सोमवार, नवंबर 12, 2007

महंगाई की सुरसा के आगे लाचार सरकार...

यूपीए सरकार यह सबक जितनी जल्दी सीख ले, उतना अच्छा है। अन्यथा उसे अगले चुनावों में इसकी राजनीतिक कीमत चुकाने के लिए तैयार रहना चाहिए।
 
वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम महंगाई रोकने के चाहे जो दावे करें लेकिन हकीकत यह है कि महंगाई के सुरसा एक बार फिर जग गई है। यूपीए सरकार महंगाई रोकने के लिए जो भी आधे-अधूरे और फौरी उपाय कर रही है, वे बेअसर साबित हो रहे हैं। साफ है कि महंगाई की सुरसा यूपीए सरकार के नियंत्रण से बाहर हो गई है। हालांकि चिदम्बरम यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है लेकिन तथ्य यह है कि महंगाई की सुरसा दिन पर दिन अपना बदन बढ़ाती जा रही है और उसके आगे सरकारी उपाय बौने साबित हो रहे हैं।

स्थिति सचमुच, नाजुक और चिंताजनक है। हालांकि वित्त मंत्री और उनके अफसर यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि स्थिति चिंताजनक है और महंगाई काबू से बाहर हो रही है। उनके मुताबिक थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर अभी भी  5.5 प्रतिशत के नीचे है और सरकार मौद्रिक और अन्य उपायों के जरिए जल्दी ही उस पर काबू पा लेगी। लेकिन सच्चाई यह है कि तमाम मौद्रिक और आर्थिक उपायों के बावजूद महंगाई की सुरसा काबू में नहीं आ रही है। इस मामले में सरकार की लाचारी साफ तौर पर नजर आ रही है।

दरअसल, यह महंगाई थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति के आंकड़ों में भले बहुत डरावनी न दिखाई पड़ती हो लेकिन इस महंगाई की मार इस मायने में काफी गहरी है कि यह दैनिक जरूरत की बहुत आवश्यक वस्तुओं और उत्पादों की कीमत में भारी उछाल के कारण आई है। इसका सीधा असर आम आदमी और उसकी दाल-रोटी पर पड़ रहा है। थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रा स्फीति की दर  5.4 प्रतिशत के आसपास होने के बावजूद प्राथमिक वस्तुओं की मुद्रास्फीति दर 7.3 प्रतिशत और उसमें भी खाद्यान्नों और खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति दर 8.5 प्रतिशत की उंचाई तक पहुंच चुकी है।

मुद्रास्फीति की यह दर इस मायने में चिंताजनक है कि पिछले कुछ वर्षों से मुद्रास्फीति की दर अमूमन 3 से लेकर 4.5 प्रतिशत के बीच बनी रही है। हालांकि अब भी यह 5.4 प्रतिशत के आसपास है। इसके बावजूद यह इसलिए बहुत चुभनेवाली है क्योंकि गेहूं, दालें, चीनी, आलू, टमाटर और अन्य आवश्यक वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रहीं है। दूसरी बात यह है कि थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर से वास्तविक महंगाई का पता नहीं चलता क्योंकि दैनिक जरूरत की चीजों का थोक मूल्य सूचकांक में भार बहुत कम है। जैसे थोक मूल्य सूचकांक में गेहूं का वजन 1.38, दालों का वजन 0.60, आलू का वजन 0.26 और सब्जियों का वजन 1.46 है। इस कारण इनकी कीमतों में भारी वृद्धि के बावजूद यह सूचकांक में उस तरह से नहीं दिखाई पड़ता जिस तरह से आम आदमी को उसकी मार झेलनी पड़ती है।

वास्तव में, थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की तुलना में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक महंगाई का कहीं ज्यादा बेहतर सूचक है। औद्योगिक श्रमिकों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर सितम्बर में 6.8 प्रतिशत की असामान्य उंचाई तक पहुंच चुकी है। इसका अर्थ यह हुआ कि अक्तूबर और नवम्बर के आंकड़ों में यह 7.5 प्रतिशत से भी उपर जा सकती है। यह निश्चित तौर पर एक ऐसी स्थिति की ओर इशारा कर रही है जिसे कहा जा सकता है कि महंगाई खतरे के निशान को पार कर रही है।

