अपने बड़े भाई मुकेश अंबानी के बाद अब अनिल अंबानी देश के दूसरे खरबपति हो गए हैं। गुलाबी आर्थिक अखबारों की तरह चाहें तो आप भी मुकेश और अनिल अंबानी की इस उपलब्धि के लिए उनकी बलैयां ले सकते हैं। अगर आप चाहें तो भारत जैसे गरीब देश में मुकेश और अनिल के रूप में दो खरबपति मिलने को एक बड़ी कामयाबी मान सकते हैं। शेयर बाजार में उछाल का मौजूदा दौर जारी रहा तो कुछ और अरबपति जल्दी ही खरबपतियों की सूची में शामिल हो जाएंगे। डीएलएफ समूह के केपी सिंह की कुल परिसंपत्तियां लगभग 85 हजार करोड़ तक पहुंच चुकी हैं और वे अगले खबरपति बन सकते हैं।
कुछ ही दिनों पहले मशहूर अमेरिकी पत्रिका ''फोर्ब्स`` की दुनियाभर के अरबपतियों की सालाना सूची में भारत के 36 डॉलर अरबपतियों के नाम छपे थे। पत्रिका के अनुसार पूरे एशिया में सबसे अधिक डॉलर अरबपति भारत में हैं जिनकी कुल परिसंपत्तियां 191 अरब डॉलर तक पहुंच चुकी हैं। लेकिन क्या सचमुच देश में पहले अरबपतियों और अब खरबपतियों की बढ़ती तादाद पर खुशियां मनाने का समय आ गया है ? आखिर अरबपतियों और खरबपतियों की बढ़ती तादाद के क्या मायने हैं ? क्या यह देश में बढ़ती समृद्धि और विकास का प्रतीक है या बढ़ती आर्थिक विषमता और असमानता का ?
अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि देश में अरबपतियों और खरबपतियों की तेजी से बढ़ती संख्या के साथ गरीबों की तादाद में उस तेजी से कमी नहीं आ रही है जिसकी आर्थिक उदारीकरण से अपेक्षा की गई थी। इस मायने में यह एक उदास करनेवाली परिघटना है। यह एक कड़वी सच्चाई है कि आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण के समुद्र मंथन से पिछले 15 सालों में निकले तीव्र आर्थिक विकास का अमृत अमीर पी रहे हैं जबकि गरीबों के हिस्से में एक बार फिर विष आया है। विश्व बैंक के ताजा आंकड़ों के मुताबिक भारत में प्रतिदिन एक डॉलर से कम की आय में गुजर-बसर करनेवाले लोगों की तादाद 1994 में कुल आबादी की 45 फीसदी थी जो पिछले दस सालों में घटने के बावजूद अब भी 34.3 फीसदी पर बनी हुई है।
स्वयं योजना आयोग ने स्वीकार किया है कि 1993 से 2004 के बीच गरीबी रेखा से नीचे रहनेवाले भारतीयों की तादाद में प्रति वर्ष सिर्फ 0.74 प्रतिशत की कमी आई है। जबकि इससे पहले 1983 से 1993-94 के बीच गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करनेवाले लोगों की तादाद में प्रति वर्ष 0.85 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी। स्पष्ट है कि आर्थिक उदारीकरण के पिछले 15 वर्षों में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की दर में वृद्धि के बावजूद उसका फायदा गरीबों को नहीं मिला है। हालांकि आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण के समर्थकों का यह दावा रहा है कि तीव्र आर्थिक विकासदर के साथ आनेवाली समृद्धि की बाढ़ में गरीबों की नौकाएं भी उपर आ जाती हैं।
