कुछ लोगों को यह 'बेमेल विवाह` भी लग सकता है। आखिर भारत जैसे एक विकासशील देश की कंपनी अपने से आकार में चार गुनी बड़ी 'यूरोपीय` कंपनी को कैसे खरीद सकती है? लेकिन विवाह एक 'सामाजिक समझौता` है तो टाटा-कोरस सौदे को भूमंडलीकरण के दबाव से पैदा हुआ एक ऐसा 'आर्थिक समझौता` माना जा सकता हे जिसकी जरूरत दोनों पक्षों को थी। दरअसल, इस सौदे की नींव मित्तल स्टील द्वारा आर्सेलर के अधिग्रहण के साथ ही पड़ गयी थी। मित्तल-आर्सेलर सौदे ने दुनिया के बिखरे हुए स्टील उद्योग में समेकन (कंसोलिडेशन) की एक ऐसी प्रक्रिया की शुरूआत कर दी, जिसके बाद कोरस और टाटा स्टील जैसी कंपनियों के पास गलाकट प्रतियोगिता के बीच बाजार में टिके रहने के लिए एक-दूसरे के अधिग्रहण और विलयन (मर्जर) के अलावा और कोई रास्ता नहीं बच गया है।
इसलिए अभी यह शुरूआत है। आश्चर्य नहीं होगा अगर अगले कुछ महीनों में टाटा-कोरस जैसे कई और सौदे अधिग्रहण या विलयन के रूप में सामने आएं। उदाहरण के लिए टाटा-कोरस सौदे की खबरों के बीच दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी स्टील कंपनी निप्पान स्टील (जापान) और तीसरे नंबर की स्टील कंपनी पास्को (दक्षिण कोरिया) ने एक-दूसरे में अपनी क्रास होल्डिंग को बढ़ाने का फैसला किया है। इसी तरह, रूस और लातिन अमेरिका के साथ-साथ चीन में भी स्टील कंपनियों के बीच अधिग्रहण और विलयन की प्रक्रिया तेज हो गयी है।
इस प्रक्रिया को तेज करने में बड़ी वित्तीय पूंजी की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। दरअसल, भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के केन्द्र में रही बड़ी वित्तीय पूंजी ही आज के दौर की वह अगुवा या ब्राह्मण है जो कंपनियों के बीच रिश्ते तय कराने से लेकर उनके विवाह तक में अहम भूमिका निभा रही हैं। टाटा-कोरस रिश्ते की कुंजी भी उन्हीं के पास है। सौदे के लिए 9.6 अरब डालर में से टाटा संस और टाटा स्टील एक-एक अरब डालर का योगदान करेंगे जबकि 1.8 अरब डालर का ब्रिज लोन एबीएन एमरो और स्टैंडर्ड चार्टड बैंक की ओर से आएगा जबकि 5.6 अरब डालर का कर्ज एबीएन एमरो और ड्यूश बैंक से मिलेगा। इस तरह यह पूरा सौदा बड़ी वित्तीय पूंजी के आशीर्वाद से संभव हुआ है।
जाहिर है कि इस वित्तीय पूंजी के अपने हित हैं। इस तरह के बड़े सौदे कराने के लिए मिलने वाली मोटी फीस के अलावा वित्तीय पूंजी का सबसे बड़ा स्वार्थ यह है कि इस तरह के सौदों के जरिए वे स्टील कंपनियों में लगी अपनी शेयर पूंजी या स्टॉक की उंची कीमत बनाए रखने की कोशिश करती हैं। इससे वे प्रतियोगिता को 'मैनेज` करने और बाजार को अपने नियंत्रण में रखने का प्रयास करती हैं। टाटा-कोरस डील से जहां कोरस को एक कम लागत वाली स्टील निर्माता कंपनी के साथ-साथ एक बड़ा बाजार और लौह अयस्क जैसे कच्चे माल का आकर्षक स्रोत मिल गया, वहीं टाटा स्टील को एक बेहतर टेक्नोलॉजी से उन्नत किस्म के स्टील बनाने वाली कंपनी और यूरोपीय बाजार में घुसने का मौका मिल जाएगा। लेकिन इससे स्टील उद्योग में प्रतियोगिता घट जाएगी और इसका सर्वाधिक लाभ बड़ी वित्तीय पूंजी को होगा।
