रविवार, नवंबर 04, 2007

अमीरी बढ़ाओ, गरीबी हटाओ !

देश के सबसे बड़े अंग्रेजी अखबार ने हाल में  अपने पहले पृष्ठ की एक खबर में बड़े हर्ष के साथ एलान किया है कि 'भारत को जल्दी ही अधनंगे भिखारियों और भूखे बच्चों की घिसीपिटी छवियों से मुक्ति मिल सकती है।` आप पूछ सकते हैं कि यह चमत्कार कैसे होगा ? अखबार का जवाब बहुत आसान है-'ऐसा इसलिए कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र के देशों की तुलना में भारतीय ज्यादा तेजी से अमीर हो रहे हैं। वर्ष 2005 के आखिरी में भारत में 10 लाख डालर (यानी 4.5 करोड़ रूपये) से अधिक वित्तीय संपत्ति (घर-मकान और उपभोग की वस्तुएं छोड़कर) रखनेवाले अमीर  भारतीयों की तादाद पिछले वर्ष की तुलना में 19.3 फीसदी बढ़कर 83 हजार हो गयी है।

जाहिर है कि इस अखबार तर्क बहुत सीधा और आसान है। भारत से गरीबी और भूखमरी  खत्म करनी है तो अमीरी बढ़ाओ ! अखबार के  मुताबिक चूंकि भारत में अमीरों की संख्या में सालाना २० फीसदी की रफ्तार से वृद्धि हो रही है, इसलिए गरीबों की तादाद खुद-ब-खुद कम होती चली जाएगी। आप सोच रहे होंगे कि यह दिव्य ज्ञान इतनी देर से क्यों आया ? आखिर इस बीच देश ने न जाने कितना पैसा, समय और श्रम गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों के नाम पर जाया कर दिया। आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर यूपीए सरकार हाल में घोषित 'गरीबी हटाओ` के घिसेपिटे नारे को वापस लेकर 'अमीरी बढ़ाओ` अभियान शुरू कर दे !

इस सोच पर हैरान होने की जरूरत नहीं है। यह केवल इस अंग्रेजी अखबार तक सीमित नहीं है। यह उस नवउदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के केंद्र में मौजूदा है जो पिछले डेढ़-दो दशकों से देश का भाग्य तय कर रही है और जिसके सबसे बड़े चैम्पियन खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हैं। अगर गरीबों के हाथ में वोट की ताकत और उसका राजनीतिक दबाव नहीं होता तो मनमोहन सिंह आधे और बुझे मन से 'गरीबी हटाओ` का नारा देने के बजाय खुशी-खुशी 'अमीरी बढ़ाओ` का अभियान चला रहे होते। वे और उनके साथी अक्सर राजनीतिक दबाव और मजबूरियों का  रोना रोते रहते हैं कि उन्हें आर्थिक उदारीकरण को आगे बढ़ाने (यानी अमीरी बढ़ाओ) की खुली छूट नहीं मिल रही है।

सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि अगर मनमोहन सिंह और उनके साथियों को खुली छूट होती तो देश में करोड़पतियों की तादाद 20 के बजाय 40 फीसदी सालाना की दर से बढ़ रही होती और वे मात्र 83 हजार के बजाय कम से कम डेढ़-दो लाख तो होते ही ! जाहिर है अमीर जितनी तेजी से बढ़ते, गरीबी उसी तेजी से खत्म होती जाती। लेकिन अफसोस की बात यह है कि यथार्थ में यह फार्मूला ठीक इसी तरह से लागू नहीं होता। दुनिया के कई अन्य देशों की तरह भारतीय अनुभव भी ठीक इसके उलट हैं।

तथ्य यह है कि जब देश में करोड़पतियों की तादाद सालाना 20 फीसदी की तेज गति से बढ़ रही है, उस समय स्वयं योजना आयोग के आंकड़ों के अनुसार 1993-94 से 2004-05 के बीच 11 वर्षों में गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करनेवाले भारतीयों की तादाद में सालाना औसतन मात्र 0.74 प्रतिशत की कमी दर्ज की गयी है। देर से ही सही, अब स्वयं योजना आयोग ने स्वीकार कर लिया है कि देश में गरीबों की तादाद वर्ष 2004-05 में 28 फीसदी थी। यह स्वीकारोक्ति इसलिए महत्वपूर्ण है कि योजना आयोग ने पहले सर्वेक्षण पद्धति में बदलाव कर 1999-2000 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) द्वारा करवाए गए सर्वेक्षण के आधार घोषित कर दिया था कि देश में गरीबों की तादाद  93-94 के 36 प्रतिशत से घटकर 99-2000 में 26 प्रतिशत रह गयी है।

