लेकिन वित्तमंत्री पी.चिदम्बरम ने अगले वित्तीय वर्ष के बजट में सामाजिक क्षेत्र के लिए कोई बड़ी और महत्वाकांक्षी योजना और प्रावधानों की घोषणा करने के बजाय वित्तीय और राजस्व घाटे को काबू में रखने को प्राथमिकता दी है। हालांकि उन्होंने केन्द्रीय आयोजना के तहत सामाजिक सेवाओं के बजट में करीब 27 फीसदी की बढ़ोत्तरी करते हुए 80,315 करोड रूपये का प्रावधान किया है। लेकिन यह रकम पिछले वर्ष की तुलना में सिर्फ 17 हजार करोड़ रूपये अधिक है। यह दरियादिली भी तब दिखायी है जब उन्होंने केन्द्रीय करों पर लगनेवाले शिक्षा उपकर को दो फीसदी से बढ़ाकर तीन फीसदी करने की घोषणा की है। जाहिर है कि सामाजिक क्षेत्र के लिए प्रावधान ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर है।
मुद्दा सिर्फ सामाजिक क्षेत्र के लिए अधिक बजटीय प्रावधान का ही नहीं है बल्कि उस प्रावधान को उचित तरीके से और पूरा खर्च करने का भी है। आमतौर पर वित्तीय घाटे को काबू में रखने के लिए जब खर्चों में कटौती की बात आती है तो सबसे पहली गाज सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं पर ही गिरती है। यह एक नियम सा बन गया है। उदाहरण के लिए वित्त मंत्री ने चालू वित्तीय वर्ष में सामाजिक सेवाओं के लिए 63,313 करोड़ रूपये की केन्द्रीय आयोजना का प्रावधान किया था लेकिन संशोधित अनुमान के मुताबिक इसमें 7 फीसदी की कटौती के साथ सरकार सिर्फ 59,143 करोड़ रूपए ही खर्च कर पायी। ऐसे में, अगले वर्ष के लिए सामाजिक क्षेत्र के वास्ते घोषित 80 हजार करोड़ रूपये में से सरकार कितना खर्च करेगी, अभी यह कह पाना मुश्किल है।
शिक्षा क्षेत्र: वायदे से दूर
वित्त मंत्री ने बजट में शिक्षा के लिए कुल 32,351 करोड़ रूपये का प्रावधान किया है जिसमें से 28,671 करोड़ रूपये आयोजना के मद में और 3,680 करोड़ रूपये गैर योजना मद में खर्च किए जाएंगे। चिदम्बरम का दावा है कि शिक्षा के बजट में 34.2 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की गई है। यह दावा इसलिए भ्रामक है क्योंकि इसमें सर्वशिक्षा अभियान के लिए 10,761 करोड़ रूपए का प्रावधान करते हुए यह मान लिया गया है कि राज्य सरकारें भी इतनी रकम का इंतजाम कर लेंगी। लेकिन यह एक कोरी कल्पना के अलावा और कुछ नहीं है। सच पूछिए तो शिक्षा क्षेत्र की मौजूदा जरूरतों और चुनौतियों को देखते हुए यह बढ़ोत्तरी उम्मीद से बहुत कम है। दरअसल, मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने चालू साल के 20,745 करोड़ रूपये के आयोजना व्यय को बढ़ाकर 45 हजार करोड़ रूपये करने की मांग की थी। साफ है कि शिक्षा उपकर में एक फीसदी की बढ़ोत्तरी के बावजूद वित्त मंत्री शिक्षा क्षेत्र के लिए अपनी झोली खोलने में कहीं न कहीं हिचक गए।
ध्यान रहे कि यूपीए सरकार ने शिक्षा पर जीडीपी का 6 प्रतिशत खर्च करने का वायदा किया है। लेकिन ताजा आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक केन्द्र और राज्य सरकारें मिलकर शिक्षा पर जीडीपी का मात्र 2.87 प्रतिशत खर्च कर रही हैं। अगले साल के बजट में यूपीए सरकार की सबसे महत्वाकांक्षी योजनाओं में से एक सर्व शिक्षा अभियान के बजट पर सबसे अधिक गाज गिरी है। वित्त मंत्री ने सर्व शिक्षा अभियान के लिए चालू साल के 11 हजार करोड़ रूपये की तुलना में अगले साल के लिए 10,671 करोड़ रूपये का प्रावधान किया है। इस कटौती के पीछे केन्द्र सरकार का तर्क है कि अगले साल से सर्व शिक्षा अभियान के लिए राज्य सरकारों को 25 फीसदी के बजाय 50 फीसदी संसाधन खुद जुटाने होंगे और केन्द्र सरकार 75 फीसदी की बजाय 50 फीसदी रकम मुहैया कराएगी।
