सोमवार, नवंबर 12, 2007

गरीबी पर विचार बनाम विचारों की गरीबी...

आर्थिक समृद्धि के द्वीपों के बीच देश में भूख, कुपोषण और बीमारी का साम्राज्य फैलता जा रहा है
 
गरीबी का मुद्दा धीमी ही आवाज में सही लेकिन एक बार फिर चर्चाओं में है। यूपीए सरकार ने गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों को पुनर्गठित करके 1 अप्रैल 2007 से लागू करने का फैसला किया है। इसके लिए मनमोहन सिंह सरकार ने न सिर्फ बीस सूत्री कार्यक्रम में फेरबदल किया है बल्कि 'गरीबी उन्मूलन` शब्द की जगह 'गरीबी हटाओ` शब्द के इस्तेमाल का फैसला किया है। बीस सूत्री कार्यक्रम को आखिरी बार 1986 में संशोधित किया गया था। नए कार्यक्रम में सभी को शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, खाद्य सुरक्षा आदि के अलावा किसानों को सहायता, झुग्गियों में रहनेवालों की स्थिति में सुधार और पिछड़े इलाकों के विकास जैसे बड़े और महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखे गए हैं।

लेकिन इसमें नया कुछ नहीं है। अगर कुछ नया है तो सिर्फ यह कि कोई तीन दशक बाद एक बार फिर गरीबी हटाओ शब्द सरकारी और राजनीतिक शब्दकोष में वापस लौट रहा है। अब यह एक इतिहास है कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने 70 के दशक में किस चतुराई से पहली बार गरीबी हटाओ के नारे का राजनीतिक इस्तेमाल किया था। हालांकि 80 के दशक में खुद उन्होंने और कांग्रेस पार्टी ने इस नारे को न सिर्फ छोड़ दिया बल्कि 90 के दशक में गरीबी का सवाल राजनीतिक-आर्थिक एजेंडे से ही बाहर कर दिया गया। यह मान लिया गया कि तीव्र आर्थिक विकास के साथ गरीबी का मुद्दा खत्म हो गया है।

हालांकि कहने को गरीबी उन्मूलन के सरकारी कार्यक्रम जारी रहे लेकिन सैद्धांतिक और व्यावहारिक तौर पर यह मान लिया गया कि तीव्र आर्थिक विकास के नतीजे में गरीबी खुद-ब-खुद खत्म हो जाएगी और इसके लिए अलग से कोई प्रयास करने की जरूरत नहीं है। इस दावे को इस बात से और बल मिला कि योजना आयोग ने यह घोषणा कर दी कि 1993-94 से 1999-2000 के बीच देश में गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करने वाले गरीबों की तादाद 36 प्रतिशत से घटकर 26 प्रतिशत रह गई है। हालांकि तब भी इस दावे पर गंभीर सवाल उठे थे और खुद योजना आयोग को स्वीकार करना पड़ा था कि ये दोनों आंकड़े सर्वेक्षण के तरीके  में बदलाव के कारण तुलनीय नहीं है। लेकिन सरकारी हलकों और नीति-निर्माताओं के बीच यह गुमान बना रहा कि आर्थिक सुधारों के कारण देश में गरीबी तेजी से कम हो रही है।

लेकिन अब खुद योजना आयोग ने अपनी गलती सुधारी है। 11वीं पंचवर्षीय योजना के  मसविदा प्रपत्र में स्वीकार किया गया है कि वर्ष 2004-05 में हुए सर्वेक्षण के मुताबिक गरीबों की कुल तादाद अब भी 28 प्रतिशत है। यानि 1993-94 से लेकर 2004-05 के बीच 11 वर्षों में गरीबों की कुल तादाद में सिर्फ 8 फीसदी की कमी दर्ज की गई है। इसका अर्थ यह हुआ कि जब जीडीपी की विकास दर औसतन 6 फीसदी से ज्यादा चल रही थी, उस समय गरीबों की संख्या में सालाना मात्र  0.74 प्रतिशत की कमी आ रही थी। जाहिर है कि इस विलंबित स्वीकारोक्ति ने गरीबी उन्मूलन को लेकर किए जा रहे बड़बोले दावों को तार-तार कर दिया है।

उधर, राजनीतिक रूप से 2004 के आम चुनावों ने इंडिया शाइनिंग के विपरीत इस कड़वी सच्चाई को सामने ला दिया था कि आम लोगों के एक बड़े हिस्से को आर्थिक उदारीकरण का कोई लाभ नहीं मिला है या उनकी स्थिति पहले से भी बदतर हो गई है। आंकड़े इसकी पुष्टि करते हैं। गरीबी के घोषित मानदंड के मुताबिक ग्रामीण इलाकों में प्रति व्यक्ति 2400 कैलोरी का उपभोग जरूरी है। लेकिन एनएसएसओ के आंकड़ों के मुताबिक 1993-94 में जहां आबादी का निचला 30 प्रतिशत हिस्सा 1,678 और मध्यवर्ती 40 प्रतिशत हिस्सा 2,119 कैलोरी का उपभोग कर रहा था, वहीं 1999-2000 में यह घटकर क्रमश: 1,626 और 2009 कैलोरी रह गया। स्पष्ट है कि ग्रामीण इलाकों में 70 फीसदी आबादी को दो जून भरपेट और पोषणयुक्त भोजन नहीं मिल रहा था।

