गुमनाम सूत्रों का इस्तेमाल करते हुए पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों की उपेक्षा ठीक नहीं है।
रिपोर्टिंग में गुमनाम स्रोतों के इस्तेमाल का मुद्दा एक बार फिर सुर्खियों में है। इस बार भी विवादों के केंद्र में अमेरिका के सबसे प्रतिष्ठित समाचारपत्र और 'न्यूजपेपर ऑफ रिकार्डस` कहे जाने वाले 'न्यूयार्क टाइम्स` और उसकी पत्रकार जुडिथ मिलर हैं। मिलर अभी हाल में ही अपनी एक खबर के स्रोत की पहचान का खुलासा न करने के कारण ८५ दिन जेल में रहकर लौटी हैं। सरसरी तौर पर देखने पर ऐसा लगता है कि स्रोत की गोपनीयता बनाए रखने के लिए मिलर ने जेल जाना कबूल किया लेकिन स्रोत की पहचान नहीं उजागर की। इसी आधार पर कुछ लोग मिलर को शहीद के रूप में पेश कर रहे हैं। आखिर पत्रकारिता के कुछ सबसे बुनियादी उसूलोंं में से एक उसूल स्रोत की गोपनीयता बनाए रखने का है।
लेकिन अमेरिकी मीडिया और पत्रकारों का एक बड़ा हिस्सा मिलर को शहीद के बजाय खलनायक मानता है। यहां तक कि हाल-हाल तक उनके साथ खड़े 'न्यूयार्क टाइम्स` के संपादक और प्रकाशक ने भी उनका साथ छोड़ दिया है। मिलर शहीद हैं या खलनायक-इस सवाल का उत्तर जानने से पहले यह जानना जरूरी है कि पूरा मसला क्या है ? मामला यह है कि जब बुश प्रशासन इराक पर हमले की तैयारी कर रहा था और इसके लिए इराक के खिलाफ आरोपपत्र तैयार कर रहा था तो उसने इराक पर एक आरोप यह भी लगाया था कि जनसंहार के हथियार तैयार करने के लिए उसने अफ्रीकी देश नाइजर से चोरी-छुपे यूरेनियम मंगवाया था। लेकिन इस बारे में सबूत इकट्ठा करने के लिए सीआईए की ओर से नाइजर भेजे गए अमेरिकी राजदूत जोसफ विल्सन ने अपनी जांच में इस आरोप को फर्जी पाया। उन्होंने बाद में 'न्यूयार्क टाइम्स` में एक लेख लिखकर इस आरोप को झूठा बताते हुए खुलासा किया कि बुश प्रशासन ने इराक पर हमले के पक्ष में जनमत तैयार करने के लिए खुफिया सूचनाओं में तोड़-मरोड़ की है।
विल्सन के इस खुलासे से बुश प्रशासन बौखला गया और इराक पर हमले के कुछ प्रमुख सूत्रधारों ने जवाबी हमले में जुडिथ मिलर जैसे कुछ चहेते पत्रकारों के जरिए यह खबर लीक की कि विल्सन की पत्नी वैलरी प्लेम सीआईए की अधिकारी हंै और उन्होंने जानबूझकर एक पूर्व डेमोक्रेट विल्सन को नाइजर भेजा था। इस लीक के गुमनाम स्रोतों के हवाले से पत्र-पत्रिकाओं में छपने के बाद हंगामा हो गया क्योंकि अमेरिकी कानूनों के मुताबिक खुफिया सेवा में काम करने वाले एजेंट की पहचान उजागर करना अपराध है। यह सवाल उठा कि वैलेरी प्लेम की पहचान किसने उजागर की ? दबाव बढ़ने के बाद इसकी जांच के लिए कानून मंत्रालय ने सरकारी वकील पैट्रिक फिट्जेराल्ड को नियुक्त किया।
फिट्जेराल्ड ने जुडिथ मिलर सहित कुछ और पत्रकारों को नोटिस भेजकर गवाही के लिए बुलाया और उनसे अपने स्रोत की पहचान बताने के लिए कहा। लेकिन जुडिथ मिलर को छोड़कर अधिकांश पत्रकारों ने सरकारी वकील के साथ सहयोग किया। मिलर ने स्रोत की पहचान उजागर करने से साफ मना कर दिया। इस कारण मिलर को जेल जाना पड़ा।