इसलिए इस रिश्ते को लेकर बहुत खुश होने की जरूरत नहीं है। यह बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवान जैसा होगा। यही नहीं, टाटा-कोरस रिश्ते में ऐसे पेंच हैं कि इस बात की संभावना अधिक है कि टाटा, कोरस से विवाह के बाद घर जमाई बन जाए। यानी टाटा के 'बहुराष्ट्रीय कंपनी` बनने की ओर बढ़ने का एक नतीजा यह भी हो सकता है कि टाटा स्टील जल्दी ही एक ब्रिटिश या डच कंपनी बन जाए। वैसे ही जैसे मित्तल स्टील को हम कितना भी भारतीय कहें लेकिन सच यह है कि लक्ष्मी मित्तल एक ब्रिटिश नागरिक हैं और मित्तल स्टील हालैंड में रजिस्टर्ड है। टाटा समूह ने कहा भी है कि अधिग्रहण के बावजूद कोरस एक ब्रिटिश-डच कंपनी बनी रहेगी।
दरअसल, भूमंडलीकरण के इस दौर में गुलाबी पेपर्स टाटा-कोरस सौदे में एक 'भारतीय कंपनी` की कामयाबी को लेकर जितना उछलें, सच्चाई यह है कि वित्तीय पूंजी की कोई राष्ट्रीयता नहीं होती है। उसके लिए अपना स्वार्थ सबसे उपर है और उसे पूरा करने के लिए वह 'बेमेल शादी` भी कराने में परहेज नहीं करता है। हैरानी की बात नहीं है कि मित्तल और आर्सेलर में 'तू-तू, मैं-मैं` के बावजूद रिश्ता हुआ तो इसकी वजह भी यही बड़ी वित्तीय पूंजी थी। उस सौदे में गोल्डमैन साक्स, मेरिल लिंच, जेपी मार्गन चेज, लेजार्ड, मार्गन स्टैनली, ड्यूश बैंक जैसी वित्तीय संस्थाओं और मर्चेंट बैंकरों की भूमिका किसी से छुपी नहीं है।
इस तरह बड़ी वित्तीय पूंजी दुनियाभर की स्टील कंपनियों को अधिग्रहण और विलयन के जरिए कंसोलिडेशन की दिशा में ढकेल रही है। इस कारण पहले मित्तल-आर्सेलर और अब टाटा-कोरस के सौदे से स्टील उद्योग के कुछेक बड़े खिलाड़ियों के चंगुल में चले जाने की आशंका बढ़ गयी है। इस प्रक्रिया में स्टील बाजार 'ओलिगोपोलिस्टिक` बाजार में बदलता जा रहा है जहां कुछेक बड़ी स्टील कंपनियों के एक कार्टेल की तरह काम करने का खतरा बढ़ता जा रहा है। इसका सीधा खामियाजा स्टील उपभोक्ताओं को उठाना पड़ेगा। भारतीय स्टील उपभोक्ताओं को पिछले दो-तीन वर्षों से घरेलू स्टील उत्पादकों के कार्टेल की मार झेलनी पड़ रही है। इस कड़वे अनुभव से अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले दिनों में स्टील कंपनियों के बीच कंसोलिडेशन से दुनियाभर के स्टील उपभोक्ताओं को किस कदर जेब ढीली करनी पड़ेगी।
इस सौदे का एक और खास पहलू यह है कि टाटा द्वारा कोरस के अधिग्रहण के बाद भारतीय उद्योग समूहों को मैत्रीपूर्ण या आक्रामक टेकओवर प्रस्तावों के लिए खुद को तैयार कर लेना चाहिए। कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे कई बड़े उद्योग समूह हैं जिन्हें ऐसे अधिग्रहण प्रस्तावों के लिए उपयुक्त प्रत्याशी माना जा रहा है क्योंकि उनमें प्रोमोटरों की अंश पूंजी बहुत कम है। सच तो यह है कि खुद टाटा और कोरस ऐसे अधिग्रहण के 'साफ्ट टार्गेट` बने हुए थे और दोनों का साथ आना एक मजबूरी भी थी क्योंकि लक्ष्मी मित्तल जैसी बड़ी मछलियां उन्हें निगलने के लिए मौके का इंतजार कर रही थीं।
टाटा-कोरस के एक साथ आने के बावजूद खतरा टला नहीं है। अब या तो उन्हें कुछ और छोटी मछलियों को अपना शिकार बनाना होगा या फिर खुद किसी बड़ी मछली का भोजन बनना पड़ेगा। अभी तो खेल की शुरूआत हुई है। दम साधकर देखिए आगे क्या होता है ?
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