सत्ता में आने के कोई ढाई साल बाद यूपीए सरकार को गरीबों की याद आई है। यूपीए सरकार ने सरकारी विकास कार्यक्रमों के शब्दकोष से गरीबी उन्मूलन शब्द को हटाकर उसकी जगह 70 के दशक के लोकप्रिय नारे 'गरीबी हटाओ` को शामिल करने का फैसला किया है। यूपीए सरकार के इस फैसले को कई राजनीतिक और आर्थिक पर्यवेक्षकों ने बहुत महत्व दिया है और उनमें से कई को ऐसा लगता है कि कांग्रेस एक बार फिर 70 के दशक की राजनीति को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रही है। उनमें से कई पर्यवेक्षक इस बदलाव को बड़ी उम्मीद भरी नजर से देख रहे हैं।
लेकिन क्या कांग्रेस सचमुच इस नारे और इसके साथ जुड़ी राजनीति को लेकर गंभीर है ? कांग्रेस की राजनीति में पिछले तीन दशकों में आए बदलाव को देखते हुए तो ऐसा नहीं लगता है कि कांग्रेस इस नारे को लेकर कहीं से भी गंभीर है। वैचारिक तौर पर कांग्रेस ने इस नारे को अस्सी के दशक के शुरूआत में ही छोड़ना शुरू कर दिया था जब श्रीमती इंदिरा गांधी 1980 में दोबारा सत्ता में लौटीं। राजीव गांधी और उनके बाद नरसिंहा राव के कार्यकाल में कांग्रेस का राजनीतिक-वैचारिक झुकाव मध्य-दक्षिण की ओर और ज्यादा बढ़ा।
श्रीमती सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेसी राजनीति के मध्य-दक्षिण झुकाव में स्थायित्व आया है और आज कांग्रेस लगभग सभी वैचारिक और व्यवहारिक अर्थों में राष्ट्रीय राजनीति में मध्य-दक्षिण वैचारिक धुरी का प्रतिनिधित्व करती है। आश्चर्य नहीं कि कांग्रेस के राजनीतिक-आर्थिक कार्यक्रम में गरीबी का सवाल हाशिए पर चला गया है। यही कारण है कि 2004 के आम चुनावों से पहले काफी माथापच्ची के बाद कांग्रेस ने अपने केंद्रीय नारे के लिए 'गरीब` के बजाय 'आम आदमी` शब्द का चुनाव किया। इसकी वजह यह थी कि पार्टी में गरीबी के सवाल को उठाने को लेकर गहरा संदेह था।
लेकिन ऐसा लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व को योजना आयोग और सरकार की ओर से पेश गरीबी उन्मूलन के आंकड़ों पर पूरा विश्वास था। यही नहीं, उसने गरीबी के इन आंकड़ों से कहीं अधिक मॉर्गन-स्टेनली, मैकेन्सी, एटी कियर्नी, बोस्टन कन्सल्टिंग जैसी बाजार की नामी-गिरामी कन्सल्टिंग कंपनियों की उन रिपोर्टों पर ज्यादा भरोसा दिखाया जिसमें भारत के तेजी से बढ़ते और फैलते मध्यमवर्ग का गुणगान किया गया था। इन कंपनियों की रिपोर्टों के मुताबिक भारत में मध्यमवर्ग का आकार 15 करोड़ से लेकर 25 करोड़ के बीच है। यानि सरकारी और बाजारी आंकड़ों के मुताबिक देश में गरीबों और मध्यवर्ग की तादाद लगभग बराबर हो चुकी है।
कांग्रेस नेतृत्व ने इन आंकड़ों के मद्देनजर गरीबी की बजाय मध्यवर्गीय मुद्दों को उठाना बेहतर समझा। वैसे भी कांग्रेस ने 80 के दशक के मध्य में ही कथनी के स्तर पर भी गरीबों का साथ छोड़ दिया था। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि 1986 में सरकारी कार्यक्रमों में गरीबी हटाओं की जगह गरीबी उन्मूलन शब्द आ गया। यह वही दौर था जब आर्थिक उदारीकरण की संतान के रूप में मध्यम और नवदौलतिया वर्ग का उभार और विस्तार हो रहा था। लेकिन उसके साथ ही गरीब हाशिए पर धकेले जा रहे थे।
90 के दशक में इस प्रक्रिया ने और जोर पकड़ा और अर्थनीति की कमान पूरी तरह से अमीरों और नवदौलतिया वर्ग के हाथ में आ गई। पिछले डेढ़ दशक में बजट दर बजट हर वित्तमंत्री की पहली कोशिश देशी-विदेशी बड़ी पूंजी, शेयर बाजार और मध्यमवर्ग को खुश करने की रही है। अलबत्ता फैशन के तौर पर वित्तमंत्रियों ने बजट भाषणों मे चलते-चलाते गरीबों और गरीबी का जिक्र जरूर किया लेकिन वास्तविकता में अर्थनीति में गरीबों के लिए कोई जगह नहीं रह गई थी।
