भारत में सरकारें जरूर बदलती हैं लेकिन नौकरशाही और उसके कामकाज का तरीका नहीं बदलता। औपनिवेशिक सांचे में ढली भारतीय नौकरशाही के प्राण गोपनीयता में बसते है। हालांकि गोपनीयता और लोकतंत्र के बीच छत्तीस का संबंध है लेकिन भारत में नौकरशाही लोकतंत्र को गोपनीयता के पर्दे से बाहर नहीं आने देना चाहती। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि गोपनीयता की आड़ में नौकरशाही के सौ खून माफ हैं। उसे गोपनीयता का सहारा लेकर मनमानी करने की छूट मिली हुई है। चूंकि सच्चाई कभी गोपनीय फाइलों से बाहर नहीं आ पाती है इसलिए नौकरशाही को किसी को खासकर आम नागरिकों को जवाब भी नहीं देना पड़ता है।
स्वाभाविक है कि नौकरशाही हर उस कोशिश का पुरजोर विरोध करती है जो गोपनीयता के बजाय पारदर्शिता और खुलेपन की वकालत करती है। वह अब तक काफी हद तक सफल भी रही है। दरअसल, गोपनीयता उसकी आदत बन चुकी है। समय बदलने के बावजूद वह यह आदत छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। ठीक भी है। आखिर वह उन अधिकारों को आसानी से कैसे छोड़ सकती है जिनसे उसे साठ साला लोकतंत्र में भी जनता के सेवक की नहीं बल्कि मालिक की हैसियत मिली हुई है। लेकिन पिछले ६० सालों में गंगा-जमुना में बहुत पानी बह चुका है। देश में सरकारी कामकाज और नौकरशाही को पारदर्शी बनाने का जनदबाव बढ़ता जा रहा है।
इस मांग को शासन-प्रशासन में उपर से लेकर नीचे तक फैले भ्रष्टाचार के कारण और बल मिला है। भ्रष्टाचार को गोपनीयता के आवरण में ही फलने-फूलने का मौका मिलता है। दोनों के बीच चोली-दामन का साथ है। आश्चर्य नहीं कि भारतीय नौकरशाही दुनिया की सबसे भ्रष्ट नौकरशाही में से एक है। अंतर्राष्ट्रीय संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल पिछले कई सालों से भारतीय नौकरशाही को दुनिया की दस सबसे भ्रष्ट नौकरशाहियां में शुमार करती रही है। इससे यह पता चलता है कि भारतीय नौकरशाही गोपनीयता से इतना प्रेम क्यों करती है।
इसी गोपनीयता प्रेम के कारण नौकरशाही ने पहले सूचना के अधिकार के कानून को रोकने की कोशिश की। जब वह उसमें कामयाब नहीं हुई तो उसने इस कानून के साथ छेड़छाड़ करने और उसे निष्प्रभावी बनाने के लिए फाइल नोटिंग को इस कानून के दायरे से बाहर करने की मुहिम छेड़ रखी है। उसका वश चले तो वह सूचना के अधिकार के कानून को उठाकर कूडेद़ान में फेंक दे। सूचना के अधिकार के कानून को लागू करने के रास्ते में हर तरह का अड़ंगा लगाने में जुटी नौकरशाही के निशाने पर अब एक और नया कानून है।
ताजा मामला सरकारी कामकाज में अनियमितता और भ्रष्टाचार को रोकने के लिए बन रहे उस कानून का है जिसमें उन सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को कानूनी संरक्षण देने का प्रावधान किया गया है जो भ्रष्टाचार और अनियमितता की जानकारी को सार्वजनिक करेंगे। लोकप्रिय शब्दावली में कहें तो यह चोर को देखकर सिटी बजाकर लोगों को पहले सावधान करनेवाले चौकीदार को संरक्षण देने का कानून है। दरअसल, ऐसे किसी कानून की काफी लंबे समय से मांग उठ रही थी जो सरकारी विभागों में जारी भ्रष्टाचार और अनियमितता को सामने लाने के लिए ईमानदार और सचेत अधिकारियों और कर्मचारियों को खुलकर अपनी बात कहने की हिम्मत दे सके।
ऐसे किसी कानून के अभाव में ईमानदार अधिकारी और कर्मचारी भ्रष्टाचार और अनियमितता को देखकर भी चुप रहते थे क्योंकि उन्हें सरकारी गोपनीयता कानून के उल्लंघन और वरिष्ठ और भ्रष्ट अधिकारियों से उत्पीड़न की आशंका सताती रहती थी। भारतीय राजमार्ग प्राधिकरण के इंजीनियर सत्येन्द्र दुबे और इंडियन ऑयल के वरिष्ठ मैनेजर मंजुनाथ की हत्या के बाद इस मांग ने और जोर पकड़ा क्योंकि उनकी हत्या की वजह यह मानी गई कि उन्हें अपने विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने की सजा मिली है। संयोग से सत्येन्द्र दुबे आईआईटी और मंजुनाथ आईआईएम के छात्र रह चुके थे और इन दोनों संस्थाओं के पूर्व छात्रों ने ऐसे अधिकारियों को कानूनी संरक्षण देने के लिए एक देशव्यापी अभियान चलाया।