लेकिन फिट्जेराल्ड ने इस मामले की पूरी सक्रियता से छानबीन की और अंतत: यह स्पष्ट हो गया कि उपराष्ट्रपति डिक चेनी के चीफ ऑफ स्टॉफ आई लुइस 'स्कूटर` लिबी और राष्ट्रपति बुश के चीफ ऑफ स्टॉफ कार्ल रोव ने ये सूचना लीक की थी। हालांकि जांच अभी जारी है लेकिन स्कूटर लिबी को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा है। इस बीच मिलर जेल से बाहर आ गई हैं लेकिन उनकी रिपोर्टिंग और स्रोतों के इस्तेमाल के तौर-तरीकों को लेकर विवाद बढ़ता ही जा रहा है। यहां तक कि 'न्यूयार्क टाइम्स` के संपादक बिल केलर ने एक आंतरिक मेमो में स्वीकार किया है कि मिलर ने स्रोतों के मामले में उन्हें भी गुमराह किया। 'न्यूयार्क टाइम्स` के पब्लिक एडीटर यानी पाठकों के संपादक बायरन काल्मे ने मिलर की रिपोर्टिंग के तौर-तरीको पर सवाल उठाते हुए कहा है कि 'न्यूयार्क टाइम्स` को गुमनाम स्रोतों के इस्तेमाल के मामले में अपनी आचार संहिता के निर्देशों को और बेहतर बनाने की जरूरत है।
दरअसल, वैलेरी प्लेम के मामले के सामने आने से पहले से ही इराक प्रकरण में जुडिथ मिलर की रिपोर्टिंग को लेकर गंभीर सवाल उठते रहे हैं। मिलर पर यह आरोप है कि उन्होंने इराक पर हमले के पक्ष में माहौल तैयार करने के लिए गुमनाम स्रोतों के हवाले से लगातार ऐसी खबरें लिखीं जिनमें दावे के साथ यह कहा गया था कि इराक के पास जनसंहार के हथियार उपलब्ध हैं। 'न्यूयार्क टाइम्स` ने इन खबरों को काफी प्रमुखता से छापा भी। अब यह किसी से नहीं छुपा है कि इराक पर हमले के लिए बेचैन बुश प्रशासन के प्रमुख अधिकारियों और मंत्रियों ने मिलर के जरिए ये विवादास्पद और झूठी सूचनाएं 'न्यूयार्क टाइम्स` में प्लांट करवाई थीं। बुश प्रशासन का मकसद इन खबरों के जरिए युद्ध के पक्ष में जनमत तैयार करना था। कह सकते हैं कि इस मामले में मिलर युद्ध से पहले ही बुश प्रशासन की 'नत्थी पत्रकार` (इम्बेडेड जर्नलिस्ट) के बतौर काम कर रही थी।
लेकिन इस प्रक्रिया में मिलर ने पत्रकारिता के उसूलों की धज्जियां उड़ा दी। उन्होंने बुश प्रशासन द्वारा उपलब्ध कराई गई सूचनाओं की छानबीन करने और उनकी पुष्टि हो जाने के बाद ही खबर लिखने के बजाय गुमनाम और विश्वसनीय सूत्रों के हवाले से बेसिर-पैर की खबरें लिखीं, जिससे बुश प्रशासन को युद्ध के पक्ष में माहौल बनाने में मदद मिली। हालांकि मिलर और 'न्यूयार्क टाइम्स` इस मामले में अकेले नहीं थे और इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर समूचे अमेरिकी कार्पोरेट मीडिया ने युद्ध के पक्ष में माहौल बनाने के लिए इराक और सद्दाम हुसैन के खिलाफ बढ़ा-चढ़ाकर और कई बार बिलकुल झूठी खबरें प्रकाशित कीं। लेकिन 'न्यूयार्क टाइम्स` की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता के कारण मिलर की लिखी खबरें ज्यादा चर्चा में रहीं।
अब जब इराक में जनसंहार के हथियारों के बारे में बुश प्रशासन का सफेद झूठ उजागर हो चुका है तो कार्पोरेट मीडिया को अपनी विश्वसनीयता की चिंता सताने लगी है। यह एक सच्चाई है कि बुश प्रशासन के साथ-साथ अमेरिका में कार्पोरेट मीडिया की विश्वसनीयता भी अपने सबसे निम्नतम बिन्दु पर पहुंच गई है। अमेरिका की प्रतिष्ठित शोध संस्था प्यू रिसर्च के एक सर्वेक्षण के मुताबिक 45 प्रतिशत अमेरिकी अखबारों में छपने वाली खबरों पर बहुत कम या बिलकुल भरोसा नहीं करते। इसका एक बड़ा कारण गुमनाम स्रोतों के जरिए छपने वाली खबरें हैं। पेन्सिल्वानिया विश्वविद्यालय के एनेनबर्ग पब्लिक पॉलिसी सेंटर द्वारा इस साल कराए गए एक सर्वेक्षण में 89 प्रतिशत पाठकों ने यह स्वीकार किया कि गुमनाम स्रोतों पर आधारित खबरों की सत्यता पर संदेह पैदा होता है। यही नहीं, 53 प्रतिशत पाठकों का कहना था कि गुमनाम स्रोतों पर आधारित खबरें छपनी ही नहीं चाहिए।
दरअसल, अमेरिकी पाठक कार्पोरेट समाचार मीडिया द्वारा ताकतवर सैन्य-औद्योगिक गठजोड़ के हितों को आगे बढ़ाने वाले एजेंडे के जनमत तैयार करने के लिए खबरों में तोड़-मरोड़ करने और खबरे प्लांट करने से आजिज आ चुके हैं। खबरों में तोड़-मरोड़ करने और उन्हें प्लांट करने का प्रमुख तरीका गुमनाम स्रोतों का इस्तेमाल है। हाल के वर्षों में अमेरिकी मीडिया में गुमनाम स्रोतों के इस्तेमाल का चलन काफी बढ़ गया है। असल में, गुमनाम स्रोतों के हवाले से लिखी गई अधिकांश खबरें गढ़ी हुई होती हैं और वास्तविक सच्चाई से उनका बहुत कम लेना-देना होता है।
'न्यूयार्क टाइम्स` के एक स्टार पत्रकार जैसन ब्लेयर ने तो इस मामले में हद ही कर दी थी। ब्लेयर ने घर बैठे फर्जी डेटलाइन और सूत्रों के हवाले से दर्जनों खबरें लिख डालीं। बाद में जब उसका भांडा फूटा तो चेहरा बचाने के लिए ब्लेयर को तो निकाला ही गया, 'न्यूयार्क टाइम्स` के कार्यकारी संपादक को भी इस्तीफा देना पड़ा। तब 'न्यूयार्क टाइम्स` ने एलान किया था कि वह गुमनाम सूत्रों के हवाले से खबरें छापने के मामले में कड़ाई बरतेगा। मजे की बात यह है कि न्यूयार्क टाइम्स समेत अधिकांश अखबारों और पत्रिकाओं ने गुमनाम स्रोतों के इस्तेमाल को लेकर नीति बना रखी है। लेकिन हाल के उदाहरणों से जाहिर है कि हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और होते हैं।
अभी ज्यादा समय नहीं गुजरा, इस साल मई में मशहूर समाचार पत्रिका 'न्यूजवीक` ने गुमनाम स्रोत के हवाले से यह खबर छापी कि गुआंतनामो जेल में अमेरिकी सैन्य अधिकारियों ने मुस्लिम कैदियों का मुंह खुलवाने और उनका मनोबल तोड़ने के लिए कुरान का अपमान किया। इस रिपोर्ट के छपने के बाद पूरे मुस्लिम जगत मंे तूफान खड़ा हो गया। विरोध प्रदर्शनों के दौरान पुलिस के साथ संघर्ष में दर्जनों लोग मारे गए और बड़ी संख्या में घायल हुए। इस प्रकरण में बुश प्रशासन ने गुमनाम सूत्रों के हवाले से इतनी संवेदनशील और भड़काऊ रिपोर्ट छापने के लिए 'न्यूजवीक` की कड़ी आलोचना की। बाद में 'न्यूजवीक` ने इस रिपोर्ट को वापस ले लिया और ऐलान किया कि वह भविष्य में गुमनाम सूत्रों के इस्तेमाल के मामले में अधिक सर्तकता बरतेगी। हालांकि बाद में यह बात सच साबित हुई कि गुआंतनामो में कुरान के अपमान और कैदियों के साथ दुर्व्यवहार की घटनाएं हुई थीं।