लेकिन हकीकत इसके ठीक उलट है। सच यह है कि जिस तेजी से कारपोरेट क्षेत्र के मुनाफे में वृद्धि हो रही है, उसकी तुलना में लोगों के वेतन में वृद्धि नहीं हो रही है बल्कि उसमें गिरावट दर्ज की जा रही है। पिछले पांच वर्षों में जीडीपी के अनुपात में कारपोरेट क्षेत्र का मुनाफा वर्ष 2002 के 3.7 प्रतिशत से उछलकर 2007 में 9.1 प्रतिशत पर पहुंच गया है जबकि वेतन जीडीपी की तुलना में 2002 के 31 फीसदी से घटकर 28.7 फीसदी रह गया है।
दोहराने की जरूरत नहीं है कि तीव्र आर्थिक विकासदर से देश में गरीबी घटने के बजाय आर्थिक विषमता और गैर बराबरी बहुत तेजी से बढ़ी है। अमीर और गरीब, शहरी और ग्रामीण तथा समृद्ध और पिछड़े राज्यों के बीच की खाई लगातार बढ़ती जा रही है। विश्व बैंक ने भी स्वीकार किया है कि भारत में आय/ उपभोग पर आधारित असमानता तेजी से बढ़ रही है। इसकी वजह यह है कि हाल के वर्षों में आई समृद्धि मुख्यत: तीन क्षेत्रों- शेयर बाजार, रीयल इस्टेट और प्रोपर्टी तथा सोने तक सीमित रही है।
दुनिया की जानीमानी कंसल्टेंसी कंपनी मार्गन स्टेनली के भारतीय कार्यकारी निदेशक चेतन आहया के मुताबिक पिछले चार वर्षों में भारत की संपदा में लगभग एक खरब डॉलर से अधिक की वृद्धि हुई है। लेकिन इस संपदा वृद्धि का लाभ बहुत सीमित तबके को मिला है। आहया के अनुसार भारतीय शेयर बाजार का पूंजीकरण मार्च 2003 के 120 अरब डॉलर से बढ़कर मई 2007 में एक खरब डॉलर तक पहुंच गया है। अगर इसमें विदेशी और सरकारी कंपनियों के स्वामित्व वाले हिस्से को निकाल दिया जाए तो घरेलू शेयर धारकों की परिसंपत्तियों में लगभग 570 अरब डॉलर की वृद्धि दर्ज की गई है। लेकिन इसका लाभ कितने लोगों को मिला है?
सेबी के अनुसार देश में कुल आबादी के सिर्फ 4 से 7 फीसदी लोगों के पास शेयर हैं। इसमें भी कंपनियों के मालिकों का हिस्सा बहुत बड़ा है। आहया के मुताबिक 570 अरब डॉलर में 350 अरब डॉलर कंपनियों के मालिकों के हिस्से में गया है। दरअसल, अनिल और मुकेश अंबानी के खरबपति होने का राज भी इसी में छुपा हुआ है। दोनों के खरबपति होने की वजह यह है कि उनकी कंपनियों के शेयरों की कीमतों में हाल के महीनों में भारी वृद्धि दर्ज की गई है। इस कारण उनका बाजार पूंजीकरण खरबों में पहुंच गया है और उन कंपनियों में उनका हिस्सा 55 फीसदी से अधिक होने के कारण ही वे भी खरबपति हो गए हैं।
लेकिन अनिल और मुकेश अंबानी के खरबपति होने से जुड़ी एक विडम्बना यह भी है कि एक आम भारतीय और इन खरबपति भाईयों के बीच आय का अनुपात जो कुछ वर्षों पहले तक 1: 90000 का था, वह बढ़कर 1:100000 से उपर पहुंच गया है। यानि सुपर अमीरों और आम आदमी के बीच की खाई और गहरी और चौड़ी होती जा रही है। साफ है कि उदारीकरण की लक्ष्मी गरीबों और आम आदमी के घर का रूख करने के बजाय आबादी के एक छोटे सुपर अमीरों के घर में कैद होकर रह गई है। जाहिर है कि यह खुश होने का नहीं बल्कि उदास होने का वक्त है।
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