इससे नौकरशाही और खासकर राजनीतिक नेतृत्व पर एक दबाव बना कि वह ईमानदार अधिकारियों के संरक्षण के लिए एक ऐसा कानून बनाए जो उन्हें अपने विभागों में जारी भ्रष्टाचार और अनियमितता के खिलाफ खुलकर और सार्वजनिक तौर पर बोलने की आजादी दे सके। कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे किसी कानून मात्र से भ्रष्टाचार और अनियमितता को पूरी तरह से खत्म नहीं किया जा सकता है क्योंकि भ्रष्टाचार अब कुछ अधिकारियों और कर्मचारियों तक सीमित परिघटना न होकर इस व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा बन चुकी है। यह व्यवस्था इतनी भ्रष्ट और सड़ चुकी है कि इसमें शामिल होते ही अधिकांश अधिकारी और कर्मचारी खुद को बहुत दिनों तक इससे अलग नहीं रख पाते हैं।
इसलिए यह भ्रम पालना ठीक नहीं है कि इस कानून के बनते ही तमाम सरकारी विभागों में क्रांति हो जाएगी और भ्रष्ट अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ उनके सहकर्मी सिटी बजाने लगेंगे। कानूनी संरक्षण की हकीकत सभी को पता है। इसके बावजूद नौकरशाही इस कानून की संभावना मात्र से भयभीत दिख रही है और इसे रोकने के लिए तमाम कुतर्क दे रही है। अभी यह विधेयक मंत्रियों के एक समूह के पास विचार के लिए पड़ा है लेकिन कई महीने गुजर जाने के बावजूद मंत्री समूह इस विधेयक का स्वरूप इसलिए तय नहीं कर पा रहा है क्योंकि उसपर नौकरशाही का जबरदस्त दबाव है।
नौकरशाही की यह दलील है कि इस कानून का दुरूपयोग करके वरिष्ठ अधिकारियों और कर्मचारियों को बदनाम और परेशान किया जा सकता है।
उसका यह भी कहना है कि इस कानून के बनने के बाद सरकारी दफ्तरों में काम करना बहुत मुश्किल हो जाएगा क्योंकि अधिकारियों को सख्त फैसले लेने में हिचक होने लगेगी। नौकरशाही का यह भी तर्क है कि इस कानून का फायदा उठाकर अधिकारी और कर्मचारी न सिर्फ अपने वरिष्ठ अधिकारियों से हिसाब-किताब साफ करने लगेंगे बल्कि सरकारी गोपनीयता कानून या अन्य समझौतों या संविदा को सार्वजनिक करके निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करने लगेंगे।
कहने की जरूरत नहीं है कि ये सभी आशंकाएं निर्मूल हैं। यह एक भ्रष्ट नौकरशाही द्वारा खुद को बचाने के लिए गढ़े गए ऐसे तर्क हैं जिनका कोई आधार नहीं है। इस कानून से ईमानदार और नियमों के अनुसार चलनेवाले अधिकारियों और कर्मचारियों को डरने की कोई वजह नहीं है। सच तो यह है कि यह कानून ऐसे सभी अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए एक ऐसी ढाल बन सकता है जिन्हें गलत कामों के लिए हमेशा राजनीतिक और दूसरे किस्म के दबाव झेलने पड़ते हैं। यही नहीं, इस कानून में इसके दुरूपयोग को रोकने का भी प्रावधान है। इसलिए इस कानून के खिलाफ दिए जा रहे तर्कों में कोई दम नहीं है।
इसके बावजूद मंत्रियों का समूह नौकरशाही के दबाव में कोई फैसला नहीं ले पा रहा है। राजनीतिक नेतृत्व की यह लड़खड़ाहट आश्चर्यजनक नहीं है। यह किसी से छुपा नहीं है कि भ्रष्ट नौकरशाही को भ्रष्ट राजनीतिक नेतृत्व का पूरा संरक्षण प्राप्त है। सच तो यह है कि नौकरशाही और राजनीतिक नेतृत्व का एक ऐसा भ्रष्ट गठजोड़ बन चुका है जो सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाने की हर कोशिश को नाकामयाब बनाने पर तुला हुआ है। हालांकि ऐसा करते हुए वह यह भी दिखाने की कोशिश करता है कि वह पारदर्शिता के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध है। लेकिन वह इस प्रतिबद्धता को दिखावे से आगे ले जाने के लिए तैयार नहीं है।
यही कारण है कि वह दिखावे के लिए सूचना के अधिकार और व्हिसलब्लोअर जैसे कानून तो बनाता है लेकिन उसपर अमल के रास्ते में हर संभव अडंगे लगाने में जुटा रहता है। सवाल यह है कि क्या एक बार फिर मंजूनाथ और सत्येन्द्र दुबे का बलिदान व्यर्थ जाएगा ? आखिर गोपनीयता के आवरण को भेदने के लिए और कितने मंजूनाथों और सत्येन्द्र दुबेओं को अपनी बलि देनी पड़ेगी?
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