सोमवार, नवंबर 12, 2007

कूड़ेदान में माशेलकर समिति की रिपोर्ट...

माशेलकर समिति की रिपोर्ट की असली जगह कूड़ेदान ही है। इसने दोबारा रिपोर्ट तैयार करने का नैतिक हक खो दिया है। 
 
आखिरकार जाने-माने वैज्ञानिक और सीएसआईआर के पूर्व महानिदेशक आरए माशेलकर को यह स्वीकार करते हुए अपनी विवादास्पद रिपोर्ट को रद्द करने की सिफारिश करनी पड़ी है कि उसमें बगैर स्रोत का उल्लेख किए हुए पैरा दर पैरा एक अन्य शोध रिपोर्ट से नकल की गई है। ध्यान रहे कि केन्द्र सरकार ने माशेलकर की अध्यक्षता में भारतीय पेटेंट कानून की समीक्षा के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया था। इस समिति से इस बात की जांच करने के लिए कहा गया था कि भारतीय पेटेंट कानून विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के तहत बौद्धिक संपदा अधिकार समझौते (ट्रिप्स) के प्रावधानों के अनुकूल है या नहीं ?

माशेलकर समिति ने पिछले 29 दिसम्बर को अपनी रिपोर्ट और अनुशंसाएं वाणिज्य मंत्रालय को सौंप दी थीं। लेकिन रिपोर्ट सार्वजनिक होने के बाद से ही विवादों में घिर गई थी। इस रिपोर्ट पर सबसे गंभीर आरोप यह था कि समिति के सामने प्रस्तुत एक वकील शमनाद बशीर के शोधपत्र से बिना स्रोत का उल्लेख किए हुए शब्दश: और पैरा दर पैरा नकल करके यह सिफारिश की गई थी कि भारतीय पेटेंट कानून ट्रिप्स के प्रावधानों के अनुकूल नहीं है। बशीर ने यह शोध पत्र ब्रिटेन के इंटेलेक्चुअल प्रोपर्टी इंस्टिट्यूट (आईपीआई) के लिए तैयार किया था। आईपीआई के इस शोध प्रोजेक्ट को स्विटजरलैंड की एक संस्था इंटरपैट ने वित्तीय मदद दी थी। इंटरपैट यूरोप, जापान और अमेरिका की कुछ बड़ी दवा कंपनियों की एक ऐसी संस्था है जिसका घोषित उद्देश्य ''पूरी दुनिया में बौद्धिक संपदा कानूनों में सुधार को प्रोत्साहित करना है।``

कहने की जरूरत नहीं है कि इंटरपैट की वित्तीय मदद से तैयार शोध रिपोर्ट की नकल उतारकर और उसके मुताबिक अनुशंसाएं करके माशेलकर समिति ने हितों के टकराव (कनफ्लिक्ट ऑफ इंट्रेस्ट) का शर्मनाक उदाहरण पेश किया है। हालांकि यह बहुत संगीन आरोप है लेकिन माशेलकर समिति ने जिस तरह से एक अत्यंत संवेदनशील और जीवन-मरण के प्रश्न पेटेंट के मुद्दे के साथ खिलवाड किया है, उसे देखते हुए इस रिपोर्ट को रद्द करने के अलावा उनके पास और कोई चारा भी नहीं बचा था। आखिर माशेलकर समिति की एक ऐसी चोरी सार्वजनिक तौर पर पकड़ी गई थी जो पिछले दरवाजे से देश के करोड़ो लोगांे से सस्ती दवाइयों का अधिकार छीन लेने की कोशिश कर रही थी।

उल्लेखनीय है कि दुनिया की कई बड़ी बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां भारतीय पेटेंट कानून को ट्रिप्स के प्रतिकूल बताते हुए उसमें बदलाव के लिए अभियान चला रही हैं। इन कंपनियों का कहना है कि संशोधित भारतीय पेटेंट कानून डब्ल्यूटीओ के ट्रिप्स प्रावधानों के अनुकूल नहीं है क्योंकि वह इन दवा कंपनियों को उन दवाओं को दोबारा पेटेंट कराने से रोकता है जिसमें सचमुच कोई नया रासायनिक अणु न खोजा गया हो और वह पिछली दवा से बिल्कुल अलग हो। दरअसल, बड़ी बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां अपनी पेटेंटीकृत दवाओं पर से अपना एकाधिकार नहीं खोना चाहती हैं और इसके लिए वे एक चोर दरवाजे का इस्तेमाल करती हैं। वे जिन दवाओं का पेटेंट खत्म होनेवाला होता है, उसमें थोडा-बहुत फेर-बदल करके उसे फिर से पेटेंट कराने की कोशिश करती हैं। इस प्रक्रिया को दवाओं की 'सदाबहार` (एवरग्रीनिंग) प्रक्रिया कहते हैं।

जाहिर है कि इसका उद्देश्य दवाओं पर पेटेंट एकाधिकार कायम रखते हुए अधिक से अधिक मुनाफा कमाना है। लेकिन डब्ल्यूटीओ के ट्रिप्स समझौते के तहत भारतीय पेटेंट कानून में संशोधन करते हुए भारी जन दबाव के कारण यूपीए सरकार को यह प्रावधान करना पड़ा कि दवाओं के पेटेंट के लिए सदाबहार प्रक्रिया को इजाजत नहीं दी जाएगी और केवल उन्हीं दवाओं को पेटेंट किया जाएगा जिनमें सचमुच में कोई नयापन और खोज के साथ-साथ उसके प्रभाव में इजाफा हुआ हो। हालांकि संशोधित पेटेंट कानून कई मामलो में ढीला-ढाला है और उसमें कई छेद छोड़ दिए गए हैं जबकि डब्ल्यूटीओ के तहत ट्रिप्स समझौते में इस बात की पर्याप्त गुंजाइश है कि पेटेंट की सदाबहार प्रक्रिया को इजाजत न दी जाए।

