शनिवार, नवंबर 10, 2007

दुष्चक्र में उच्च शिक्षा...

विश्वविद्यालय परिसर फिर सुर्खियों में हैं। अच्छे कारणों से नहीं बल्कि एक बार फिर गलत कारणों से। अगर मेरठ विश्वविद्यालय परीक्षा कापियां बच्चों से जंचवाने और उसके बाद हुए हंगामे के कारण सुर्खियों में है तो उज्जैन का माधव कॉलेज छात्रसंघ चुनावों को लेकर हुई हिंसा में मारे गए प्रोफेसर के कारण खबरों में है। इससे पहले, दिल्ली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय को छात्र हिंसा के बाद अनिश्चित काल के लिए बंद करना पड़ा था। इससे पहले उत्तर प्रदेश के कई विश्वविद्यालय इसलिए सुर्खियों में थे क्योंकि राज्यपाल ने उनके कुलपतियों को अनियमितताओं और भ्रष्टाचार के आरोपों में बरखास्त कर दिया था।

लेकिन हिंसा, गुंडागर्दी, भ्रष्टाचार, अनियमितताएं और शैक्षणिक अराजकता के ये मामले सिर्फ कुछ परिसरों तक सीमित नहीं हैं। कुछ चुनिंदा अपवादों को छोड़कर देश के अधिकांश विश्वविद्यालय परिसरों का कमोबेश यही हाल है। यह सचमुच अफसोस और चिंता की बात है कि अधिकांश विश्वविद्यालय परिसर अपने शोध, ज्ञान और बौद्धिक क्षेत्र में योगदान के बजाय उन सभी गैर शैक्षणिक कार्यों के लिए जाने और पहचाने जा रहे हैं। यह एक कड़वी सच्चाई है कि कुछ इलीट शिक्षा संस्थानों को छोड़कर देश में उच्च शिक्षा का पूरा ढांचा अपने ही बोझ से चरमराता दिख रहा है। विश्वविद्यालय परिसर शैक्षिक गुणवत्ता के बजाय डिग्रियां बांटने वाले केंद्र बनकर रह गए हैं जहां पठन-पाठन और शोध के अलावा बाकी वह सबकुछ हो रहा है जो नहीं होना चाहिए था।

हिंदी पट्टी के विश्वविद्यालयों की हालत और भी ज्यादा खराब है। किसी जमाने में अपने शैक्षणिक माहौल और पठन-पाठन के लिए देश-विदेश में मशहूर इलाहाबाद, पटना, लखनऊ, सागर, राजस्थान विश्वविद्यालय जैसे परिसरों को आज शैक्षणिक अराजकता और बदहाली के लिए अधिक जाना जाता है। चौकानेवाली बात यह है कि उच्च शिक्षा की यह बदहाली और अराजकता अब किसी को परेशान नहीं करती और सरकारों के साथ-साथ समाज ने भी काफी हद तक स्थिति के साथ समझौता कर लिया है। परिसरों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। दूसरी ओर, सार्वजनिक उच्च शिक्षा के मलबे पर कुकरमुत्तों की तरह देशभर में उच्च शिक्षा की निजी दुकाने उग आई हैं जो कोढ में खाज की तरह साबित हो रही हैं।

लेकिन विश्वविद्यालयों की यह दुर्व्यवस्था वास्तव में, देश में उच्च शिक्षा के व्यापक संकट की ओर इशारा करती है। आज विश्वविद्यालयों में जो कुछ हो रहा है वह उच्च शिक्षा को घुन की तरह चाट रहे एक गंभीर और गहरे मर्ज के लक्षण की तरह है। मुश्किल यह है कि सत्ता प्रतिष्ठान के साथ-साथ नीति-निर्माताओं का एक बड़ा वर्ग इस लक्षण को ही मर्ज मानकर चलता है। उनकी निगाह में परिसरों की एकमात्र समस्या कानून और व्यवस्था की समस्या है। इसका नतीजा यह हो रहा है कि विश्वविद्यालय दिन पर दिन पुलिस छावनियों में बदलते जा रहे है। लेकिन साथ ही साथ स्थिति सुधरने के बजाय और बिगड़ती जा रही है।