राजनीतिक-आर्थिक तौर पर यह मान लिया गया कि देश में गरीबी उन्मूलन का लक्ष्य करीब-करीब पूरा हो गया है और बाकी बचे 20-25 फीसदी गरीब भी धीरे-धीरे गरीबी रेखा से उपर आ जाएंगे। इसके लिए अलग से कोई कार्यक्रम चलाने या योजना बनाने का कोई औचित्य नहीं है। यही कारण है कि 90 के दशक के उत्तरार्द्ध और मौजूदा दशक के शुरूआती वर्षों में नीति-निर्माताओं में इस बात पर लगभग आम सहमति बन गयी थी कि केन्द्र सरकार द्वारा चलाए जा रहे गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों को खत्म कर देना चाहिए क्योंकि उसमें कीमती आर्थिक संसाधनों की बर्बादी हो रही है।
यही कारण है कि 2004 के आम चुनावों से पहले कांग्रेस पार्टी ने गरीबी हटाओ के बजाय 'कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ` जैसा एक मध्यवर्गीय नारा दिया। इस नारे में गरीब के बजाय 'आम आदमी` शब्द के इस्तेमाल के पीछे उद्देश्य मध्य वर्ग को आकर्षित करना था। जाहिर है इसके पीछे एनडीए के फीलगुड और इंडिया शाइनिंग जैसे नारों का दबाव था। दरअसल, कांग्रेस और एनडीए एक ही राजनीतिक स्पेस के लिए झगड़ रहे थे। लेकिन 2004 के चुनावों में गरीबों ने एनडीए की फीलगुड की राजनीति को जबरदस्त झटका दिया और कांग्रेस के भाग्य से छींका टूट गया। उसे बिना कुछ किए सत्ता की मलाई चाटने को मिल गई।
लेकिन 2004 के आम चुनावों ने साफ तौर पर दिखा दिया कि गरीबी और गरीबों के सवाल को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। इसके बावजूद सत्ता में आए यूपीए ने पिछले ढाई साल में ग्रामीण रोजगार गारंटी जैसे कुछेक आधे-अधूरे और सीमित कार्यक्रमों के अलावा गरीबी के सवाल को अपने राजनीतिक-आर्थिक एजेंडे पर हाशिए पर ही रखा है। यूपीए सरकार अब भी उसी नवउदारवादी आर्थिक नीति को आगे बढ़ा रही है जिसमें गरीबों के लिए कोई जगह नहीं है और जो वैचारिक तौर पर यह मानती है कि तेज विकास के साथ गरीबी खुद-ब-खुद खत्म हो जाएगी।
इससे सहज ही यूपीए सरकार और कांगे्रस की वैचारिक गरीबी का अंदाजा लगाया जा सकता है। दरअसल, आज गरीबी का सवाल सिर्फ गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रहे 35 फीसदी लोगों का सवाल नहीं है बल्कि उदारीकरण के दौर में देश में बढ़ रही आर्थिक गैर बराबरी से भी जुड़ा है। पिछले डेढ दशक में देश में आर्थिक असमानता तेजी से बढ़ी है। एक छोटे से नवदौलतिया वर्ग के पास इफरात पैसा आया है जबकि खुद मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा आज गरीबी रेखा से नीचे की स्थिति में गुजर-बसर कर रहा है। हाल के वर्षों में आर्थिक कारणों से निम्न और सामान्य मध्यवर्ग में सामुहिक आत्महत्याओं की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं।
जाहिर है कि गरीबी हटाने का सवाल गैर बराबरी मिटाने के सवाल से भी जुड़ गया है। इसलिए यूपीए सरकार ने भले ही गरीबी हटाओ नारे को अपनाने का फैसला किया है लेकिन इसके प्रति उसकी प्रतिबद्धता संदेह के घेरे में है। उसकी नीतियों में इसकी झलक कहीं नहीं दिखाई पड़ रही है। यही नहीं, कांग्रेस पार्टी के राजनीतिक-आर्थिक कार्यक्रम में भी यह नारा अभी मुख्य एजेंडा नहीं बना है, अन्यथा यह नारा कांग्रेस की कार्यसमिति या महाधिवेशन के जरिए सामने आना चाहिए था।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें