विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) परियोजनाओं से उठे विवाद में कारपोरेट क्षेत्र के सामाजिक दायित्व (कारपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी-सीएसआर) का मुद्दा भी चर्चाओं में आ गया है। यह सवाल उठ रहा है कि क्या कंपनियों को सिर्फ अपने आर्थिक हितों और मुनाफों की ही चिंता करनी चाहिए या उनका नागरिकों, समुदाय और पर्यावरण के प्रति भी कोई दायित्व है ?
यह सवाल इसलिए उठ रहा है कि सेज परियोजनाओं के लिए कॉरपोरेट क्षेत्र बड़े पैमाने पर जमीन का अधिग्रहण कर रहा है जिसमें लाखों किसानो के विस्थापित होने की आशंका पैदा हो गई है। इन परियोजनाओं पर खेती की जमीन को औद्योगिक उपयोग के लिए लेने के अलावा स्थानीय पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने का आरोप भी लग रहा है।
केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय ने अब तक 240 से अधिक सेज परियोजनाओं को मंजूरी दी है। इनमें से कई परियोजनाओं को लेकर विवाद बढ़ता जा रहा है। मुकेश अंबानी की रिलायंस की नवी मुंबई और झज्जर-गुड़गांव (हरियाणा) परियोजनाओं के खिलाफ किसानों और स्थानीय निवासियों ने आंदोलन शुरू कर दिया है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश में अनिल अंबानी की दादरी विद्युत परियोजना और पश्चिम बंगाल में सिंगूर में टाटा की कार परियोजना को लेकर किसानों का विरोध बढ़ता जा रहा है।
दूसरी ओर, पर्यावरणवादियों का आरोप है कि सेज परियोजनाओं के लिए जमीन आवंटित करते समय पर्यावरण संबंधी चिंताओं का ध्यान नहीं रखा जा रहा है। जैसे रिलायंस की झज्जर परियोजना से सुल्तानपुर पक्षी विहार और नवी मुंबई परियोजना के कारण हजारों मछुवारों की आजीविका खतरे में है। इससे पहले, नर्मदा घाटी में सरदार सरोवर परियोजना को लेकर भी पर्यावरण संबंधी चिंताएं जाहिर की जाती रही है।
उड़ीसा में सेज और बड़ी स्टील परियोजनाओं के लिए लौहअयस्क के खनन के लिए जमीन के बड़े पट्टों के आवंटन पर भी सवाल उठे हैं। कहा जा रहा है कि कॉरपोरेट क्षेत्र मुनाफे की अंधी होड़ में इन परियोजनाओं में विस्थापित होनेवाले लाखों किसानों, आदिवासियों के साथ-साथ स्थानीय पर्यावरण को भी नजरअंदाज कर रहा है।
विकास के इस मॉडल के विरोधियों का तर्क है कि सेज और दूसरी बड़ी विकास परियोजनाओं में प्राकृतिक संसाधनों का जिस तरह दुरुपयोग किया जा रहा है, वह टिकाऊ विकास नहीं है। अर्थव्यवस्था के साथ-साथ स्थानीय समुदायों और पर्यावरण को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।
इन परियोजनाओं के आलोचक कॉरपोरेट क्षेत्र को उनकी सामाजिक जिम्मेदारी की याद दिला रहे हैं। कई कंपनियों ने इसे संजीदगी से लिया है। उन्होंने कॉरपोरेट सामाजिक दायित्व (सीएसआर) के दर्शन को कंपनी की कार्यप्रणाली में शामिल करने की कोशिश शुरू कर दी है।
कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी का दर्शन पिछले डेढ़-दो दशकों में विकसित देशों में काफी लोकप्रिय हुआ है। यह दर्शन इस बात की वकालत करता है कि कंपनियों को अपने कारोबारी फैसलो और कामकाज में मुनाफे से आगे बढ़कर अपने सभी प्रतिभागियों (स्टेकहोल्डर्स) के हितों का ध्यान रखना चाहिए। उन्हें यह देखना चाहिए कि उनके फैसलों का विभिन्न प्रतिभागियों पर किस तरह का आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभाव पड़ेगा ?
कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी के तहत कंपनियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने कामकाज में सामुदायिक हितों को प्राथमिकता देंगे। माना भी जाता है कि 'भला काम करने से अच्छा फायदा होता है (डुइंग वेल बाइ डुइंग गुड)।` भारत में भी कई कंपनियां कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी के तहत अपने कामकाज के इलाकों में सामुदायिक विकास के कार्यों से लेकर पर्यावरण की देखभाल और वित्तीय कामकाज में पारदर्शिता लाने की कोशिश कर रहे हैं।
हालांकि कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी के दर्शन के आलोचकों का यह कहना है कि यह सिर्फ कंपनियों की ओर से जनसंपर्क अभ्यास (पीआर) भर है। वे एनरॉन और शेल जैसी कंपनियों का हवाला देते हैं जो हर साल कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी की रिपोर्ट जारी करने के बावजूद अनुचित गतिविधियों में शामिल पाई गईं।
सवाल यह है कि भारत में कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी के तहत प्रशंसित हिंडाल्को, इंडियन ऑयल, एनटीपीसी, टाटास्टील, रिलायंस और आईटीसी जैसी कंपनियों के लिए भी यह क्या सिर्फ पीआर भर है या वे सचमुच, सामुदायिक हितों और पर्यावरण को ज्यादा महत्व देती हैं ?
कहने की जरूरत नहीं है कि भारत में कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी के दर्शन का भविष्य सेज और दूसरी परियोजनाओं में कंपनियों के उस रवैये पर टिका हुआ है जिसमें यह देखा जाएगा कि वे स्थानीय सामुदायिक और पर्यावरणीय चिंताओं का समाधान कैसे करते हैं।
1 टिप्पणी:
बहुत ही बढिया चर्चा, सर.... कार्पोरेट्स के सामाजिक कर्तव्य की चर्चा करना जरूरी है...कार्पोरेट्स अपना सामाजिक कर्तव्य निभाएं, उससे पहले शायद यह भी देखने की जरूरत है कि हमारे कार्पोरेट्स अपने स्टेक होल्डर्स के प्रति कितनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं....
उसके साथ-साथ हमारी सरकार के सामजिक कर्तव्यों और उनके पालन पर भी चर्चा होनी चाहिए...सुधार केवल कार्पोरेट्स, फाइनेंस से संबंधित मंत्रालयों में देखने को मिल रहे हैं.....
लेकिन कानून-व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, शिक्षा, और न जाने क्या-क्या....कहीं कुछ दिखाई नहीं दे रहा...जिन्हें आवाज उठानी है वे आर्थिक सुधारों के विरोध में अपना समय बर्बाद कर रहे हैं....आपका ब्लॉग आज पहली बार देखा....
बहुत सार्थक प्रयास साबित हो सकता है.
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