सूचनाओं को एक बड़ा ऑडियंस मिले। इसके बिना सार्वजनिक जीवन और कामकाज में जिम्मेदारी और उत्तरदायित्व तय करने के लिए हासिल सूचनाओं का प्रभावी उपयोग नहीं किया जा सकता है। आखिर सार्वजनिक पदो पर बैठे अफसरों और कार्यालयों में सूचना के अधिकार का दबाव इसीलिए बना है क्योंकि उन्हें पता नहीं होता कि प्राप्त सूचनाओं का लोग किस तरह से और क्या इस्तेमाल करेगें। उन्हें इस बात का भय होता है कि जब ये सूचनाएं सार्वजनिक हो जाएंगी तो लोग उन सूचनाओं पर प्रतिक्रिया करेंगे। इससे एक जनमत और जनदबाव पैदा हो सकता है और सरकार को जवाब देने और कार्रवाई करने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है।
लेकिन यह तब तक संभव नहीं है जब तक ये सूचनाएं एक बड़े जनसमुदाय तक न पहुंचे। जाहिर है कि उन सूचनाओं को व्यापक जनता तक पहुंचाने के लिए ऐसे जनमाध्यमों की जरूरत है जिनकी पहुंच एक बड़े ऑडियंस तक है। मुख्यधारा का समाचार मीडिया ऐसा ही एक प्लेटफार्म है जो सूचना के अधिकार आंदोलन से पैदा हो रहे नागरिक पत्रकारों को मौका दे सकता है। इसलिए नागरिकों को मुख्यधारा के मीडिया की जरूरत है ताकि वे सूचना के अधिकार का प्रभावी इस्तेमाल कर सके। स्वयं समाचार माध्यमों के लिए भी यह एक बेहतरीन अवसर है जिसका इस्तेमाल कर वे अपने ऑडियंस और साथ ही साथ अपने कवरेज का भी विस्तार कर सकते है।
ऐसा करके वे काफी हद तक उस ''लोकतांत्रिक घाटे`` की भी भरपाई कर सकते हैं जो पिछले कुछ वर्षों में मुख्यधारा के समाचार संगठनों की सबसे बड़ी कमजोरी बन गई है। दरअसल, मुख्यधारा के मीडिया में आम नागरिकों के सरोकारों और चिंताओं को नजरअंदाज करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। मुख्यधारा के मीडिया का जैसे-जैसे क्रिकेट, क्राइम, सिनेमा और सेलीब्रिटी यानि फोर सीज के प्रति ऑब्सेशन बढ़ता गया है, वैसे-वैसे मीडिया में आम नागरिकों खासकर हाशिए पर पड़े लोगों की समस्याओं, जरूरतों और चिंताओंं के लिए जगह और सहानुभूति कम होती गई है। इस कारण मुख्यधारा के मीडिया और आम नागरिकों के बीच दूरी लगातार बढ़ रही है। यह एक तरह का लोकतांत्रिक घाटा है जिसने समाचार माध्यमों की विश्वसनीयता को भी काफी नुकसान पहुंचाया है।
इस कारण मुख्यधारा के समाचार माध्यमों के पास नागरिक पत्रकारिता को जगह देकर अपनी बची-खुची विश्वसनीयता को बनाए रखने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं बचा है। इसकी वजह यह है कि हाल के वर्षों में मुख्यधारा के मीडिया की अपरिहार्यता लगातार कम हुई है। मुख्यधारा के मीडिया पर जैसे-जैसे कारपोरेट हितों और प्रभुत्वशाली वर्गों का वर्चस्व बढ़ा है, आम लोगों से उसकी दूरी बढ़ी है, वैसे-वैसे नागरिकों और उनके संगठनों में भी वैकल्पिक मीडिया मंचों की तलाश तेज हुई है। जाहिर है कि नागरिक पत्रकारिता भी एक ऐसा ही वैकल्पिक मीडिया मंच उपलब्ध कराती है। इसलिए नागरिक पत्रकारिता की जमीन नीचे से भी तैयार हो रही है।
नागरिक पत्रकारिता के विचार को अगर सूचना के अधिकार ने ताकत और गति दी है तो नए मीडिया और संचार माध्यमों ने उसे आसान बना दिया है। निश्चय ही, आज से कुछ वर्षों पहले तक वैकल्पिक मीडिया को खड़ा करना जितना श्रमसाध्य था और उसके लिए जितनी पूंजी और संसाधनों की जरूरत थी, नए माध्यमों (खासकर इंटरनेट) ने उसे काफी हद तक सरल, सहज और कम खर्चीला बना दिया है। आज आप कुछ हजार रुपयों में अपनी एक वेबसाइट शुरू कर और चला सकते हैं। अगर यह भी संभव न हो तो आप बिना किसी खर्च के अपना एक ब्लॉग शुरू कर सकते हैं। दुनियाभर में इंटरनेट ने वेबसाइट, ब्लॉग और अन्य दूसरे तरीकों से लाखों नागरिकों को अपनी बात कहने और एक-दूसरे से संपर्क और संवाद करने का मौका दिया है। सच तो यह है कि नागरिक पत्रकारिता का वास्तविक और प्रभावी रूप नए माध्यमों के जरिए ही सामने आया है।