दरअसल, भारत में उच्च शिक्षा का संकट कोई नया संकट नहीं है लेकिन 80 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा पेश नई शिक्षा नीति और उसके बाद 90 के दशक के नवउदारवादी आर्थिक सुधारों ने इस संकट को हल करने के बजाय और गहरा और जटिल बना दिया है। पिछले दो दशकों में उच्च शिक्षा एक साथ कई तरह के दबावों, चुनौतियों और समस्याओं से घिर गई है। यह एक सच्चाई है कि देश में साक्षरता के प्रसार और गरीब और कमजोर वर्गों की बढ़ती चेतना के कारण उच्च शिक्षा में प्रवेश की मांग काफी तेजी से बढ़ी है। इसकी वजह यह है कि उच्च शिक्षा सामाजिक गतिशीलता और बेहतर अवसरों की कुंजी है। हाल के वर्षों में उच्च शिक्षा के दरवाजे खटखटाने वाले छात्रों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है।

लेकिन नवउदारवादी आर्थिक सुधारों के कारण शिक्षा खासकर उच्च शिक्षा के बजट में भारी कटौती के कारण कुछ इलीट संस्थानों को छोड़कर अधिकांश विश्वविद्यालयों का शैक्षिक ढ़ांचा छात्रों की बढ़ती तादाद के बोझ के नीचे चरमराता जा रहा है। अधिकांश विश्वविद्यालयों के सालाना बजट का 90 से 95 फीसदी हिस्सा कर्मचारियों और शिक्षकों के वेतन में चला जाता है। इसका परिणाम यह हुआ है कि इन विश्वविद्यालयों में वर्षों से बुनियादी शैक्षणिक सुविधाओं जैसे पुस्तकालय, प्रयोगशालाओं, कक्षाओं, छात्रावासों, कम्प्यूटर आदि के रखरखाव और उन्हें आधुनिक बनाने पर फूटी कौडी भी खर्च नहीं की जा रही है। हालत यह हो गई है कि रखरखाव के अभाव में कई विश्वविद्यालयों में ऐतिहासिक इमारतें ढहती जा रही है। कोई भी विश्वविद्यालय ऐसा नहीं है जहां शिक्षकों की कमी न हो। जाहिर है कि इस सब का सीधा असर पठन-पाठन और शोध के स्तर पर भी पड़ रहा है।

ध्यान रहे कि 1966 में कोठारी आयोग से लेकर मौजूदा यूपीए सरकार के न्यूनतम साझा कार्यक्रम तक में शिक्षा पर जीडीपी का छह प्रतिशत खर्च करने की बात कही गई है। लेकिन बजट में शिक्षा उपकर आदि प्रावधानों के जरिए पैसा जुटाने की कोशिशों के बावजूद शिक्षा पर आज भी (2004-05 के बजट अनुमान के मुताबिक) कुल राष्ट्रीय उत्पाद का मात्र  3.5 प्रतिशत ही खर्च किया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र के मानव विकास रिपोर्ट' 2005 के मुताबिक भारत दुनिया के 130 देशों में शिक्षा पर खर्च के मामले में 80वें स्थान पर है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत शिक्षा पर कितना कम खर्च कर रहा है। बजट के मामले में उच्च शिक्षा की हालत तो और भी खराब है। वर्ष 2004-05 में उच्च शिक्षा पर जीडीपी का मात्र  0.34 प्रतिशत खर्च किया गया।
उल्लेखनीय है कि केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड (कैब) ने यह सुझाव दिया है कि शिक्षा पर प्रस्तावित जीडीपी के 6 प्रतिशत खर्च में से जीडीपी का 3 प्रतिशत प्राथमिक शिक्षा पर, 1.5 प्रतिशत माध्यमिक शिक्षा पर और 1 प्रतिशत उच्च शिक्षा और  0.5 प्रतिशत तकनीकी शिक्षा पर खर्च किया जाना चाहिए। लेकिन उच्च शिक्षा पर अभी जीडीपी का 1 प्रतिशत तो दूर आधा प्रतिशत भी खर्च नहीं किया जा रहा है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि अगर उच्च शिक्षा पर जीडीपी का 1 प्रतिशत भी खर्च किया जाए तो स्थिति काफी हद तक सुधर सकती है। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि पहले शिक्षा पर जीडीपी का 6 प्रतिशत खर्च किया जाए। एक अनुमान के मुताबिक अगर जीडीपी का 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया जाए तो 2009-10 तक उच्च शिक्षा का बजट 2004-05 के उच्च शिक्षा के बजट का 5 गुना हो जाएगा।

लेकिन जाहिर है कि यह कल्पना मात्र है क्योंकि न तो नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी। इसलिए नहीं कि शिक्षा पर जीडीपी का 6 प्रतिशत खर्च करने की क्षमता भारत में नहीं है बल्कि इसलिए कि सत्ता प्रतिष्ठान में इसके लिए अपेक्षित इच्छाशक्ति नहीं है। लगभग सभी व्यवहारिक अर्थों में भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान ने शिक्षा को बाजार के हवाले कर दिया है। यही कारण है कि जैसे पहले प्राथमिक शिक्षा में एक दोहरी शिक्षा प्रणाली- सरकारी स्कूल बनाम पब्लिक स्कूल खड़ी की गई उसी तर्ज पर उच्च शिक्षा में भी एक दोहरी शिक्षा प्रणाली- सरकारी विश्वविद्यालय बनाम निजी व विदेशी विश्वविद्यालय खड़ी की जा रही है। इस दोहरी उच्च शिक्षा प्रणाली को मजबूत बनाने और आगे बढ़ाने के लिए जरूरी है कि पहले सरकारी विश्वविद्यालयों को कमजोर किया जाए।

दरअसल, सरकारी विश्वविद्यालयों की मौजूदा बदहाली कोई अप्रत्याशित घटना नहीं है बल्कि इसका सीधा संबंध एक सोची समझी रणनीति के साथ है जो मानती है कि उच्च शिक्षा राज्य का दायित्व नहीं है और इसे बाजार के हवाले कर देना चाहिए। आश्चर्य नहीं कि दो-तीन वर्ष पहले वित्त मंत्रालय ने सब्सिडी के बारे में जो विचारपत्र जारी किया था उसमें उच्च शिक्षा पर किए जानेवाले खर्च को गैर जरूरी (नान मेरिट) सब्सिडी बताया गया था। नवउदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकारों का मानना है कि उच्च शिक्षा का लाभ वास्तव में समाज और देश से अधिक संबंधित व्यक्ति को मिलता है, इसलिए उसका खर्च भी उस व्यक्ति को ही उठाना चाहिए। इस आधार पर विश्वविद्यालयों को पिछले एक दशक से लगातार अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए कहा जा रहा है।

इसका नतीजा यह हुआ है कि पिछले कुछ वर्षों में विश्वविद्यालयों में फीस बढ़ाने की मुहिम सी शुरू हो गई है। जिन विश्वविद्यालयों ने फीस बढ़ाने से मना किया है उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। इस स्थिति में अधिकांश विश्वविद्यालय विद्यार्थियों की बढ़ती तादाद और संसाधनों की कमी के बीच पिसते जा रहे है। इन विश्वविद्यालयों में शिक्षा का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। इस कारण छात्रों में बेचैनी बढ़ती जा रही है और छात्रों के एक बड़े वर्ग खासकर प्रतिभाशाली और जिनके पास आर्थिक संसाधन है, उनमें इन विश्वविद्यालयों को छोड़कर कुछ इलीट शिक्षण संस्थानों की ओर पलायन की प्रवृत्ति तेज हो रही है। पठन-पाठन के अभाव में छात्रों में आपराधिक और अराजक प्रवृत्तिया बढ़ रही हैं। इस तरह अधिकांश विश्वविद्यालय एक दुष्चक्र के शिकार हो गए हैं।

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