बुधवार, सितंबर 26, 2007

एक कदम आगे दो कदम पीछे

एक कदम आगे दो कदम पीछेऐसा लगता है कि यूपीए सरकार प्रगतिशील और जनहित से जुड़े मामलों में एक कदम आगे और दो कदम पीछे चलने की आदी हो गई है। इस तरह वह घूम-फिरकर जहां से चली थी, उससे पीछे पहुंचती दिख रही है। ताजा मामला सूचना के अधिकार कानून से जुड़ा हुआ है। मनमोहन सिंह सरकार ने भ्रष्ट राजनेताओं और नौकरशाहों के दबाव में सूचना के अधिकार कानून में संशोधन कर फाइलों पर की जाने वाली नोटिंग को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर करने का फैसला किया है। इस संशोधन के बाद अब केवल विकास और सामाजिक मामलों से जुड़ी फाइलों की नोटिंग ही सूचना के अधिकार के तहत उपलब्ध होगी। इस तरह सरकार ने एक ही झटके में महत्वपूर्ण मामलों में नीति निर्णय की प्रक्रिया को एक बार फिर गोपनीयता के पर्दे में बंद कर नौकरशाही को मनमानी करने की खुली छूट दे दी है।


निश्चय ही, इस फैसले से सूचना के अधिकार की आत्मा को गहरा धक्का लगा है और भ्रष्ट तंत्र में इसका बहुत गलत और नकारात्मक संदेश जाएगा। अफसोस की बात यह है कि लोकतंत्र की दुहाइयां देनेवाली यूपीए सरकार ने यह फैसला करने से पहले न तो केन्द्रीय सूचना आयोग से सलाह-मशविरा किया और न ही उन जन संगठनों को विश्वास में लिया जो सूचना के अधिकार को भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकप्रिय हथियार बनाने में सक्रिय हैं। हैरत की बात यह है कि यूपीए सरकार का यह फैसला केन्द्रीय सूचना आयोग के इस साल ३१ जनवरी के उस निर्णय के बाद आया है जिसमें उसने फाइलों पर की जानेवाली नोटिंग को सूचना के अधिकार के तहत मुहैया कराने को कहा था।


वैसे यह बात किसी से छुपी नहीं थी कि नौकरशाही शुरू से न सिर्फ इस प्रावधान का खुलकर विरोध कर रही थी बल्कि उसने सूचना का अधिकार कानून लागू होने के बाद भी हर संभव कोशिश की कि फैसलों और नीति निर्णयों से संबंधित फाइलों पर की जानेवाली टिप्पणियों को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रखा जाए। लेकिन इस मामले में केन्द्रीय सूचना आयोग के प्रतिकूल फैसले के बाद नौकरशाही और राजनेताओं के भ्रष्ट गठजोड़ ने मनमोहन सिंह सरकार को बाध्य कर दिया कि वह सूचना के अधिकार कानून के लागू होने के दस महीनों के अंदर ही कानून में संशोधन करके उसे निरर्थक बनाने पर तुल गई है।


दरअसल, नौकरशाही सूचना के अधिकार के कानून की बढ़ती लोकप्रियता और बड़े पैमाने पर जनसंगठनों और नागरिको की ओर से सूचनाओं की मांग और उनकी सक्रियता से घबरा गई है। ऐसा लगता है कि स्वयं यूपीए सरकार को यह कानून बनाते हुए यह उम्मीद थी कि लोग इसका बहुत कम इस्तेमाल करेंगे और कुल मिलाकर यह एक दिखावटी कानून होगा। लेकिन उसकी यह सोच गलत साबित हुई। हालांकि अभी वह इस कानून के कारण किसी बड़ी मुसीबत में नहीं फंसी है लेकिन लोगों की सक्रियता के कारण इसके आसार जरूर पैदा हो गए थे। बोफर्स मामले में अरूण जेतली ने सूचना के अधिकार के तहत क्वात्रोकी से जुड़ी कुछ सूचनाएं मांगी थी। इसी तरह नागरिक संगठनों ने गुजरात नरसंहार के दौरान तत्कालीन राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच हुए पत्र व्यवहार को सार्वजनिक करने की मांग की हुई थी। जाहिर है कि यह तो शुरूआत थी और नौकरशाही को यह भय होने लगा था कि आने वाले दिनों में ऐसी सूचनाओं की मांग बढ़ेगी और उसे नकारना मुश्किल होगा।