दरअसल, इंटरनेट पर व्यक्तियों से लेकर नागरिक समूहों तक की सक्रिय उपस्थिति ने एक तरह की छोटी-छोटी लाखों क्रांतियां पैदा कर दी हैं। कुछ इस हद तक कि मुख्यधारा के माध्यमों को भी नोटिस लेना पड़ रहा है और उसे अपने अंदर जगह देने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। सीएनएन-आईबीएन इस मामले में कोई अपवाद नहीं है। दुनिया के कई देशों विशेषकर विकसित देशों में मुख्यधारा के मीडिया को अपनी साख बचाने के लिए नागरिक पत्रकारिता को अपने मंच पर जगह देनी पड़ रही है। यह ठीक है कि भारत में अभी नए माध्यमों का अपेक्षित विकास नहीं हुआ है और इन माध्यमों पर काम करने के लिए जिस स्तर की तकनीकी दक्षता और कौशल की जरूरत है, वह बहुत कम नागरिकों के पास मौजूद है। लेकिन भारत में सूचना तकनीक और नए माध्यमों के प्रसार और लोगों में उसे अंगीकार करने की गति इतनी तेज है कि अगले कुछ वर्षों में ऐसे लोगों की तादाद काफी बढ़ जाएगी जो उसे सहजता से इस्तेमाल कर सकेंगे।
इसके अलावा आज मुख्यधारा के अलग-अलग माध्यमों (जैसे प्रिंट बनाम टेलीविजन, इंटरनेट बनाम टीवी और प्रिंट, टीवी बनाम सिनेमा आदि) और मीडिया संगठनों के बीच जैसे-जैसे आपसी प्रतिस्पर्धा तेज हो रही है, वैसे-वैसे उनपर पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं यानि ऑडियंस को अपने साथ जोड़ने का दबाव भी बढ़ता जा रहा है। यह तब तक संभव नहीं है, जब तक मीडिया संगठन अपने ऑडियंस को अपना साझेदार नहीं बनाते हैं। अभी तक मीडिया संगठनों में 'संपादक के नाम पत्र`, 'फीड बैक`, 'एसएमएस` जैसे सीमित और शायद अपनी उपयोगिता खो चुके मंचों के अलावा ऐसा कोई माध्यम या प्लेटफार्म नहीं है जिससे आम लोग अपने विचार, मुद्दे, सरोकार और चिंताएं साझा कर सकें। मुख्यधारा के मीडिया ने एक तरह से अपने ऑडियंस को अभी तक 'निष्क्रिय उपभोक्ता` बनाकर रखा हुआ है।
लेकिन नए माध्यमों ने ऑडियंस को सक्रिय बनाया है, उन्हें आवाज दी है, उनके बीच अंतर्क्रिया को बढ़ावा दिया है और उन्हें एकजुट होने का अवसर दिया है। ऑडियंस के बीच आपसी संवाद बढ़ा है और उनका एक तरह से सशक्तिकरण भी हुआ है। नए माध्यमों ने उन्हें अपनी बात कहने की जितनी आजादी दी है, वह उन्हें पारंपरिक जनमाध्यमों में कभी उपलब्ध नहीं थी। आश्चर्य की बात नहीं है कि हाल के वर्षों में नए माध्यमों की लोकप्रियता बहुत तेजी से बढ़ी है। खासकर 15 से 35 वर्ष के युवाओं को नए माध्यमों ने अभिव्यक्ति के व्यापक मौके और विस्तृत क्षितिज प्रदान किए हैं और उनकी गतिविधियों का मुख्य प्लेटफार्म नए माध्यम बन गए हैं। इसी प्रक्रिया में वे नागरिक पत्रकार भी पैदा हो रहे हैं जो सांस्थानिक पत्रकारों और मुख्यधारा के मीडिया के लिए नई चुनौतियां पेश कर रहे हैं। अपनी बात कहने के लिए अब वे मुख्यधारा के मीडिया पर निर्भर नहीं हैं। उनके पास अनेकों विकल्प और माध्यम मौजूद हैं। मुख्यधारा के मीडिया के लिए यह एक खतरे की घंटी है।
क्या है नागरिक पत्रकारिता ?