हालांकि इस बदली हुई सर्वेक्षण पद्धति और उसके नतीजों की 93-94 के सर्वेक्षण परिणामों  से तुलना को लेकर उस समय भी कई गंभीर सवाल उठे थे और योजना आयोग ने भी माना था कि सर्वेक्षण पद्धति में बदलाव के कारण दोनों आंकडे  तुलनीय नहीं हैं। इसके बावजूद उस समय से गरीबी कम करने में आर्थिक उदारीकरण की सफलता की विरुदावली खूब जोरशोर से गायी जा रही है। अब एनएसएसओ ने 2004-05 में दोनों पद्धतियों से सर्वेक्षण कराया है और 93-94 की सर्वेक्षण पद्धति के अनुसार 04-05 में गरीबों की तादाद 28 फीसदी और 99-2000 की सर्वेक्षण पद्धति के अनुसार 22 फीसदी है। इसका अर्थ यह हुआ कि 93-94 की सर्वेक्षण पद्धति के मुताबिक देश में 11 वर्षों में गरीबों की तादाद में मात्र 8 फीसदी (सालाना  0.74 फीसदी) की कमी दर्ज की गयी है जबकि नई सर्वेक्षण पद्धति के अनुसार भी 99-2000 से 04-05 के बीच 5 वर्षों में गरीबों की संख्या में मात्र 4 प्रतिशत (सालाना 0.79 प्रतिशत) की कमी आई है।

स्पष्ट है कि देश में अमीरों की संख्या में  जिस तेजी से वृद्धि हो रही है और उनकी वित्तीय परिसंपत्तियों और आय में जिस ज्यामितकीय गति से बढ़ोत्तरी हो रही है,उसकी तुलना में गरीबी रेखा से उपर उठनेवालों की रफ्तार बहुत धीमी और सुस्त है। अमीरों की संख्या खरगोश की तेजी से छलांगे मार रही है जबकि गरीबों की तादाद कछुआ गति से घट रही है। सवाल है कि ऐसा क्यों हो रहा है ? क्या इसकी वजह यह है कि अमीरी का संकेद्रण हो रहा है और इस कारण बढ़ती समृद्धि का उचित और न्यायपूर्ण बंटवारा नहींे हो रहा है ? गरीबों को उनका हिस्सा नहीं मिल पा रहा है ?

तथ्य इसी ओर इशारा कर रहे हैं। भूमंडलीकण और उदारीकरण से पैदा हुई कुछ ही हाथों में सिमटती जा रही है। उदाहरण के  लिए मेरिल लिंच और कैपजेमिनी द्वारा जारी 83 हजार भारतीय करोड़पतियों की कुल वित्तीय परिसंपत्तियां 290 अरब डालर है जो कि 2004-05 में देश के कुल जीडीपी का लगभग 58 फीसदी बैठता है। इस तरह एक औसत भारतीय करोड़पति की परिसंपत्ति  34.9 लाख डालर बैठती है जबकि एक आम भारतीय की सालाना आय लगभग 620 डालर है। तात्पर्य यह कि एक करोड़पति की वित्तीय परिसंपत्तियां 5,635 भारतीयों की कुल सालाना आय के बराबर है। इस तरह 83 हजार करोड़पतियों की कुल परिसंपत्तियां 46.77 करोड़ आम भारतीयों की औसत सालाना आय के बराबर है।

आर्थिक समृद्धि का जब इस हद तक संकेंद्रण होने लगता है तो गरीबी कम होना तो दूर समाज में आर्थिक असमानता यानी अमीर और गरीब के बीच आय का फासला और चौड़ा होने लगता है। आर्थिक उदारीकरण का सबसे बड़ा पैरोकार विश्व बैंक भी स्वीकार करता है कि 90 के दशक में भारत में आर्थिक असमानता में स्पष्ट तौर पर वृद्धि हुई विश्व बैंक की विकास नीति समीक्षा रिपोर्ट 2006 के अनुसार 1987-88 से 1999-2000 के बीच भारत के सुपर अमीरों (कुल जनसंख्या के महज  0.1 प्रतिशत) की आय में 285 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी। दूसरी ओर, देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को दो-जून की रोटी जुगाड़ना भी मुश्किल होता जा रहा है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2 के अनुसार देश की 50 प्रतिशत महिलाएं और 70 प्रतिशत बच्चे रक्ताल्पता (एनीमिया) से पीड़ित हैं।