लेकिन सबसे अधिक चिंताजनक बात यह है कि यह महंगाई खुद यूपीए सरकार के निमंत्रण पर आई है। इसमें सबसे अधिक भूमिका सट्टेबाजों और जमाखोरों की है जिन्हें सरकार ने खुली छूट दे दी है। अब यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि जिंसों के वायदा कारोबार को बढ़ावा देने का फायदा किसानों को तो नहीं लेकिन सट्टेबाजों को खूब हुआ है। इसका अनुमान केवल एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि जिंसों का वायदा कारोबार 2002-03 में  0.67 लाख करोड़ रूपये हुआ था जो कि 2005 आते-आते कई गुना बढ़कर 13.87 लाख करोड़ रूपये तक पहुंच गया। सट्टेबाजों और जमाखोरों ने जिंसों के वायदा कारोबार को सट्टेबाजी के लिए खूब इस्तेमाल किया है। इसके कारण कई आवश्यक वस्तुओं की कीमतें मनमाने तरीके से बढ़ी है।

इसमें यूपीए सरकार की नीतियों ने भी खूब योगदान किया है। जैसे गेंहूं की कीमतों में भारी उछाल के पीछे सबसे बड़ी वजह यह है कि सरकार ने जिंसों के कारोबार में निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने के नाम पर 2005-06 में गेंहू की लगभग 12 प्रतिशत कम खरीददारी की जिससे सरकार के गोदामों में गेंहू की कमी हो गई और इसका फायदा जमाखोरों और सट्टेबाजों ने उठाया। नतीजा यह हुआ कि जब गेहूं की कीमतें बढ़ने लगी तो सरकार को उसके आयात का फैसला करना पड़ा लेकिन आयात के बावजूद गेहूं की कीमतों पर कोई खास असर नहीं पड़ा है।

वजह साफ है कि जब भारत जैसे विशाल देश से किसी जिंस के आयात का फैसला होता है तो अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भी उसकी कीमतें तेज हो जाती है और दूसरे, हाल के दिनों में कई जिंसों की कीमतें अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भी तेज होने के कारण आयात से कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। एक मायने में भूमंडलीकरण के साथ कीमतों का भी भूमंडलीकरण हो रहा है। पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों के साथ यह भूमंडलीकरण हर वस्तु और जिंस की कीमत को प्रभावित करता है। इससे बचने की कोई राह इसलिए भी नहीं है क्योंकि यूपीए सरकार भूमंडलीकरण का दोनों हाथों से स्वागत कर रही है। इस तरह उसने कीमतों पर नियंत्रण की क्षमता बहुत हद तक खो दी है।

यही कारण है कि महंगाई बढ़ने के बावजूद यूपीए सरकार कुछ नहीं कर पा रही है। हालांकि उसका दावा रहा है कि विदेशी मुद्रा के भारी भंडार का लाभ उठाते हुए आयात के जरिए वह महंगाई को कभी भी नियंत्रित कर लेगी। लेकिन गेहूं के मामले में यह साफ हो गया है कि केवल आयात से समस्या हल होने वाली नहीं है। इसके लिए वायदा कारोबार के साथ-साथ जमाखोरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी होगी। दूसरे, खाद्यान्न प्रबंधन की मौजूदा नीतियों में भी भारी फेरबदल की जरूरत है। विश्व बैंक के निर्देश पर खाद्यान्न और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को ध्वस्त करके महंगाई की सुरसा को काबू में नहीं किया जा सकता है। यूपीए सरकार यह सबक जितनी जल्दी सीख ले, उतना अच्छा है। अन्यथा उसे अगले चुनावों में इसकी राजनीतिक कीमत चुकाने के लिए तैयार रहना चाहिए।

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