सोमवार, नवंबर 12, 2007

भूमंडलीकरण की संतान है एड्स...

एड्स नियंत्रण का अर्थशास्त्र भारत के जनस्वास्थ्य प्राथमिकताओं को तोड़-मरोड़ रहा है
 
पिछले एक दशक से एचआईवी-एड्स को लेकर पूरी दुनिया में और खासकर भारत जैसे विकासशील देशों में नीति-निर्माताओं में खासा हाहाकार मचा हुआ है। यह हाहाकार दिन-पर-दिन और गहराता जा रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि एड्स एक घातक महामारी के रूप में विकासशील देशों के जनस्वास्थ्य के लिए एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। लेकिन एड्स को लेकर मचाए जा रहे हाहाकार के बीच कई सवालों को जानबूझकर नजरअंदाज किया जा रहा है और जनस्वास्थ्य से जुड़ी प्राथमिकताओं को तोडा-मरोड़ा जा रहा है।

आखिर एड्स आया कहां से? अगर यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि भूमंडलीकरण और एड्स के बीच गहरा संबंध है। सच पूछिए तो एड्स, भूमंडलीकरण का एक ऐसा प्रतीक चिन्ह है जो 80 के दशक में भूमंडलीकरण के साथ-साथ दुनिया के नक्शे पर छाता चला गया। दोनों एक ही साथ फले-फूले हैं और दोनों कई मामलों में एक-दूसरे के पूरक भी हैं। दोनों को अलग करना मुश्किल है। इसलिए यह नहीं हो सकता है कि आप भूमंडलीकरण को तो गले लगाने के लिए तैयार हैं लेकिन एड्स के नाम पर आपके रोंगटे खड़े होने लगते हैं। जाहिर है, अगर आप भूमंडलीकरण का दोनों हाथ खोलकर स्वागत करने के लिए तैयार हैं तो आपको एड्स के साथ जीने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।

चौंकिए मत, लेकिन अगर भूमंडलीकरण को मिथकीय समुद्र मंथन का आधुनिक रूप मान लिया जाए तो इस समुद्र मंथन से जो विष निकल रहा है, उसका एक घातक रूप एड्स भी है। दुर्भाग्य से पहले की तरह ही यह विष भी असुरों यानि तीसरी दुनिया के देशों को ही पीना पड़ रहा है। गरीब और पिछड़े मुल्कों और इलाकों में एचआईवी-एड्स एक धीमे जहर की तरह फैल रहा है। इसके सबसे ज्यादा शिकार गरीब और कमजोर वर्ग के लोग हो रहे हैं। कई अफ्रीकी देशों की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था को एड्स ने तबाह कर दिया है।

भारत भी एड्स के असर से अछूता नहीं है। हालांकि देश में एड्स पीडितों की कुल संख्या, सरकारी एजेंसी नाको के मुताबिक करीब सवा लाख के आसपास है लेकिन देश के कई राज्यों खासकर तमिलनाडु, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों के अलावा उत्तर पूर्वी भारत में एड्स पीडितों की तादाद तेजी से बढ़ रही है। वैसे सरकारी आकड़ों में बिहार समेत उत्तर भारत के अधिकांश राज्यों में एड्स पीड़ितों की संख्या लगभग नगण्य है लेकिन यह एक तथ्य है कि ये राज्य भी एड्स के संभावित शिकारों की सूची में सबसे ऊपर हैं। इसकी वजह वे आप्रवासी मजदूर हैं जो काम के सिलसिले में राज्य से बाहर मुंबई, महाराष्ट्र, गुजरात और पंजाब जैसे राज्यों में जाते और कुछ महीनों के बाद वापस लौट आते हैं।

यह बताने की जरूरत नहीं है कि बिहार जैसे राज्य में आप्रवासी मजदूरों की तादाद बहुत ज्यादा है। वे अपने परिवारों से दूर रहते हैं और अपने अज्ञानतापूर्ण और अराजक सेक्सुअल व्यवहार के कारण बहुत आसानी से एड्स की चपेट में आ सकते हैं। इसलिए बिहार जैसे राज्य एचआईवी-एड्स की महामारी के कगार पर बैठे हैं। बिहार जैसे राज्यों के लिए यह एक गंभीर चुनौती है। इसलिए कि आमतौर पर एड्स का संक्रमण युवाओं में सबसे ज्यादा होता है जब वे अपने जीवनकाल के सबसे उत्पादक दौर से गुजर रहे होते हैं। ऐसे युवाओं में एड्स संक्रमण का खामियाजा न सिर्फ उनका परिवार और समुदाय उठाता है बल्कि उस राज्य और देश की अर्थव्यवस्था पर भी उसका बहुत घातक असर होता है क्योंकि एड्स का इलाज बहुत खर्चीला है और सर्वाधिक उत्पादक तबके के बीमारी से राष्ट्रीय विकास पर भी नकारात्मक असर होता है।