हैरानी की बात नहीं है कि 'न्यूजवीक` अपनी रिपोर्ट के बचाव में ज्यादा देर खड़ी नहीं रह पाई। अमेरिकी कॉरपोरेट मीडिया की सरकार से नत्थी (एंबेडेड) पत्रकारिता की यही सीमा है। 'न्यूजवीक` या 'न्यूयार्क टाइम्स` उसके अपवाद नहीं हैं। वह अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान और उसके हितों नुकसान नहीं पहुंचा सकते क्योंकि वह स्वयं इस प्रतिष्ठान का उपक्रम है; हालांकि कॉरपोरेट मीडिया अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए तथ्यों की सच्चाई पर जोर देता है, लेकिन हकीकत यह है कि उसे सच वहीं तक मंजूर है जहां तक वह सत्ता प्रतिष्ठान के हितों के लिए खतरा न बन जाए। यही कारण है कि जब सच खतरा बनने लगता है तो कॉरपोरेट मीडिया उसे दबाने या तोड़-मरोड़ कर पेश करने की कोशिश करता है।
बात यहीं खत्म नहीं हो जाती। अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान से नत्थी कॉरपोरेट पत्रकारिता का एक दूसरा पहलू यह है कि प्रतिष्ठान के हितों को पूरा करने के लिए उसे सच से ही परहेज नहीं जरूरत पडे तो झूठ बोलने में भी कोई दिक्कत नहीं होती। नोम चौम्स्की ने ऐसे सैकड़ों उदाहरण दिए हैं और सबसे ताजा मामला इराक पर हमले से पहले युद्ध के पक्ष में जनमत तैयार करने के लिए अमेरिकी कॉरपोरेट मीडिया में छपी वे खबरें हैं जिनमें गुमनाम और सरकारी सूत्रों के हवाले से इराक के पास जनसंहार के हथियार होने का दावा किया गया था।
तब 'न्यूयार्क टाइम्स` और 'न्यूजवीक` ने भी ऐसी कई रिपोर्टें छापी थीं जिनमें इराक के पास जनसंहार के हथियार होने की बात कही गई थीं। लेकिन कुरान के अपमान से संबंधित खबर को फौरन वापस लेने वाले न्यूजवीक ने सच्चाई सामने आने के बावजूद आज तक उन खबरों के लिए माफी नहीं मांगी है।
कॉरपोरेट मीडिया पर निगरानी रखने वाले अमेरिकी संगठन 'फेयर` का यह कहना बिलकुल सही है कि सूत्रों के मामले में कॉरपोरेट मीडिया दोहरा रवैया रखता है। उसके मुताबिक गुमनाम सूत्रों का इस्तेमाल तब तक सही है जब तक कि वह सरकार की अधिकारिक नीति को चुनौती देने की बजाय आगे बढ़ा रहा हो। फेयर के अनुसार अगर आपकी रिपोर्ट पूरी तरह से गलत हो तो भी कोई दिक्कत नहीं है, बशर्ते वह सत्ता प्रतिष्ठान के हितों को पुख्ता कर रही हो। गलत रिपोर्टिंग के कारण होने वाले जानमाल के नुकसान का लेखा-जोखा तभी लिया जाता है तब सत्ता में बैठे लोगों के लिए इसका हिसाब-किताब लेना जरूरी हो।
आश्चर्य नहीं कि बुश प्रशासन ने आज तक इराक के मामले में अमेरिकी मीडिया को रिपोर्टिंग पर कोई सवाल नहीं खड़ा किया और कॉरपोरेट मीडिया में भी इसे लेकर कोई अपराधबोध नहीं दिखता है कि उसकी गलत रिपोर्टिंग के कारण इराक पर हुए हमले के बाद से अब तक वहां एक लाख से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। इसलिए अमेरिकी कॉरपोरेट मीडिया में गुमनाम सूत्रों का इस्तेमाल रोकने को लेकर जारी बहस का एक ही मतलब है और वह यह कि सत्ता प्रतिष्ठान के अंदरूनी अंतर्विरोधों के कारण गुमनाम सूत्रों के हवाले से कॉरपोरेट मीडिया में कभी-कभार छपने वाली खबरों को भी रोकने और दबाने की कोशिश।