कहने की जरूरत नहीं है कि किसी भी निर्णय तक पहुंचने या किसी नीति को बनाने की प्रक्रिया में शामिल नौकरशाहों और मंत्रियों ने क्या कहा या टिप्पणी की, यह जानना बहुत जरूरी है। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान ही अधिकारी और मंत्री मनमानी और अनियमितता बरतते हैं। फाइलों पर की गई नोटिंग को सूचना के अधिकार के तहत खोलने से अधिकारियों और मंत्रियों की जवाबदेही तय करना और उस पूरी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाना आसान हो जाता। इसके जरिए ही किसी अधिकारी के फैसलों या कोई फैसला न लेने और अनिर्णय की जिम्मेदारी तय की जा सकती है। जाहिर है कि फाइलों पर की गई नोटिंग को सूचना के दायरे से बाहर करके सूचना के अधिकार को एक तरह से बेमानी बना दिया गया है।


आखिर फाइलों पर की गई नोटिंग को गोपनीय बनाकर और सिर्फ फैसले को सूचना के अधिकार के तहत सार्वजनिक करने का क्या अर्थ है ? इससे तो किसी अधिकारी या मंत्री की जवाबदेही नहीं तय हो सकती है। अब कोई नागरिक किसी सरकारी विभाग या अफसर से यह सवाल कैसे पूछ सकता है कि फलां काम क्यों नहीं हुआ या किस कारण उसमें देर हुई या हो रही है ? साफ है कि इस अधिकार के बिना सूचना के अधिकार का कानून नखदंतविहीन हो गया है। जिन लोगों को उम्मीद थी कि सूचना का अधिकार सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार, काहिली और अनियमितताओं पर रोक लगाने का एक सशक्त हथियार साबित होगा, उन्हें यूपीए सरकार के इस फैसले से निश्चय ही बहुत निराशा होगी। इस फैसले से साफ हो गया है कि मनमोहन सिंह सरकार जिस सुशासन और उसके लिए जरूरी पारदर्शिता की दुहाइयां देती रहती है, उसके प्रति उसकी प्रतिबद्धता किस हद तक है ?


इस मामले में यूपीए सरकार का यह तर्क न सिर्फ खोखला बल्कि तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया तर्क है कि अमेरिका, ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया में भी सूचना के अधिकार के तहत फाइलों पर की गई नोटिंग को सूचना के दायरे से बाहर रखा गया है। तथ्य यह है कि अमेरिका में फैसलों और नीतियों पर पहुंचने की प्रक्रिया में की गई टिप्पणियों को केवल तब तक सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रखा गया है, जब तक कि फैसला नहीं हो जाता। फैसला हो जाने के बाद उसे सार्वजनिक किया जा सकता है। इसी तरह आस्ट्रेलिया में भी केवल उन्हीं सूचनाओं को सार्वजनिक नहीं किया जाता जिसके बारे में एजेंसी यह साबित कर दे कि यह जानकारी सार्वजनिक हित में नहीं है और यह किसी व्यक्ति के निजी या बिजनेस से संबंधित मामला है।


यह सचमुच अफसोस और चिंता की बात है कि सूचना के अधिकार के जिस कानून को यूपीए सरकार ने इतने धूमधाम के साथ पेश किया और उसे अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि बताती रही है, उसे ही वह सालभर से भी कम समय में खत्म करने पर तुल गई है। इससे उसकी असलियत सामने आ गई है। उसने अपने को प्रगतिशील और ईमानदार सरकार की तरह पेश करने की कोशिश की लेकिन जैसे ही उसकी प्रगतिशीलता भ्रष्ट तंत्र के लिए चुनौती बनने लगी, उसने प्रगतिशीलता और पारदर्शिता के लबादे को उतार फेंकने में समय बिलकुल नहीं लगाया।


वैसे भी सूचना का अधिकार कानून बनाने के बावजूद उसके प्रति यूपीए सरकार की प्रतिबद्धता हमेशा ही संदेह के घेरे में रही है। उसने और अन्य राज्य सरकारों ने शुरू से ही इस कानून को लागू करने में जिस तरह से लगातार अडचने पैदा कीं, उससे साफ था कि पारदर्शिता का यह ढोंग बहुत दिनों तक नहीं चलने वाला है। क्या यह हैरत की बात नहीं है कि कानून लागू होने के दस महीनों बाद भी कई राज्यों में सूचना आयोग के गठन का काम अधूरा है। इसी तरह सभी लोक प्राधिकरणों में जनसूचना अधिकारी की नियुक्ति नहीं की गई है जिसके कारण नागरिकों को सूचना हासिल करने में अब भी काफी मुश्किल हो रही है। यही नहीं इस कानून की धारा ४(१) (ख) के तहत विभिन्न सूचनाओं को स्वत: सार्वजनिक करने का काम भी नहीं किया जा रहा है। यही हाल रहा तो सूचना का अधिकार एक मजाक बनकर रह जाएगा। यूपीए सरकार शायद यही चाहती है।

कोई टिप्पणी नहीं: