शनिवार, नवंबर 10, 2007

सतर्कता और निरंतरता की मौद्रिक नीति...

रिजर्व बैंक के गवर्नर डॉ. वाई.वी.रेड्डी को एक पारम्परिक किस्म का बैंकर माना जाता है जो जोखिम और सतर्कता के बीच संतुलन बैठाकर चलता है। उनके नेतृत्व में रिजर्व बैंक की नीतियों में सावधानी पर कुछ अतिरिक्त ही जोर रहता है। इस कारण उन्हें आर्थिक उदारीकरण के वे समर्थक बहुत पसंद नहीं करते हैं जो आर्थिक नीतियों में जोर-शोर और तड़क-भड़क के साथ शॉक थेरेपी की वकालत करते है। शायद यही कारण है कि कई बार रेड्डी के फैसले और  वित्त मंत्रालय के विचारों के बीच टकराव  भी दिखाई पड़ता है। हालांकि वे खुद आर्थिक उदारीकरण के पक्के समर्थक हैं।

इसके बावजूद श्री रेड्डी चौंकाने में विश्वास नहीं करते है। उनका जोर नीतियों की स्थिरता और निरंतरता में रहता है। आश्चर्य नहीं कि मंगलवार को जारी सालाना मौद्रिक नीति की मध्यावधि समीक्षा पर रेड्डी की यह छाप साफ तौर पर मौजूद है। इसमें सिवाय रेपो रेट में  0.25 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी के और कोई फेर-बदल नहीं किया गया है। हालांकि रेपो रेट में इस लगातार तीसरी वृद्धि से कारपोरेट जगत से लेकर वित्त मंत्रालय और आवास कर्ज लेने वाले मध्यमवर्ग तक कोई खुश नहीं है लेकिन कम से कम वित्त मंत्रालय को इस पर बहुत आपति नहीं होगी।

मजे की बात यह है कि श्री रेड्डी ने रेपो रेट में तो वृद्धि की है लेकिन आमतौर पर रिवर्स रेपो रेट में इसके साथ होनेवाले वृद्धि नहीं की है। संकेत साफ है। रेपो रेट वह दर है जिस पर रिजर्व बैंक वाणिज्यिक बैंको को कर्ज देता है जबकि रिवर्स रेपो रेट वह दर जिसपर रिजर्व बैंक वाणिज्यिक बैंको से पैसे कर्ज लेता है। रेपो रेट में वृद्धि के जरिए रिजर्व बैंक वाणिज्यिक बैंको को दिए जानेवाले कर्ज को महंगा कर उन्हें सतर्क करना चाहता है कि वे खुद कर्ज देते हुए पर्याप्त सावधानी बरतें। पिछले कुछ महीनों से वाणिज्यिक बैंको में कर्ज खासकर आवास कर्ज और पर्सनल लोन बांटने की ऐसी होड़ शुरू हो गई है जिसे लेकर रिजर्व बैंक काफी चिंतित है।

रिजर्व बैंक ने इससे पहले भी कई बार वाणिज्यिक बैंको को इस बारे में चेताया है। खासकर वह आवास कर्ज और निर्माण क्षेत्र को दिए जाने वाले विशाल कर्ज को लेकर बैंको को सावधान कर चुका है। इसके बावजूद कर्ज बांटने को लेकर बैंको के उत्साह में कोई कमी नहीं आई। इसे लेकर रेड्डी की चिंता को समझा जा सकता है। केन्द्रीय बैंक होने के नाते बैंको के स्वास्थ्य का ध्यान रखना उनकी जिम्मेदारी है। रिजर्व बैंक का आकलन है कि आवास और निर्माण क्षेत्र में सट्टेबाजी बहुत ज्यादा बढ़ गई है और यह क्षेत्र जरूरत से कहीं ज्यादा गर्म (ओवर हीटेड) हो गया है। इस  स्थिति को पैदा करने में वाणिज्यिक बैंको की भी सीधी भूमिका है।

रेड्डी चाहते है कि बैंक इस मामले में सावधानी बरते और आवास तथा निर्माण क्षेत्र  को कर्ज देते हुए यह सुनिश्चित करें कि उस कर्ज का इस्तेमाल सही तरीके से हो और सट्टेबाजों को इसका फायदा न उठाने दिया जाए। सलाह और चेतावनियों का असर न होने के कारण ही उन्हें एक बार फिर रेपो रेट को बढ़ाने का फैसला करना पड़ा है। जाहिर है इसके कारण आवास कर्ज और महंगा होगा। लेकिन यह कहना मुश्किल है कि उनके इस फैसले से निर्माण और आवास क्षेत्र में जारी सट्टेबाजी पर रोक लगेगी। कम से कम अब तक तो इसका कोई असर नहीं पड़ा है। अलबत्ता इस  फैसले का खामियाजा उस मध्यमवर्ग को उठाना पड़ेगा जो किसी तरह से अपना पेट काटकर बैंक के कर्ज से अपने घर का सपना देख रहा है।