आश्चर्य नहीं कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक देश में 50 प्रतिशत  महिलाएं और 70 फीसदी बच्चे एनीमिया से पीडित हैं। ग्रामीण इलाकों में 50 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। अब यह तथ्य भी किसी से छुपा नहीं है कि ग्रामीण इलाकों में सभी वर्गों में खाद्यान्नों का उपभोग गिरा है। हालांकि सरकार यह कहती रही है कि लोग अनाज के बजाय दूध, फल और मांस-अंडे आदि ज्यादा खा रहे हैं। लेकिन हकीकत यह है कि 1999-2000 में ग्रामीण इलाकों में आबादी का निचला 30 प्रतिशत हिस्सा गैर खाद्यान्न उपभोग पर हर महीने प्रति व्यक्ति  34.74 रूपये और मध्यवर्ती 40 फीसदी हिस्सा प्रति व्यक्ति 40.16 रूपये खर्च कर रहा था। यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि 35 से लेकर 40 रूपये में कितना दूध, फल, मांस और अंडा खाया जा सकता है ?

सच यह है कि देश में भूख का साम्राज्य तेजी से फैलता जा रहा है। भूखमरी अब  सिर्फ कालाहांडी, पलामू और बस्तर तक सीमित नहीं रह गयी है। 2006 की विश्व भूख रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2000 के बाद से भारत में हर साल भूख और कुपोषण से होनेवाली मौतों की संख्या 1943 के बंगाल के अकाल के दौरान हुई मौतों से भी ज्यादा पहुंच गई है। महाराष्ट्र सरकार द्वारा वर्ष 2004 में गठित एक समिति की रिपोर्ट के मुताबिक अकेले महाराष्ट्र में करीब सवा से पौने दो लाख बच्चे कुपोषण के कारण असमय मौत के मुहं में समा गए। मुंबई की झुग्गियों में ही 56 हजार से ज्यादा बच्चों की मौत कुपोषण के कारण हुई।

ग्रामीण इलाकों में किसानों की आत्महत्या की घटनाएं अब सिर्फ विदर्भ और आन्ध्रप्रदेश  तक सीमित नहीं रह गई हैं। धीरे-धीरे यह एक अखिल भारतीय परिघटना बनती जा रही है। इससे पता चलता है कि प्रधानमंत्री के आर्थिक पैकेजों के एलान के बावजूद ग्रामीण इलाकों में स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। जाहिर है इन तथ्यों को देखते हुए कोई भी गरीबी के मुद्दे को नकार नहीं सकता है। इसलिए देर से ही सही यूपीए सरकार ने गरीबी को एक महत्वपूर्ण मुद्दे के रूप में स्वीकार करके यह मान लिया है कि सिर्फ तीव्र आर्थिक विकास से ही गरीबी दूर नहीं होगी।

लेकिन इस स्वीकारोक्ति के बावजूद गरीबी हटाने की रणनीति को लेकर मनमोहन सिंह सरकार के विचारों में कोई फर्क नहीं आया। कहते हैं कि कुछ आदतें बहुत मुश्किल से जाती हैं। गरीबी के बारे में सरकारी दृष्टिकोण के साथ भी कुछ ऐसा ही है। विश्वबैंक के निर्देशों पर तैयार इस विचार की दरिद्रता इस बात से जाहिर होती है कि वह अब भी गरीबी उन्मूलन के सवाल को आर्थिक-राजनीतिक एजेंडे पर प्राथमिकता देने और योजना निर्माण में गरीबी उन्मूलन के लक्ष्य को सबसे उपर रखने के बजाय तीव्र आर्थिक विकास दर को ही प्राथमिक लक्ष्य मानकर चल रही है। गोया जीडीपी की 9 से 10 प्रतिशत की विकासदर से सारी समस्या हल हो जाएगी।

स्पष्ट है कि यह विचार उसी पुरानी और गलत साबित हो चुकी अवधारणा पर आधारित है कि तीव्र आर्थिक  विकास  से पैदा होनेवाली समृद्धि स्वत: रिस-रिस कर (ट्रिकल डाउन) नीचे गरीबों तक पहुंच जाएगी। दरअसल, 80 के दशक के बाद से  गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों की विफलता की सबसे बड़ी वजह यह सैद्धांतिकी ही रही है। लेकिन हमारे योजनाकारों का अब भी इसमें विश्वास बना हुआ है। दूसरे, जब से गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों में मौजूद भ्रष्टाचार को दूर करने के नाम पर उन्हें लक्षित करने की विश्वबैंक की रणनीति पर अमल शुरू हुआ है तब से न सिर्फ भ्रष्टाचार और बढ़ा है बल्कि वास्तविक गरीब उसके दायरे से पूरी तरह बाहर हो गए हैं। तीसरे, सब्सिडी खत्म करने के नाम पर सबसे पहला निशाना गरीबों की रोटी, रोजगार और शिक्षा-स्वास्थ्य ही बने हैं।

जाहिर है कि जब तक आर्थिक उदारीकरण की ये नीतियां और कार्यक्रम जारी रहेंगे, गरीबी हटाओ का नारा एक घिसे-पिटे गाने को दोहराने से अधिक कुछ नहीं होगा। इसलिए गरीबी दूर करने के लिए पहले विचारों की दरिद्रता से निपटना जरूरी है।

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