विश्व खाद्य संगठन के अनुसार भारत में कुल जनसंख्या का 20 प्रतिशत (यानी लगभग 21 करोड़ लोग) कुपोषण से ग्रस्त हैं। वैश्विक भूखमरी रिपोर्ट, 2006 के एक आकलन के मुताबिक भारत में वर्ष 2000 के बाद भूख और कुपोषण से हर साल मरनेवालों की कुल तादाद 1943 के बंगाल के अकाल के समय मरनेवालों की कुल संख्या से भी अधिक हो गयी है। स्थिति कितनी भयावह हो गयी है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि देश के सबसे धनी और विकसित राज्यों में शुमार होनेवाले महाराष्ट्र में खुद राज्य सरकार द्वारा वर्ष 2004 में गठित एक समिति की रिपोर्ट के अनुसार उसके ठीक पहले के वर्षों में राज्य में सवा लाख से पौने दो लाख बच्चों ने कुपोषण और बीमारी के कारण दम तोड़ दिया।

जाहिर है कि अमीरी बढ़ने के बावजूद न तो गरीबी अपेक्षित गति से कम हो रही है और न ही भूख और कुपोषण से मरनेवालों की संख्या घट रही है। अमीरों के लिए भले इंडिया शाइनिंग हो लेकिन आधे से अधिक भारतीयों के जीवन में अभी भी अंधकार ही छाया हुआ है। इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सभी वर्गों में प्रति व्यक्ति अनाज की खपत गिरी है। यह अनाज की कमी से नहीं बल्कि घटती ग्रामीण आय और बढ़ती महंगाई के कारण हुआ है लेकिन उदारीकरण समर्थकों का कहना है कि लोग अनाज की जगह अब दूध, फल, सब्जी आदि ज्यादा खा रहे हैं, इसलिए अनाज का उपभोग कम हुआ है।

यह सुनकर क्या आपको 'रोटी नहीं है तो केक खाने` की सलाह देनेवाली फ्रांसीसी महारानी मेरी अंतोनियोनी की याद नहीं आ रही है? सच यह है कि एनएसएसओ के 1999-2000 के सर्वेक्षण के अनुसार ग्रामीण इलाकों में आबादी का निचला 30 प्रतिशत हिस्सा गैर अनाज खाद्य वस्तुओं के उपभोग पर प्रति व्यक्ति लगभग 35 रूपये खर्च करता है। सवाल यह उठता है कि 35 रूपये में एक व्यक्ति कितना दूध, फल और सब्जी तथा अंडा-मांस खाता होगा? हकीकत यह है कि गरीबों और गरीबी रेखा के ठीक उपर की 25 फीसदी आबादी के लिए जीवन की न्यूनतम जरूरतों को भी पूरा कर पाना असंभव होता जा रहा है।

लेकिन देश की आबादी के एक छोटे हिस्से को आज शानोशौकत और उपभोग की वह हर महंगी और विदेशी वस्तु उपलब्ध है जो विकसित पश्चिमी देशों के अमीरों और संपन्न लोगों को उपलब्ध है। 'अमीरों की बढ़ती संख्या के साथ गरीबी को चुपचाप दफ्न` करने का दावा करनेवाले अंग्रेजी अखबार के रंगीन पन्नों पर निगाह डालिए तो यह सहज ही भ्रम हो सकता है कि देश से गरीबी, भूख, बीमारी और बेकारी का नामोनिशान मिट चुका है ! दिल्ली पेरिस से टक्कर लेती दिखाई देती है !! सचमुच, जन माध्यमों का जन यथार्थ से कोई संबंध नहीं रह गया है। वे किसी और ही दुनिया (शायद इंडिया शाइनिंग) के अखबार या टीवी चैनल लगते हैं।

सच यह है कि आज भारत दो स्पष्ट हिस्सों में बंट चुका है। एक ओर गरीबी, बीमारी, भूखमरी, बेकारी, अशिक्षा, लाचारी और गैर-बराबरी का बढ़ता अंधेरा है और दूसरी ओर, समृद्धि और सम्पन्नता के दिन-रात जगमगाते द्वीप हैं। चिंता की बात यह है कि दोनों भारत के बीच की दूरी तेजी से बढ़ती जा रही है। हर स्तर पर असमानता और गैर बराबरी बढ़ रही है और पहले की तुलना में वंचितों में इसका तीखा अहसास भी बढ़ रहा है क्योंकि अमीरी से अधिक अमीरी का अश्लील प्रदर्शन बढ़ रहा है। उससे भी अधिक अमीरों और उच्च मध्यम वर्ग में गरीबों के प्रति सरोकार तो दूर उल्टे असहनशीलता बढ़ती जा रही है। शहरों में जिस बेदर्दी से झुग्गियां उजाड़ी जा रही हैं, गरीबों को खदेड़ा जा रहा है और दूसरी ओर, गांवों में सेज और विकास परियोजनाओं के नाम पर जमीन और संसाधनों की लूट हो रही है, उससे साफ है कि गरीबी नहीं, गरीबों को खत्म किया जा रहा है।

लेकिन विश्व बैंक को लगता है कि इसमें कोई बुराई नहीं है बल्कि उसका तो कहना है कि यह देश के आर्थिक विकास और गरीबों के लिए अच्छा है। चौंकिए नहीं, विश्व बैंक की भारत पर केन्द्रित विकास नीति समीक्षा रिपोर्ट, 2006 में दावा किया गया है कि आय के बंटवारे में असमानता को बढ़ानेवाली नीतियां गरीबों के हित में सकती हैं बशर्ते विकास पर उनका प्रभाव व्यापक हो। यही नहीं, विश्व बैंक का यह भी मानना है कि 90 के दशक में आर्थिक उदारीकरण के कारण देश के अंदर विकसित और पिछड़े राज्यों के बीच और गहरी हुई क्षेत्रीय विषमता और गैर बराबरी नीतियों की विफलता नहीं बल्कि सफलता है।

विश्व बैंक के मुताबिक 90 के दशक में चीन में आर्थिक गैर बराबरी और क्षेत्रीय विषमता बढ़ने के कारण गरीबी घटी क्योंकि गैर बराबरी को बढ़ने दिया गया ताकि निवेश और नवाचारों को प्रोत्साहन मिले जिससे अत्यधिक उंची विकासदर हासिल हो सकी। विश्व बैंक का संदेश साफ है। संदेश यह है कि अगर देश में अमीरी बढ़ रही है लेकिन गरीबी कम नहीं हो रही है और असमानता की खाई चौड़ी हो रही है तो चिंता करने की जरूरत नहीं है। देश बिल्कुल सही दिशा में जा रहा है। यह असमानता उंची विकास दर के लिए जरूरी है। गैर बराबरी जितनी बढ़ेगी, आर्थिक विकास की दर उतनी ही तेज होगी और उससे गरीबी कम होने लगेगी। जाहिर है कि इसके लिए गरीबों को थोड़ा और सहना और इंतजार करना होगा।

दुष्यंत ने ठीक कहा था-'भूख है तो सब्रकर, रोटी नहीं तो क्या हुआ/आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दआ।`  अगर थोड़ा बारीकी से देखें तो आजकल योजना भवन में ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना को लेकर चल रही बहस और विचारों पर आप विश्व बैंक की छाप को साफ देख सकते हैं। कोई एक पखवाड़े पहले दिल्ली में पूर्ण योजना आयोग की बैठक में प्रधानमंत्री ने सबसे अधिक जोर 9 प्रतिशत की विकास दर हासिल करने पर दिया। उनका कहना था कि ऐसी रणनीति बनायी जानी चाहिए कि ग्यारहवीं योजना के आखिरी वर्षों में देश 10 प्रतिशत की विकास दर हासिल कर ले। स्पष्ट है कि ग्यारहवीं योजना का सबसे बड़ा लक्ष्य 9 से 10 प्रतिशत की उंची विकास दर हासिल करना है।

विश्व बैंक निर्देशित आर्थिक रणनीति की सबसे बड़ी पहचान यही है कि उसके लिए उंची विकास दर साधन नहीं बल्कि साध्य है। उंची विकास दर हासिल करने का मकसद गरीबी, बेकारी, भूखमरी, बीमारी और लाचारी मिटाना नहीं है क्योंकि उंची विकास दर के लिए ये जरूरी हैं। यह यूं ही नहीं है कि एक ओर देश 7 से 8 प्रतिशत की विकास दर हासिल कर रहा है और दूसरी ओर, गरीबी, बेकारी, बीमारी और लाचारी के साथ-साथ गैर बराबरी भी बढ़ रही है। इससे पता चलता है कि विश्व बैंक के निर्देश पर लागू की गयी नीतियांे का बिल्कुल वैसा ही नतीजा आ रहा है जैसाकि उसका दावा है। ग्यारहवी योजना इस 'सफल नीति` को ही आगे बढ़ाएगी।

गरीबों को उंची विकास दर से पैदा होनेवाली समृद्धि के रिस-रिसकर नीचे पहुंचने (ट्रिकल डाउन)  की प्रतीक्षा करनी होगी। यह और बात है कि ट्रिकल डाउन की  यह सैद्धांतिकी व्यवहार और सिद्धांत में कब की पिट चुकी है। इससे बड़ा धोखा और कुछ नहीं हो सकता है। ग्यारहवीं योजना इसी धोखे पर खड़ी है। तय मानिए कि इससे गरीबों और बेकारों को कुछ नहीं मिलने जा रहा है।

1 टिप्पणी:

PANKAJ PUSHKAR ने कहा…

bahut achchha doston,
I did my journalism from IIMC well before Anand Ji had joined it. I appreaciate the writings on this blog.
We belong to a magazine 'Samayik Varta' which is known for its socialist bent up. We want to create another forum for various grassroot movements, journalists and activists.

Can we build up a bridge?

pankaj.pushkar@gmail.com