यूपीए सरकार का चौथा आर्थिक सर्वेक्षण तेज विकास दर की पुरानी ढपली और ज्यादा जोश के साथ बजाता दिखता है। सर्वेक्षण पढते हुए ऐसा लगता है कि इन दो वर्षों में 9 प्रतिशत और पिछले चार वर्षों में 8.6 प्रतिशत की तेज विकास दर हासिल कर लेने के बाद यूपीए सरकार ने आर्थिक मोक्ष प्राप्त कर लिया है।
सर्वेक्षण में सबसे अधिक जोर-शोर से यही साबित करने की कोशिश की गई है कि भारत अब उच्च विकास दर वाले देशों की श्रेणी में शामिल हो गया है। 9 प्रतिशत से उपर की विकास दर से बम-बम यूपीए सरकार ने इस सर्वेक्षण के जरिए उन देशी-विदेशी आलोचकों को भी जवाब देने की कोशिश की है जो अर्थव्यवस्था की तेज रफ्तार को उसके अत्यधिक गर्म (ओवरहीटिंग) होने का लक्षण बताते हुए सरकार को सावधान होने की चेतावनी दे रहे हैं।
लेकिन इस मुद्दे पर आर्थिक सर्वेक्षण इस कदर आत्मविश्वास से लबरेज है कि वह चुनौती देते हुए कहता है कि उच्च विकास दर को लेकर किसी भी तरह की घबराहट या बेचैनी के लिए कोई जगह नहीं है। सर्वेक्षण का दावा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था निर्णायक रूप से मध्यवर्ती विकास दर (5-6 प्रतिशत) से छलांग मारते हुए उच्च विकास दर (8-10 प्रतिशत) के दायरे में पहुंच गई है। उसका कहना है कि मौजूदा विकास दर न सिर्फ टिकाऊ है बल्कि इस दर को मध्यकालिक से लेकर दीर्घकालिक दौर में बनाए रखा जा सकता है।
इस दावे के पक्ष में सर्वेक्षण पांच तर्क गिनाता है। उसका पहला तर्क यह है कि उच्च विकास दर के साथ 'जनसांख्यिकीय लाभांश` (आबादी और श्रमशक्ति में युवाओं की बहुसंख्या) की आर्थिक रूप से अनुकूल स्थिति के कारण बचत में लगातार बढ़ोत्तरी होगी और इससे अधिक से अधिक निवेश होगा। इस तरह एक उच्च विकास दर-अधिक बचत-अधिक निवेश-उच्च विकास दर का चक्र बनता जा रहा है जो आनेवाले वर्षों में भी जारी रहेगा।
सर्वेक्षण का दूसरा तर्क यह है कि अर्थव्यवस्था की कार्यक्षमता में भी वृद्धि हुई है जिसके कारण कम पूंजी में अधिक उत्पादन संभव हुआ है। तीसरे, सूचना तकनीक और उससे जुड़ी सेवाओं के अलावा कई और क्षेत्रों में तेज विकास दिखाई पड़ रहा है। इस मामले में सर्वेक्षण को सबसे अधिक उम्मीद पर्यटन क्षेत्र से है।
आर्थिक सर्वेक्षण इन तीन सकारात्मक तर्कों के बाद चौथे तर्क के रूप में अर्थव्यवस्था की ओवरहीटिंग के आरोपों को खारिज करते हुए कहता है कि मुद्रास्फीति की बढ़ती दर का संबंध तात्कालिक आपूर्ति संबंधी बाधाओं से है, इसलिए यह बड़ी चिंता की बात नहीं है। दूसरी ओर, अर्थव्यवस्था में बढ़ते निवेश के कारण क्षमता वृद्धि हो रही है इसलिए विकास दर पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
इसी तरह से व्यापार और चालू खाते का घाटा भी निर्धारित सीमा के भीतर ही है।
और पांचवे, अर्थव्यवस्था के तेज विकास में सबसे बड़े रोड़े के रूप में खड़ी संरचनागत कमियों (इन्फ्रास्ट्रक्चर बाधाओं) के मामले में भी सुधार के संकेत हैं। इसलिए ताजा आर्थिक सर्वेक्षण का निष्कर्ष है कि भारतीय अर्थव्यवस्था उच्च विकास दर की नई राह पर बढ़ चली है।
लेकिन आर्थिक सर्वेक्षण में दोहराए जाने के बावजूद ये तर्क नए नहीं है।
पिछले कुछ समय से तेज विकास दर की वास्तविकता, उससे जुड़ी चुनौतियों और खतरों और उसकी गुणवत्ता को लेकर कई गंभीर सवाल उठे हैं। जाहिर है सर्वेक्षण में उन्हें नजरअंदाज या नकारने की कोशिश की गई है। प्रतिष्ठित शोध पत्रिका 'इकनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली` (10 फरवरी) ने अपने संपादकीय में तेज विकास दर की इस प्रवृत्ति पर विचार करते हुए बचत और निवेश के आंकड़ों में जबरदस्त उछाल की पड़ताल की है। पत्रिका के अनुसार यह दो कारणों से संभव हुआ है। पहला, क्षेत्रवार बचत और निवेश दर में सचमुच में वृद्धि हुई है।
लेकिन उसका कहना है कि राष्ट्रीय लेखा सांख्यिकी (एनएएस) में 1999-2000 में हुए संशोधन और आधारवर्ष में परिवर्तन के कारण भी बचत और निवेश दर में भारी उछाल दिखाई पड़ रही है। उदाहरण के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के कई विशेष सरकारी कार्यक्रमों जैसे सर्वशिक्षा अभियान, मिड डे मील और जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम पर होनेवाले व्यय को अब उपभोग के बजाय पूंजीगत व्यय के रूप में दर्ज किया जा रहा है। इसी तरह निजी कॉरपोरेट क्षेत्र के निवेश की गणना करते हुए भी सॉफ्टवेयर आदि पर होनेवाले व्यय के साथ-साथ नई कंपनियों या निर्माणाधीन कंपनियों द्वारा किए जानेवाले निवेश को भी उसमें शामिल कर लिया गया है जो कि पहले नहीं था। ये सभी वे क्षेत्र हैं जिनमें हाल के वर्षों में निवेश में उल्लेखनीय वृद्धि दिखाई पड़ती है। साफ है कि पिछले कुछ वर्षों में जीडीपी की तेज विकास दर में बहुत नहीं तो कुछ हद तक 'सांख्यिकीय चमत्कार` की भी अहम भूमिका है।