सवाल उठता है कि आखिर नागरिक पत्रकारिता क्या है ? क्या यह सिर्फ इंटरनेट, ब्लॉग्स आदि तक सीमित है या उसकी जद्दोजहद सिर्फ मुख्यधारा के मीडिया में अपने लिए जगह हासिल करने तक सीमित है ? क्या नागरिक पत्रकारिता की भूमिका किसी टीवी चैनल को कोई वीडियो फुटेज भेज देने तक सीमित है या यह उससे आगे भी जाती है ? कहने की जरूरत नहीं है कि नागरिक पत्रकारिता को लेकर काफी भ्रम हैं और बहुतेरे मीडिया विश्लेषक उसे सार्वजनिक मामलों या जनसुविधाओं की पत्रकारिता (पब्लिक अफेयर्स या सिविक जर्नलिज्म) का ही एक रूप या उसका विस्तार मानते हैं। मुख्यधारा के मीडिया में भी नागरिक पत्रकारिता को लेकर तरह-तरह की आशंकाएं हैं जिनमें से कुछ वाजिब और कुछ स्पष्टता न होने के कारण गैर वाजिब शिकायतें हैं।
दरअसल, नागरिक पत्रकारिता के बाबत अस्पष्टता, भ्रम, आशंकाएं और विवाद इसलिए भी हैं क्योंकि अभी वह एक विकसित हो रही अवधारणा है। यह भी सच है कि नागरिक पत्रकारिता के कई पहलू है। इसके बावजूद नागरिक पत्रकारिता की अवधारणा को लेकर धीरे-धीरे एक सहमति बनती हुई दिखाई पड़ रही है। यह ठीक है कि हर पत्रकार एक नागरिक भी है। लेकिन हाल के वर्षों में अधिक से अधिक नागरिक, पत्रकार बन रहे हैं यानि वे पेशे से तो पत्रकार नहीं है लेकिन कर्म से पत्रकारिता के औजारों का इस्तेमाल कर रहे हैं। नागरिक पत्रकारिता से आशय साझेदारी पर आधारित एक ऐसी पत्रकारिता से है जिसमे आम नागरिक स्वयं सूचनाओं के संकलन, विश्लेषण, रिपोर्टिंग और उनके प्रकाशन-प्रसारण की प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। नागरिक पत्रकारिता की अवधारणा को स्पष्टता के साथ सामने लाने वाली शेन बाउमैन और क्रिस विलिस की मशहूर रिपोर्ट 'वी मीडिया : हाउ ऑडियंसेज आर सेपिंग द फ्यूचर ऑफ न्यूज एंंड इंफॉरमेशन` के अनुसार नागरिकों की ''इस भागीदारी का उद्देश्य स्वतंत्र, विश्वसनीय, तथ्यपूर्ण, व्यापक और प्रासंगिक सूचनाएं मुहैया कराना है जो कि एक लोकतंत्र की मांग होती है।`
स्पष्ट है कि नागरिक पत्रकारिता सार्वजनिक मामलों की पत्रकारिता से इस मामले में अलग है कि नागरिक पत्रकारिता में प्रोफेशनल पत्रकार के बजाय आम नागरिक पत्रकार की भूमिका निभाते हैं। आमतौर पर ये वे नागरिक हैं जिन्हें मुख्यधारा का मीडिया नजरअंदाज करता रहा है या जिनके सरोकारों, मुद्दों और समस्याओं को उसमें पर्याप्त जगह नहीं मिलती रही है। एक तरह से यह नागरिकों की ओर से मुख्यधारा के मीडिया में हस्तक्षेप है और साथ ही साथ वैकल्पिक मीडिया मंचों का निर्माण भी है। नागरिक पत्रकारिता किसी एक व्यक्ति के सरोकार से भी संचालित हो सकती है और वह नागरिकों के संगठित समूहों के सरोकारों से भी प्रेरित हो सकती है। लेकिन बुनियादी बात यह है कि नागरिक पत्रकारिता मुख्यधारा के मीडिया में मौजूद ''लोकतांत्रिक घाटे`` (डेमोक्रेटिक डेफिसिट) और व्यावसायिक दबावों के कारण आम नागरिको और वास्तविक मुद्दों की उपेक्षा के जवाब में पैदा हुई है।
दरअसल, मुख्यधारा के मीडिया के कारपोरेटीकरण और तथाकथित प्रोफेशनलिज्म के कारण उसके अंदर एक ऐसी ढांचागत कठोरता (रिजीडिटी) और अहमन्यता पैदा हुई है जिसमें समाचार माध्यमों के अंदर बैठे पत्रकार खुद को हर तरह की आलोचना, सुधार और परिवर्तन से परे समझने लगे हैं। उन्हें लगता है कि वे जिसे समाचार समझते हैं, उसे जिस तरह से प्रस्तुत करते हैं और उसका जिस तरह से विश्लेषण करते हैं, वह न सिर्फ सौ फीसदी सही है बल्कि ऑडियंस को भी उसी तरह से स्वीकार करना चाहिए। लेकिन सूचनाओं के स्रोतों के विस्तार, उनके बीच आपसी प्रतियोगिता और नए माध्यमों ने इस समझदारी को एक चुनौती पेश की है। अब मुख्यधारा का कोई पत्रकार किसी घटना को मनमाने या आधे-अधूरे तरीके से रिपोर्ट कर बच नहीं सकता।
यही नहीं, मुख्यधारा के मीडिया के लिए अब किसी घटना, मुद्दे, समस्या और विचार को नजरअंदाज करना या ब्लैकऑउट करना भी संभव नहीं रह गया है। दुनियाभर में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है जब मुख्यधारा के मीडिया द्वारा समाचारों के ब्लैकऑउट या उन्हें तोड़मरोड़ कर पेश करने को नागरिक पत्रकारों ने वैकल्पिक माध्यमों-ब्लॉग्स आदि के जरिए चुनौती दी है। नागरिक पत्रकारों ने जानेमाने समाचार संगठनों के प्रोफेशनल पत्रकारों की रिपोर्टों और लेखों में तथ्यगत अशुद्धियों से लेकर उनके पूर्वाग्रहों, राजनीतिक झुकावों और व्यावसायिक दबावों को न सिर्फ उजागर किया है बल्कि उसे सार्वजनिक चर्चा और विचारविमर्श का मुद्दा बनाने में सफलता हासिल की है।
इराक के मामले में अमरीकी समाचार माध्यमों की भूमिका पर सबसे पहले इन्हीं नागरिक पत्रकारों ने सवाल खड़े किए और उन्हें चुनौती दी। यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि इराक के बारे में सबसे अधिक तथ्यपूर्ण और आंखे खोल देनेवाली रिपोर्टें मुख्यधारा के समाचार माध्यमों के जरिए नहीं बल्कि एक नागरिक पत्रकार दाहर जमाल के ब्लॉग्स के जरिए सामने आई हैं। इस मायने में नागरिक पत्रकारिता मुख्यधारा के मीडिया के लोकतांत्रिकरण के आंदोलन का हिस्सा है। उसने आम पाठकों/दर्शकों/श्रोताओं को सक्रिय बनाया है और उनके अंदर मीडिया की एक समझ भी पैदा की है। इस सक्रियता और समझ के साथ ये पाठक/दर्शक/श्रोता मुख्यधारा के मीडिया में हस्तक्षेप कर रहे हैं और अपने और अपने सरोकारों के लिए जगह की मांग कर रहे है।
नागरिक पत्रकारिता बनाम 'पीपुलराज्जी': गेटकीपरों की भूमिका और चुनौतियां
लेकिन नागरिक पत्रकारिता की राह इतनी आसान नहीं है। मुख्यधारा के मीडिया ने इसे अपने अंदर समाहित कर लेने के लिए कोशिशें शुरू कर दी हैं। सीएनएन-आईबीएन और दूसरे टीवी चैनल जिस नागरिक पत्रकारिता को प्रोत्साहित कर रहे हैं, वह नागरिक पत्रकारिता की लोकतांत्रिक भावना और संघर्ष को जगह देने के बजाय उसके रूप या फार्म को जगह देने की कोशिश है। कहने का तात्पर्य यह है कि चैनल के अपने अलोकतांत्रिक चरित्र और स्वरूप में बदलाव के बजाय प्रतीकात्मक तौर पर कुछ नागरिकों की ओर से किसी बड़ी घटना या मामले की कोई एक्सक्लूसिव वीडियो या फिल्म फुटेज भेजने और उसे चैनल पर दिखाने से कोई खास फर्क नहीं पड़नेवाला है।