अन्यथा इस बात से कौन इंकार करेगा कि रिपोर्टिंग में कई बार गुमनाम सूत्रों का इस्तेमाल बहुत जरूरी हो जाता है और उस पर पूरी तरह से प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है। गुमनाम लेकिन विश्वसनीय सूत्रों से मिली जानकारी और सूचनाएं एक रिपोर्टर को अहम खबरें सामने लाने में मदद करती है। अगर ऐसी सूत्रों से मिली खबरें न छापी जाएं तो अखबार प्रेस विज्ञप्तियों और प्रेस कांफ्रेसों पर आधारित पीआर खबरों से भर जाएंगे। यह एक तथ्य है कि दुनियाभर में सत्ता प्रतिष्ठान के भ्रष्टाचार और अनियमितताओं के खिलाफ खोजी खबरें ऐसे ही विश्वसनीय सूत्रों के हवाले से मिलती हैं जिनकी पहचान गोपनीय रखे बिना ऐसी खबरें निकालना संभव नहीं है।
यह संयोग ही है कि जब गुमनाम स्रोतों के इस्तेमाल को लेकर विवाद बढ़ता जा रहा है, ठीक उस समय अमेरिका के इतिहास में खोजी पत्रकारिता के सबसे बड़े उदाहरण वाटरगेट प्रकरण को सामने लाने वाले पत्रकारों-बॉब वुडवर्ड और कार्ल बर्नस्टीन के सबसे प्रमुख सूत्र-डीप थ्रोट-ने अपनी पहचान खुद ही उजागर की है। कहने की जरूरत नहीं है कि डीप थ्रोट एक विश्वसनीय लेकिन गुमनाम सूत्र था जिसकी मदद से वाटरगेट प्रकरण का खुलासा हुआ और अमेरिका के ताकतवर राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को इस्तीफा देना पड़ा था। वुडवर्ड और बर्नस्टीन ने डीप थ्रोट की गोपनीयता को तीस वर्षों तक छुपाए रखा और अब खुद डीप थ्रोट के खुलासे के बाद दुनिया को यह पता चला है कि वे एफबीआई के तत्कालीन उप प्रमुख मार्क फेल्ट थे।
दोहराने की जरूरत नहीं है कि अगर मार्क फेल्ट ने वे सूचनाएं और जानकारियां न दी होतीं तो वाटरगेट प्रकरण का शायद पूरी तरह से खुलासा नहीं हो पाता। इसकी वजह यह है कि उन सूचनाओं तक केवल मार्क फेल्ट की ही पहुंच थी और बिना उनकी मदद के उनका बाहर आ पाना संभव नहीं था। लेकिन अगर वुडवर्ड और बर्नस्टीन ने उनकी गोपनीयता को छुपाए रखने का वायदा न किया होता तो फेल्ट शायद ही वे जानकारियां देने के लिए तैयार हुए होते। पर यहां यह जोड़ना बहुत जरूरी है कि वुडवर्ड और बर्नस्टीन ने केवल फेल्ट की दी हुई जानकारियों पर भरोसा नहीं किया बल्कि उन्होंने उसे दूसरे स्रोतों से क्रॉसचेक किया या अन्य सूत्रों से मिली हुई जानकारियों की फेल्ट से पुष्टि करवाई।
साफ है कि मसला गुमनाम स्रोतों के इस्तेमाल से ज्यादा उनके इस्तेमाल के तौर-तरीकों का है। एक रिपोर्टर को हमेशा यह याद रखना चाहिए कि अगर कोई सूत्र गुमनाम रखने की शर्त पर जानकारी दे रहा है तो न सिर्फ उसे यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि उस सूत्र का मकसद क्या है बल्कि उस जानकारी और सूचना की अन्य स्रोतांे से पुष्टि या छानबीन भी करनी चाहिए। अगर इस बात का पर्याप्त आधार हो कि स्रोत का नाम उजागर करने से उसे किसी किस्म का नुकसान उठाना पड़ सकता है तो गुमनाम स्रोत के इस्तेमाल में कोई बुराई नहीं है लेकिन यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि स्रोत की पहचान के साथ दी गई सूचनाओं और जानकारियों पर आधारित खबरों की विश्वसनीयता हमेशा अधिक होती है।