जब से पेटेंट कानूनों में संशोधन हुआ है, बड़ी बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां यूपीए सरकार पर दबाव बनाए हुए हैं कि मौजूदा कानून ट्रिप्स प्रावधानों के अनुकूल नहीं हैं, इसलिए उनमें संशोधन किया जाना चाहिए। उनकी आपत्ति की एक बड़ी वजह यह भी है कि कई पेटेंटीकृत दवाओं की जेनेरिक संस्करण भारतीय कंपनियां बना रही हैं जो मूल दवा की तुलना में काफी सस्ती हैं। लेकिन इस जारी विवाद को बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी नोवार्तिस ने एक नया आयाम दे दिया है। नोवार्तिस ने कैंसर के इलाज में इस्तेमाल होनेवाली अपनी एक पेटेंट दवा ग्लीवेक के भारत में पेटेंट के लिए चेन्नई के पेटेंट कार्यालय में आवेदन किया था। ग्लीवेक का एक अत्यंत सस्ता जेनेरिक संस्करण भारतीय बाजारों में पहले से उपलब्ध है।

प्रसंगवश यहां यह बताना जरूरी है कि नोवार्तिस के ग्लीवेक की एक महीने की खुराक लगभग सवा लाख रूपए की पड़ती है जबकि उसका भारतीय जेनेरिक संस्करण सिर्फ 8,500 रूपए से लेकर 12,000 रूपए तक में उपलब्ध है। यही कारण है कि कैंसर रोगियों के संगठन और अन्य कई गैर सरकारी संगठनों ने नोवार्तिस के इस आवेदन का विरोध किया। उनका तर्क था कि नोवार्तिस ने ग्लीवेक में कोई नयापन या विशेष खोज नहीं की है और वह सिर्फ इस दवा पर एकाधिकार बनाए रखने के लिए सदाबहार प्रक्रिया का सहारा ले रही है। दोनों पक्षों के तर्कों को सुनने और काफी विचार के बाद पेटेंट कार्यालय ने नोवार्तिस के आवेदन को खारिज कर दिया। लेकिन अब नोवार्तिस ने न सिर्फ चेन्नई पेटेंट कार्यालय के इस फैसले को चेन्नई उच्च न्यायालय में चुनौती दी है बल्कि उसने भारतीय पेटेंट कानून को ट्रिप्स के प्रावधानों के खिलाफ बताते हुए रद्द करने की अपील की है।

सर्वाधिक हैरत की बात यह है कि यूपीए सरकार ने बड़ी बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के हमले से भारतीय पेटेंट कानून का बचाव करने के बजाय उसकी समीक्षा के लिए अप्रैल 2005 में सीएसआईआर के महानिदेशक आरए माशेलकर की अध्यक्षता में पांच सदस्यीय तकनीकी विशेषज्ञ समिति का गठन करने का फैसला किया। लगभग डेढ़ साल की मशक्कत के बाद माशेलकर समिति ने यह रिपोर्ट दी है कि भारतीय पेटेंट कानून ट्रिप्स के प्रावधानों के अनुकूल नहीं है और यह राष्ट्रहित में नहीं है। कहने की जरूरत नहीं है कि नोवार्तिस जैसी बड़ी बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां माशेलकर समिति की रिपोर्ट को अपनी जीत की तरह पेश कर रही हैं।

लेकिन माशेलकर समिति ने अपनी रिपोर्ट के लिए जिस शमनाद बशीर के तर्कों की शब्दश: नकल की, उसकी नैतिक वैधता पर ही गहरे सवालिया निशान है। बशीर का यह तर्क है कि किसी दवा के लिए दोबारा पेटेंट के आवेदन पर विचार करते हुए किसी देश के पेटेंट कानूनों को ''सदाबहार`` प्रक्रिया और उस दवा में ''वृद्धि मूलक खोज`` (इंक्रिमेंटल इन्नोवेशन) के बीच फर्क करना चाहिए। बशीर के मुताबिक सदाबहार प्रक्रिया के आधार पर पेटेंट नहीं होना चाहिए लेकिन वृद्धिमूलक खोज को प्रोत्साहित करने के लिए उस पर पेटेंट दिया जाना चाहिए। कहने की जरूरत नहीं है कि अधिकांश बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों का दावा है कि वे जिन दवाओं पर दोबारा पेटेंट की मांग कर रहे हैं उनमें वृद्धिमूलक खोज की गई है।

दरअसल, ग्लीवेक के लिए नोवार्तिस का भी यही दावा है। लेकिन अगर इस दावे को स्वीकार कर लिया गया तो यह एक ऐसा चोर दरवाजा खोल देगा जिसका दुरूपयोग करते हुए बड़ी बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां अपनी अधिकांश दवाओं को दोबारा पेटेंट करा लेंगी। इससे सस्ती जेनेरिक दवाएं खत्म हो जाएंगी। ट्रिप्स समझौते के अनुसार पेटेंट कानूनों में संशोधन के बाद से पिछले कुछ वर्षों में दवाओं की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि हुई है। अब अगर यूपीए सरकार बड़ी बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के आगे घुटने टेकते हुए पेटेंट कानूनों में और संशोधन के लिए तैयार हो जाती है तो यह जनस्वास्थ्य के ताबूत में आखिरी कील की तरह होगा। इसे किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

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