दूसरे, सर्वेक्षण अर्थव्यवस्था की आम समीक्षा करते हुए दूसरी पंक्ति में ही बढ़ती मुद्रास्फीति दर को लेकर चिंता प्रकट करता है। लेकिन वह इसके लिए आपूर्ति संबंधी बाधाओं खासकर खाद्य वस्तुओं और जिंसों की कमी जैसे तात्कालिक कारणों को जिम्मेदार ठहराते हुए उस पर काबू पाने के मामले में अपने हाथ खड़े कर देता है। सर्वेक्षण महंगाई पर नियंत्रण के मामले में अपनी लाचारी जाहिर करते हुए साफ तौर पर कहता है कि इसका स्थाई समाधान दालों, खाद्य तेलों, गेहूं और चावल जैसे कृषि जिंसों का उत्पादन बढ़ाकर ही ढूंढा जा सकता है।
स्पष्ट तौर पर सर्वेक्षण महंगाई के लिए जिंसों के वायदा कारोबार और जमाखोरी-मुनाफाखोरी जैसे कारणों को नजरअंदाज कर देता है।
यही नहीं, सर्वेक्षण इस महंगाई के लिए किसानों को दिए जा रहे लाभकारी मूल्यों को भी जिम्मेदार ठहराता है। सर्वेक्षण के मुताबिक इस तथ्य को स्वीकार करने का समय आ गया है कि किसानों को दिए जानेवाले लाभकारी मूल्य (सचमुच?) और उपभोक्ता को उचित मूल्य दिलाने के बीच एक अंतरविरोध है।
इस तरह सर्वेक्षण किसानों की आड़ लेकर बढ़ती हुई महंगाई को कहीं न कहीं से अपरिहार्य और जायज ठहराने की कोशिश करता है। लेकिन यह सबको पता है कि किसानों को कितना लाभकारी मूल्य मिल रहा है? दूसरे, क्या यूपीए सरकार को पता नहीं है कि किसानों के साथ-साथ भूमिहीन किसान और खेतीहर मजदूर उपभोक्ता भी हैं जिन्हें खाद्य वस्तुओं की महंगाई सबसे ज्यादा परेशान कर रही है। ध्यान रहे कि ग्रामीण खेतीहर मजदूरों और शहरी श्रमिकों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर 8 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है।
इसी तरह, सर्वेक्षण समावेशी विकास की बात तो करता है लेकिन ज्यादा पंक्तियां इस बात में खर्च करता है कि पिछले पांच वर्षों में तेज विकास के साथ रोजगार वृद्धि की दर बढ़ी है और गरीबी में कमी आई है। हालांकि वह दबी जुबान में यह भी स्वीकार करता है कि इस बीच बेरोजगारी की दर भी बढ़ी है। लेकिन उसका तर्क है कि यह 'रोजगार विहीन विकास` का परिचायक नहीं है। सर्वेक्षण एक बार फिर उसी पिटे-पिटाए तर्क को दोहराता है कि बेरोजगारी दर को कम करने के लिए और तेज विकास दर की जरूरत है।
इस तरह सर्वेक्षण मौजूदा विकास दर की गुणवत्ता पर सबसे बड़े सवाल की तरह खड़ी बेरोजगारी को भी अपने पक्ष में इस्तेमाल करते हुए तेज विकास दर की मार्केटिंग करता नजर आता है। हालांकि उसके पास कुछ घिसे-पिटे कारणों के अलावा इस बात का कोई जवाब नहीं है कि तेज विकास दर के बावजूद कृषि की विकास दर क्यों घिसट रही है ? सर्वेक्षण इस तथ्य की फिर पुष्टि करता है कि यूपीए सरकार के पास कृषि संकट का कोई हल नहीं है।
चूंकि हर सर्वेक्षण के लिए यह साबित करना भी जरूरी है कि वह आर्थिक सुधारों के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध है, इसलिए ताजा आर्थिक सर्वेक्षण भी सब्सिडी में कटौती के मुद्दे को दोबारा खोलने की वकालत करता है। सर्वेक्षण का कहना है कि कुछ नहीं तो प्रयोगात्मक तौर पर ही सही लेकिन सब्सिडी को लक्षित करने और उसे तार्किक बनाने (नव उदारवादी आर्थिक शब्दावली में इसका अर्थ कटौती होता है) का समय आ गया है।
आश्चर्यजनक तौर पर सर्वेक्षण आखिर में तीन पंक्तियों में अर्थव्यवस्था के लिए खतरों का जिक्र करते हुए दोहा दौर की विश्वव्यापार वार्ताओं की विफलता की आशंका को भी एक खतरे के रूप में चिन्हित करता है। क्या इसका अर्थ यह है कि यूपीए सरकार किसी भी कीमत पर दोहा दौर की व्यापार वार्ताओं को सफल बनाना चाहती है? सच यह है कि अर्थव्यवस्था को मौजूदा स्वरूप में दोहा दौर की व्यापार वार्ताओं की सफलता की बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
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