दरअसल, एक मायने में मुख्यधारा के समाचार चैनल अपने ऑडियंस को एक खास तरह की नागरिक पत्रकारिता के लिए प्रेरित कर रहे हैं जिसमें उनका जोर ऐसे अजीबोगरीब, अटपटे और चौंकानेवाले वीडियो क्लिप पर होता है जिसका कोई सार्वजनिक महत्व नहीं है। वे एक तरह से अपने दर्शकों को उन्हीं समाचारीय मानदंडों और सोच के अनुरूप खबरें और वीडियो भेजने के लिए तैयार कर रहे हैं जिसके प्रतिरोध में नागरिक पत्रकारिता खड़ी हुई है। इसका नतीजा यह हुआ है कि चैनलों को दर्शकों से इस तरह के एक्सक्लूसिव लेकिन अटपटे फुटेज मिल रहे हैं जिनका सार्वजनिक जीवन से कोई खास ताल्लुक नहीं है। अगर बहुत हुआ तो उनका संबंध कुछ सार्वजनिक समस्याओं से है लेकिन वे कहीं से उन सार्वजनिक नीतियों को निशाना नहीं बनाते जो नागरिक पत्रकारिता के एजेंडे पर होना चाहिए। चाहे वह मुंबई की जबरदस्त बारिश और बाढ हो या दिल्ली में पहाड़गंज में बम विस्फोट या फिर दिल्ली में ओबराय फ्लाई ओवर पर कार में आग जैसी कई घटनाओं की तस्वीरें चैनलों पर दर्शकों द्वारा भेजी गई वीडियो क्लिप के जरिए ही दिखाई गयीं।
लेकिन इससे चैनलों के समाचार प्रस्तुति में मौजूद लोकतांत्रिक घाटे पर कोई असर नहीं पड़ा बल्कि उल्टे चैनलों ने नागरिक पत्रकारों को बड़ी चतुराई के साथ इस्तेमाल कर लिया। असल में, हाल के वर्षों में संचार माध्यमों की तकनीक में विकास और उनके व्यापक प्रसार के बाद आम लोगों के हाथ में भी ऐसे उपकरण जैसे कैमरा फोन, हैंडीकैम आदि आ गए हैं जो अब तक चैनलों के पास थे। आमतौर पर जब कोई बड़ी घटना या दुर्घटना होती है तो संयोगवश बहुतेरे दर्शक वहां मौजूद होते हैं और उनमें से कई अपने कैमरा फोन या हैंडीकैम से उसकी तस्वीरे भी उतारने में कामयाब हो जाते है। चूंकि अचानक होनेवाली घटनाओं के समय चैनलों के पत्रकारों और कैमरा टीमों का वहां होना संभव नहीं होता है तो उस समय इस तरह की एमेच्योर वीडियो फुटेज की भी मांग बढ़ जाती है। यह भी नागरिक पत्रकारिता का एक रूप है लेकिन इसमें नागरिक के विचारों और सरोकारों की भूमिका कम और घटनात्मक संयोग की भूमिका अधिक है।
इसी का एक और पहलू यह है जिसमें लोग अपने कैमराफोन या हैंडीकैम के जरिए जानेमाने लोगों यानी सेलिब्रीटीज की तस्वीरे कई बार चोरी-छिपे और कई बार खुलकर उतारते हैं और सेलिब्रीटीज के ऑब्सेशन से ग्रस्त चैनल उन्हें खुशी-खुशी दिखाते भी है। लेकिन यह नागरिक पत्रकारिता का विकृत रूप है। इसीलिए इसे पैपराज्जी की तर्ज पर पीपुलराज्जी भी कहा जाता है। इसमें सेलिब्रीटीज के निजी जीवन में तांकझांक की कोशिश को साफ देखा जा सकता है। इस तरह की विकृत पत्रकारिता का एक चर्चित मामला कुछ साल पहले तब सामने आया था जब कुछ चैनलों ने कैमरा फोन से खींचे गए दो मुंबइया फिल्मी सितारों- करीना और शाहिद कपूर के किसी होटल में चुंबन लेते दृश्य को जोरशोर से दिखाया था।