लेकिन दिक्कत तब होती है जब निहित स्वार्थों को पूरा करने के लिए गुमनाम स्रोतों के हवाले से खबरें प्लांट करवाई जाती हैं। चिंता की बात यह है कि हाल के वर्षों मे यह प्रवृत्ति भारतीय पत्रकारिता में भी तेजी से बढ़ी है। इस सिलसिले में सबसे ताजा उदाहरण एक गुलाबी आर्थिक अखबार में छपी वह खबर है जिसपर इन दिनों काफी विवाद पैदा हो गया है। उस अखबार ने गुमनाम स्रोतों के हवाले से अपने प्रथम पृष्ठ पर लीड के बतौर यह खबर छापी कि प्रधानमंत्री कार्यालय में एक उच्चस्तरीय बैठक हुई है जिसमें खुफिया एजेंसियों और वित्तमंत्रालय के अधिकारियों को लगातार चढ़ रहे शेयर बाजार के पीछे सक्रिय कारणों की जांच का निर्देश दिया गया है। इस खबर के छपते ही शेयर बाजार लुढ़क गया। कहने की जरूरत नहीं है कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने तुरंत खंडन जारी किया कि ऐसी कोई बैठक नहीं हुई है।
बाद में खुद प्रधानमंत्री ने चंडीगढ़ में 'ट्रिब्यून` अखबार के एक समारोह में इस खबर का हवाला देते हुए इसे गैर जिम्मेदार पत्रकारिता का उदाहरण बताया। हालांकि यह कोई अकेला उदाहरण नहीं है लेकिन इस घटना ने यह बताया कि इस तरह की रिपोर्टिंग कितनी घातक हो सकती है। इस घटना का सबक यह नहीं है कि गुमनाम स्रोतों के हवाले से खबरें न छापी जाएं बल्कि इसका वास्तविक सबक यह है कि गुमनाम स्रोतों से मिली खबरों को बिना छानबीन और पुष्टि के न छापा जाए। मुश्किल यह है कि भारतीय पत्रकारिता में भी इन दिनों पत्रकारिता के इस सबसे बुनियादी उसूल की खुलेआम अनदेखी की जा रही है कि किसी भी खबर को बिना दो और अगर संभव हो तो कम से कम तीन सूत्रों से पुष्टि किए बिना प्रकाशित या प्रसारित नहीं किया जाना चाहिए।
यही कारण है कि इन दिनों समाचार मीडिया खासकर टेलीविजन चैनलों में आगे रहने की होड़ में अपुष्ट और कई बार गलत खबरें भी प्रकाशित-प्रसारित हो रहीं है। हालांकि तमाम सावधानियों के बावजूद अपवाद स्वरूप कभी-कभी गलती हो सकती है लेकिन अगर अपवाद नियम बनने लगे तो चिंता हेाती है। यह चिंता इस बात से दोगुनी हो जाती है कि भारतीय समाचार मीडिया में अपनी गलतियों के लिए माफी मांगने और आत्मालोचना की तत्परता न के बराबर दिखाई पड़ती है। लेकिन समाचार मीडिया को इस प्रवृत्ति पर गंभीरता से विचार करना चाहिए क्योंकि इससे समाचार मीडिया की साख पर असर पड़ रहा है।
इसका एक उपाय यह हो सकता है कि भारतीय समाचार मीडिया भी अपने संस्थानों में पब्लिक एडिटर या लोकपाल (ओम्बुडसमैन) की नियुक्ति करे जो इस तरह की प्रवृत्तियों और गलतियों को न सिर्फ चिन्हित करे बल्कि उन्हें दोहराए जाने से रोकने के सांस्थानिक उपाय भी सुझाए। वह पाठकों की भी शिकायते सुन सकता है और उसे अखबार/चैनल में अपनी राय रखने का पूरा अवसर और अधिकार मिलना चाहिए। अब यह कहने से काम नहीं चलेगा कि समाचार मीडिया में आत्म सुधार और आत्मालोचना की पर्याप्त जगह है और उनके बीच की प्रतियोगिता के कारण गलतियों की गुंजाइश कम रह जाती है। सच यह है कि प्रतियोगिता के कारण गलतियों को दोहराने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। इसलिए अब समय आ गया है जब भारतीय समाचार मीडिया को अपनी गिरती हुई विश्वसनीयता को बचाए रखने के लिए पब्लिक एडीटर के सवाल पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
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