कहने की जरूरत नहीं है कि रिजर्व बैंक सट्टेबाजी पर रोक लगाए, इससे अच्छी कोई बात नहीं हो सकती है क्योंकि सट्टेबाजों ने घरों और फ्लैटों की कीमत को जिस तरह से आसमान पर चढ़ा दिया है, उसका नुकसान भी मध्यमवर्ग को ही उठाना पड़ रहा है। लेकिन यह करते हुए भी श्री रेड्डी को कोई ऐसा रास्ता निकालने के बारे में जरूर सोचना चाहिए जिससे आवास कर्ज लेनेवाले छोटे उपभोक्ताओं को कोई नुकसान न हो। अन्यथा छोटा उपभोक्ता ही दोनों ओर से मारा जाता है। इसके अलावा बैंकों को पर्सनल लोन के नाम पर उपभोक्ताओं में अनियंत्रित उपभोग को भी बढ़ावा देने पर रोक लगाने के बारे में विचार करना चाहिए।

दूसरी ओर, श्री रेड्डी ने ताजा मौद्रिक नीति के जरिए बाजार में उपलब्ध तरलता को सोखने और मुद्रास्फीति पर रोक लगाने की कोशिश की है। पिछले कुछ वर्षों से रिजर्व बैंक की यह लगातार कोशिश रही है कि मौद्रिक नीति के जरिए मुद्रास्फीति को काबू में रखा जाए। हालांकि इस मामले में रिजर्व बैंक की कोशिश बहुत कामयाब होती हुई नहीं दिख रही है। मुद्रास्फीति बढ़कर  5.26 फीसदी तक पहुंच चुकी है और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर तो बढ़कर 7 फीसदी से उपर पहुंच चुकी है। कहने की जरूरत नहीं है कि मौजूदा मुद्रास्फीति का संबंध बहुत हद तक पूर्ति पक्ष की विफलताओं से भी है। पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में वृद्धि से लेकर खाद्यान्नों और सब्जियों आदि कीमतों में वृद्धि पर रिजर्व बैंक का कोई वश नहीं है।

कर्ज की दरों से इतर रिजर्व बैंक की मध्यावधि मौद्रिक नीति की इसलिए भी प्रतीक्षा की जाती है कि उससे अर्थव्यवस्था के बारे में रिजर्व बैंक की सोच का अनुमान पता चलता है। ताजा समीक्षा में रिजर्व बैंक ने चालू साल के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि के अपने पिछले अनुमान में संशोधन करते हुए इसे  7.5 से 8 प्रतिशत के बजाय 8 प्रतिशत कर दिया है। इसके बावजूद बहुत लोगों को लग सकता है कि रिजर्व बैंक का आकलन बहुत सतर्कता भरा है क्योंकि चालू वर्ष की पहली तिमाही में जीडीपी में वृद्धि की दर 8.9 प्रतिशत तक पहुंच गई है। लेकिन मानना पड़ेगा कि रिजर्व बैंक का आकलन यथार्थ के कहीं ज्यादा करीब है। चालू साल में 8 प्रतिशत की विकासदर हासिल कर लेना भी एक बड़ी उपलब्धि होगी क्योंकि लगातार 3 वर्षों से 8 प्रतिशत की दर से जीडीपी का बढ़ना किसी चमत्कार से कम नहीं है।

कुल मिलाकर, ताजा मौद्रिक नीति में वित्तीय उदारीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के साथ-साथ रिजर्व बैंक ने सावधानी बरतने की भी कोशिश की है। कहने की जरूरत नहीं है कि यह सावधानी वित्तीय उदारीकरण की हिफाजत के लिए भी जरूरी है। रेड्डी यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था और खासकर वित्तीय व्यवस्था जैसे-जैसे वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ जुड़ती जा रही है, उसके सामने चुनौतियां भी उतनी ही तेजी से और जटिल रूप में बढ़ती जा रही हैं। भूमंडलीकरण के इस दौर में दुनिया के जिन देशों में भी आर्थिक संकट पैदा हुआ है, वह वित्तीय व्यवस्था की गड़बड़ियों से ही सामने आया है।

भारतीय वित्तीय व्यवस्था अभी भूमंडलीकरण के झटकों को झेलने में समर्थ नहीं है, इसके बावजूद रूपये की पूर्ण  परिवर्तनीयता की दिशा में बढ़ने की हड़बड़ी बहुत भारी पड़ सकती है। यही कारण है कि रिजर्व बैंक बहुत फूंक-फूंककर इस दिशा में कदम बढ़ाना चाहता है। लेकिन नीतियों में बदलाव लाए बगैर सिर्फ सावधानी से संकट को कुछ समय के लिए टाला जरूर जा सकता है लेकिन उसकी आशंका को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता है। यह बात श्री रेड्डी जितनी जल्दी समझ लें, उतना ही अच्छा होगा।

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