भारतीय अर्थव्यवस्था इन दिनों आठवें आसमान पर है। कहने का तात्पर्य यह कि लगातार तीसरे वर्ष अर्थव्यवस्था ने उम्मीद से कहीं अच्छा प्रदर्शन किया है। केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) के अग्रिम अनुमान के मुताबिक चालू वित्तीय वर्ष 2005-06 में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकासदर 8.1 प्रतिशत रहने की उम्मीद है। सीएसओ के आंकड़ों के अनुसार इसके पिछले वर्ष 2004-05 में जीडीपी की विकासदर 7.5 प्रतिशत और उसके पहले 2003-04 में 8.5 प्रतिशत तक पहुंच गई थी। जाहिर है कि लगातार तीन वर्षों से औसतन 8 प्रतिशत की उंची विकासदर एक बड़ी कामयाबी है।
स्वाभाविक है कि प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री से लेकर गुलाबी अखबार तक अर्थव्यवस्था की इस कामयाबी पर गदगद हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कहना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था ने 8 प्रतिशत की विकासदर हासिल कर ली है और अब देश को 10 प्रतिशत की विकासदर हासिल करने के लिए आगे बढ़ना चाहिए। उनका मानना है कि दोहरे अंक की विकासदर हासिल करना पूरी तरह से संभव है। यह दावा करने वाले वे अकेले नहीं हैं। इन दिनों रिजर्व बैंक से लेकर फिक्की तक और वित्त मंत्रालय से लेकर विश्व बैंक तक ऐसे दावों से गूंज रहे हैं। इसी आधार पर 2020 तक भारत के एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभरने की भविष्यवाणियां भी की जा रही हैं।
लेकिन सवाल यह है कि इन दावों में कितनी सच्चाई है? अभी कुछ दिनों पहले ही योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने विश्व आर्थिक मंच के सम्मेलन में बड़ी निराशा के साथ कहा था कि गठबंधन की सरकार के दौर में 8 प्रतिशत की विकासदर भी हासिल हो जाए तो बड़ी बात है। अहलूवालिया का तर्क था कि मौजूदा समय में 8 प्रतिशत से अधिक की विकासदर की कल्पना करना इसलिए उचित नहीं है क्योंकि गठबंधन राजनीति की खींचतान और दबावों के कारण सरकार के लिए आर्थिक सुधारों की गति को तेज करना और स्वतंत्र फैसले ले पाना संभव नहीं होता है।
स्वयं प्रधानमंत्री ने 10 प्रतिशत की विकासदर हासिल करने के लिए कई अगर-मगर का इस्तेमाल किया। उनका कहना है कि अगर कृषि क्षेत्र की विकासदर में एक लंबी छलांग लगाई जा सके, ढांचागत क्षेत्र में भारी निवेश से उद्योग क्षेत्र को नई गतिशीलता दी जा सके और सेवा क्षेत्र इसी तरह शानदार प्रदर्शन करता रहे तो 10 प्रतिशत की विकासदर हासिल की जा सकती है। लेकिन यह कहने का क्या तुक है कि यह होता तो वह होता, वह होता तो यह होता। सवाल यह है कि क्या है और उसमें क्या हो सकता है? अगर इस लिहाज से देखा जाए तो 8 प्रतिशत की औसत विकासदर को ही अगले कुछ वर्षों तक बनाए रखना सबसे बड़ी चुनौती है।
अगर पिछले पांच वर्षों के उदाहरण को लिया जाए तो विकासदर में एक निरंतरता का अभाव साफ दिखाई पड़ता है। उदाहरण के लिए सीएसओ के नए आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2000-01 में जीडीपी की विकासदर 4.4 प्रतिशत थी जो अगले वर्ष 2001-02 में थोड़ा बढ़कर 5.8 प्रतिशत पर पहुंच गई। लेकिन इसके बाद अगले ही वर्ष 2002-03 में जीडीपी की वृद्धिदर लुढ़ककर पिछले एक दशक के सबसे कम स्तर 3.8 प्रतिशत पर पहुंच गई। लेकिन 2003-04 में वह एक बार फिर उछलकर 8.5 प्रतिशत पर पहुंच गई। लेकिन अगले वर्ष 2004-05 में थोड़ा गिरकर 7.5 प्रतिशत रह गई। इस तरह पिछले छह वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था की औसत विकासदर 6.35 प्रतिशत के आसपास दर्ज की गई है।
यह सच है कि पिछले तीन वर्षों में अर्थव्यवस्था में औसतन 8 प्रतिशत की दर से बढ़ोत्तरी हुई है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या इस विकासदर को आने वाले वर्षों में भी बनाए रखा जा सकेगा? मौजूदा स्थितियों को देखते हुए यह संभव नहीं लगता है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि अर्थव्यवस्था के दो महत्वपूर्ण क्षेत्र कृषि और उद्योग क्षेत्र के प्रदर्शन में काफी अस्थिरता बनी हुई है। खासकर कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन अपेक्षा से काफी खराब है। उदाहरण के लिए वर्ष 2000-01 से लेकर 2005-06 के बीच छह वर्षों में कृषि क्षेत्र की विकासदर क्रमश: 0.0, 6.2,(-)6.9, 10.0, 0.7 और 2.3 प्रतिशत दर्ज की गई। इस तरह से इन छह वर्षों में कृषि की औसत विकासदर सिर्फ 2 प्रतिशत दर्ज की गई है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि कृषि क्षेत्र कितने गंभीर संकट से गुजर रहा है।
इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि कृषि क्षेत्र अब भी इन्द्र देव की कृपा पर निर्भर है। मानसून अच्छा रहा तो विकासदर आसमान छूने लगती है और मानसून के गड़बड़ाते ही विकासदर पाताल में पहुंच जाती है। हालांकि देश की 60 प्रतिशत से अधिक आबादी अब भी अपनी आजीविका के लिए कृषि क्षेत्र पर निर्भर है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि देश की अर्थव्यवस्था यानी जीडीपी के आकलन में कृषि क्षेत्र का वजन घटकर 25.3 प्रतिशत रह गया है। जबकि सेवा क्षेत्र का वजन ६० फीसदी से उपर पहुंच गया है। यही कारण है कि कृषि क्षेत्र के खराब प्रदर्शन के बावजूद पिछले और चालू वित्तीय वर्ष में जीडीपी की विकासदर पर कोई खास असर नहीं पड़ा।
आप कह सकते हैं कि एक तरह से 8 प्रतिशत की विकासदर का रास्ता कृषि क्षेत्र को बाईपास करके निकल रहा है। यही नहीं, जीडीपी में उद्योग क्षेत्र का योगदान भी घटकर मात्र 14.7 प्रतिशत रह गया है। आश्चर्य नहीं कि इस उंची विकासदर को 'रोजगार विहीन विकास` के रूप में भी पहचाना जाता है। खुद सरकारी आंकड़ो के मुताबिक वर्ष 1997 से 2003 के बीच छह वर्षों में संगठित क्षेत्र में कुल रोजगार 2.82 करोड़ से घटकर 2.70 करोड रह गया है। इस तरह इन छह वर्षों में संगठित क्षेत्र में कुल 12 लाख लोगों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है।
यह एक सच्चाई है कि मौजूदा आर्थिक ढांचे में 8 प्रतिशत की उंची विकास दर देश की कुल आबादी के अधिकतम 15 से 20 करोड़ लोगों तक सीमित है और वे ही इसका पूरा लाभ उठा रहे हैं। अगर आने वाले वर्षों में अर्थव्यवस्था के इस छोटे से आधार को व्यापक नहीं बनाया गया तो इसे टिकाए रखना बहुत मुश्किल होगा। न सिर्फ आर्थिक रूप से बल्कि सामाजिक और राजनीतिक रूप से भी। इसलिए उंची विकासदर से खुश होने के बजाय इसमें छुपी चेतावनी को समझने की जरूरत है। अन्यथा विकास का यह रास्ता लंबे समय तक टिकाऊ रास्ता नहीं हो सकता है।
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