निश्चय ही, यह नागरिक पत्रकारिता नहीं है। इस मायने में करीना और शाहिद कपूर के प्रकरण को चैनलों पर दिखाने का विरोध बिल्कुल ठीक था। उस घटना के बाद इक्का-दुक्का प्रसंगों को छोड़कर आमतौर पर मीडिया ने ''पीपुलराज्जी पत्रकारिता`` को बढ़ावा नहीं दिया। लेकिन हाल के दिनों में समाचार माध्यमों के बीच बढ़ती व्यावसायिक प्रतियोगिता ने ऐसे वीडियो क्लिपों की मांग को बढ़ा दिया है जिसमें सेलीब्रिटी के निजी जीवन में तांक-झांक करने से लेकर अजीबोगरीब और हैरत अंगेज कारनामों को दिखाया गया हो। एक प्रमुख चैनल ने हाल में एक कैमरा फोन से खींची गई एक ऐसी कार की तस्वीरें घंटों दिखाईं जिसके बारे में दावा किया गया कि वह कार बिना ड्राइवर के चल रही है। जबकि सच्चाई यह थी कि चैनल को पहले से पता था कि यह एक ट्रिक है और उसे दिखाकर दर्शकों को मूर्ख बनाया जा रहा है। यहां यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि उस चैनल ने वह वीडियो क्लिप काफी भारी भरकम रकम चुकाकर खरीदी थी।
यह एक तरह से अपने दर्शकों को भ्रष्ट बनाने की भी कोशिश है। यह नागरिक पत्रकारिता के लिए एक चुनौती है। इस मामले में नागरिक पत्रकारों के साथ-साथ चैनलों को भी अतिरिक्त सतर्कता बरतने की जरूरत है। खासकर समाचार माध्यमों में यही पर गेटकीपरों यानि संपादकों की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। उन्हें न सिर्फ नागरिकों द्वारा भेजे गए ऐसे वीडियो फुटेज को हतोत्साहित करना चाहिए बल्कि नागरिकों की ओर से मिलनेवाले हर वीडियो फुटेज/खबर की पूरी छानबीन और जांचपड़ताल करनी चाहिए। एक्सक्लूसिव फुटेज चलाने की हड़बड़ी में चैनल के गेटकीपरों द्वारा पारंपरिक पत्रकारिता के सिद्धांतों को कतई अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन ऐसा लगता है कि मुख्यधारा के समाचार संगठन प्रोफेशनल पत्रकारिता के उसूलों को भी भूल गए हैं।
नागरिक पत्रकारिता : संभावनाएं और चुनौतियां
हालांकि भारत में नागरिक पत्रकारिता की अभी उस तरह से शुरूआत नहीं हुई है जैसे दुनिया के कई देशों में उसने अपनी अलग पहचान बनाई है। इसके बावजूद भारत में नागरिक पत्रकारिता की संभावनाएं असीमित हैं। निश्चय ही इन संभावनाओं के द्वार खोलने के लिए पहले संगठित नागरिक समूहों और आंदोलनो को आगे आना पड़ेगा। यह सचमुच अफसोस और चिंता की बात है कि देश में नागरिक आंदोलनो और नागरिक समाज के संगठनो के विस्तार के बावजूद उनकी चिंता और कार्यक्रमों के दायरे में व्यापक समाज के साथ सूचनाओं के आदान-प्रदान और अपने मुद्दों और सरोकारों को एजेंडे पर लाने की वैसी कोशिश नहीं दिखाई पड़ती है जिसकी जरूरत काफी अरसे से महसूस की जा रही है।
निश्चय ही, नागरिक आंदोलनो और संगठनों को इस ओर ध्यान देना पड़ेगा। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में ऐसी कुछ पहलकदमियां हुई हैं लेकिन अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। इस सिलसिले में सूचना के अधिकार ने नागरिक पत्रकारिता के लिए नए रास्ते खोल दिए है। दुनिया के और देशों में नागरिक पत्रकारिता को लेकर किए जा रहे प्रयोगों से भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है। जगह की कमी के कारण यहां उन सब की चर्चा तो संभव नहीं है लेकिन कुछ ऐसे प्रासंगिक उदाहरणों की चर्चा जरूरी है जिनको हम एक मॉडल मान सकते हैं :
दक्षिण कोरिया में ''ओहमाइन्यूज`` नागरिक पत्रकारिता का व्यावसायिक रूप से भी एक सफल उदाहरण है। फरवरी 2000 में ओह युन-हो ने इसकी स्थापना की थी और इसका ध्येय वाक्य है- ''हर नागरिक एक रिपोर्टर है।`` ''ओहमाइन्यूज`` की कुल सामग्री में से लगभग 80 फीसदी उन हजारों नागरिक पत्रकारों से आती है जो देश के कोने-कोने में और दुनिया के विभिन्न देशों में फैले हुए है और 20 प्रतिशत सामग्री इसमें काम करनेवाले प्रोफेशनल पत्रकारों द्वारा लिखी जाती है। ''ओहमाइन्यूज`` के नागरिक पत्रकार वास्तव में आम नागरिक है और पत्रकारिता उनका पेशा नहीं है। लेकिन वे अपने इलाके और आस-पास की समस्याओं और घटनाओं पर रिपोर्ट और टिप्पणियां लिखते हैं।
नागरिक पत्रकारिता का एक और रूप वे ब्लॉग्स हैं जिनमें व्यक्तिगत से लेकर विभिन्न क्षेत्रों और व्यवसायों की चिंताओं और सरोकारों को उठाया जा रहा है, उन पर चर्चा हो रही है और कई बार सामूहिक कार्रवाइयां भी हो रही है। ऐसे बहुतेरे ब्लॉग भारत में भी सक्रिय हैं। उनके बीच नेटवर्किंग बढ़नी चाहिए और आपसी संवाद को प्रोत्साहित करना चाहिए।
मुख्यधारा के मीडिया में नागरिक पत्रकारिता का हस्तक्षेप कई रूपों में सामने आ रहा है। उसका एक रूप तो यह है कि समाचार माध्यम अपने वेबसाइट पर कुछ रिपोर्टों, लेखों, संपादकीयों और खबरों को पाठकों की टिप्पणियों के लिए खोल रहे हैं। पाठक इन रिपोर्टों आदि को पढ़ने के बाद उस पर अपनी टिप्पणी दर्ज कर सकते हैं और साथ ही अन्य पाठकों की टिप्पणियों पर भी चर्चा कर सकते हैं। इसके अलावा समाचार माध्यम अपने पाठको को इन रिपोर्टों आदि की रेटिंग करने के लिए भी कह रहे हैं।
मुख्यधारा के समाचार माध्यमों में इसका एक और रूप इस तरह भी सामने आ रहा है जिसमें समाचार माध्यम अपने पाठको को अपने किसी प्रोफेशनल रिपोर्टर या लेखक की खबर, रिपोर्ट और फीचर पर न सिर्फ टिप्पणी करने के लिए बल्कि उसमें कुछ नयी जानकारियां या सूचनाएं जोड़ने के लिए कह रहे हैं। इसके जरिए समाचार माध्यम दरअसल अपने पाठको और दर्शकों को यह मौका दे रहे हैं कि वे किसी घटना या मसले पर उसकी कवरेज को और व्यापक और सघन बना सकें।
तात्पर्य यह कि नागरिक पत्रकारिता में असीमित संभावनाएं हैं। लेकिन उसके सामने चुनौतियां भी कम नहीं है। मुख्यधारा के मीडिया की सबसे बड़ी शिकायत ही यह है कि नागरिक पत्रकारिता, पत्रकारिता के कई बुनियादी सिद्धांतों जैसे वस्तुनिष्ठता, तथ्यपरकता, निष्पक्षता और संतुलन आदि का ध्यान नहीं रखती है। इसमें कुछ हद तक सच्चाई है। कई बार कुछ पाठक ब्लॉग्स आदि में न सिर्फ अश्लील टिप्पणियां करते हैं बल्कि व्यक्तिगत आक्षेप पर भी उतर आते है। इस तरह की प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने के लिए नागरिक पत्रकारिता में सक्रिय गंभीर और ईमानदार लोगों के अलावा गेटकीपरों को आगे आना पड़ेगा। लेकिन इस सब के बावजूद नागरिक पत्रकारिता को अब रोक पाना संभव नहीं है।
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