इसलिए अगर बिहार जैसे गरीब और पिछड़े राज्यों में एड्स एक महामारी की शक्ल लेता है तो उससे निपटना संभव नहीं रह जाएगा। चूंकि एड्स का इलाज बहुत महंगा है इसलिए उसकी रोकथाम पर जोर देना ही उससे निपटने का सबसे बेहतर तरीका है। एड्स रोकथाम का सबसे बेहतर उपाय सेक्सुअल व्यवहार में एकनिष्ठता और संयम रखना है क्योंकि खुद सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में एड्स के 85 प्रतिशत पीडितों को यह बीमारी सेक्सुअल संक्रमण के जरिए हुई है। लेकिन विडंबना यह है कि भूमंडलीकरण के इस दौर में सेक्सुअल उच्छृंखल और उद्दाम यौन भावनाओं को आधुनिकता के प्रतीक के रूप में पेश किया जा रहा है। यौन एकनिष्ठता को पिछड़ेपन और रूढ़िवादिता का पर्याय बना दिया गया है।

आश्चर्य नहीं कि पिछले एक-डेढ़ दशकों में देश में अश्लील साहित्य (पोर्न) का एक विशाल बाजार विकसित हुआ है। आज अगर दुनिया में अश्लील साहित्य का बाजार 57 अरब डॉलर तक पहुंच गया है तो भारत में भी यह बाजार प्रति वर्ष 25 प्रतिशत वृद्धि दर के साथ लगभग ढाई अरब रूपये का हो चुका है। एक ओर अश्लील साहित्य का विस्तार और दूसरी ओर, मुख्यधारा के मीडिया खासकर टेलीविजन चैनलों पर जिस तरह से अश्लीलता फैलती जा रही है, उसे देखते हुए यौन एकनिष्ठता और संयम गुजरे जमाने की बात हो गई लगती है।
 
आज भूमंडलीकरण के दबाव में मध्यवर्गीय नैतिकता के मूल्य और मानदंड जिस तेजी से बदल रहे हैं, उसे देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि जल्दी ही यौन एकनिष्ठता नियम के बजाय अपवाद बन जाएगा।

इसके साथ ही, भूमंडलीकरण के साथ नशे के कारोबार का विस्तार भी काफी तेजी से हुआ है। रोजगार विहीन विकास के इस दौर में युवाओं के कुंठाओं और आक्रोश को नशे और नीले साहित्य के अंधकार में डुबाने की कोशिश की जा रही है। दरअसल, आज देश एक जबरदस्त युवा विस्फोट से गुजर रहा है। देश की कुल आबादी का दो तिहाई हिस्सा 35 वर्ष से कम उम्र का है। लेकिन भूमंडलीकरण के पास नशे और पोर्न साहित्य के अलावा उन्हें देने के लिए कुछ नहीं है। दोहराने की जरूरत नहीं है कि नशा और अनियंत्रित यौन संबंध एड्स के फैलाव के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार है।

लेकिन भूमंडलीकरण के पास इसका कोई जवाब नहीं है क्योंकि एड्स प्रकारांतर से भूमंडलीकरण की ही संतान है। इसलिए जैसे-जैसे भूमंडलीकरण का विस्तार होगा, उसकी एड्स जैसी उसकी संताने भी बढ़ती जाएंगी। फिर सवाल उठता है कि बिल गेट्स भूमंडलीकरण के सबसे बड़े पैरोकार एड्स पर नियंत्रण के लिए इतना भागदौड़ क्यों कर रहे हैं ? इसकी सीधी सी वजह यह है कि वे इस आशंका से डरे हुए हैं कि भूमंडलीकरण का विष कहीं विकसित देशों और श्वेत दुनिया तक न पहुंच जाए। दूसरा, एड्स नियंत्रण का भी अपना एक अर्थशास्त्र है। एड्स की महंगी दवाओं से लेकर तीसरी दुनिया के देशों के जनस्वास्थ्य की प्राथमिकताओं में तोड़-मरोड़ तक इस अर्थशास्त्र को सक्रिय देखा जा सकता है। आखिर भारत में एड्स से कई गुना अधिक लोग मलेरिया, कालाजार, टीबी और दूसरी संक्रामक बीमारियों के कारण असमय काल के गाल में समा रहे हैं लेकिन स्वास्थ्य बजट का एक बड़ा हिस्सा एड्स नियंत्रण पर खर्च हो रहा है। इसे किस तरह से न्यायोचित ठहराया जा सकता है? 

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