लेकिन अधिकांश शिक्षाविद और खुद केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय का मानना है कि सर्वशिक्षा अभियान के लिए केन्द्र और राज्य के बीच संसाधन जुटाने के मौजूदा फार्मूले 75/ 25 को बदलकर 50/ 50 करने का अर्थ उसे असमय मौत के मुंह में धकेलने की तरह है। आर्थिक तंगी और बदहाली की शिकार राज्य सरकारें इतनी बड़ी रकम जुटाने में सक्षम नहीं होंगी और इस तरह से यह योजना 2010 तक 100 फीसदी बच्चों को स्कूल पहुंचाने के लक्ष्य को हासिल करने से पहले ही दम तोड़ देगी।
इसी तरह, वित्त मंत्री ने उच्च शिक्षा का बजट 3,617 करोड़ रूपए से बढ़ाकर 6,483 करोड़ रूपये करने का ऐलान किया है। लेकिन उच्च शिक्षा के सामने जिस तरह की चुनौतियां हैं उनकी तुलना में यह बहुत मामूली वृद्धि है। याद रहे कि योजना आयोग ने हाल ही में यह चेतावनी दी थी कि अगर उच्च शिक्षा का व्यापक विस्तार नहीं हुआ तो तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के लिए जरूरी प्रशिक्षित प्रोफेशनलों की भारी कमी हो जाएगी। यही नहीं, ज्ञान आयोग ने भी देश में 2015 तक 1,150 नए विश्वविद्यालय खोलने की जरूरत बताई है। इसके अलावा अगले वित्तीय वर्ष से केन्द्रीय शिक्षण संस्थाओं में पिछड़े वर्गों के छात्रों के लिए आरक्षण लागू करने के कारण 54 फीसदी सीटें बढ़ाई जानी है। इसके लिए मोइली समिति ने केन्द्रीय शिक्षण संस्थानों को 5,500 करोड़ रूपए देने की सिफारिश की थी लेकिन बजट में चिदम्बरम ने सिर्फ 576 करोड़ रूपए का आवंटन किया है।
स्वास्थ्य: उपेक्षा जारी है
बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र की उपेक्षा जारी है। हालांकि वित्त मंत्री का दावा है कि स्वास्थ्य के मद में बजटीय प्रावधानों में 22 फीसदी की बढ़ोत्तरी की गई है लेकिन यह उम्मीदों से काफी कम है। बजट में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के लिए कुल 15,855 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है जिसमें से 14,363 करोड़ रूपये आयोजना के मद में खर्च होंगे। लेकिन यह रकम जीडीपी के 0.4 फीसदी से अधिक नहीं है जबकि यूपीए सरकार ने स्वास्थ्य क्षेत्र पर जीडीपी का तीन प्रतिशत खर्च करने का वायदा किया है। ताजा आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक केन्द्र और राज्य सरकारें अभी मिलकर स्वास्थ्य पर जीडीपी का मात्र 1.39 फीसदी खर्च कर रही हैं। यह हाल तब है जब यूएनडीपी के मानव विकास रिपोर्ट में स्वास्थ्य के हर सूचकांक पर भारत का प्रदर्शन दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले बहुत बदतर है।
बजट से पहले इस तरह की चर्चाएं थी कि स्वास्थ्य क्षेत्र की जरूरतों को पूरा करने के लिए केन्द्रीय करों पर 2 फीसदी का स्वास्थ्य उपकर लगाया जा सकता है। लेकिन वित्त मंत्री ने शिक्षा उपकर में एक फीसदी की बढ़ोत्तरी करते हुए स्वास्थ्य उपकर लगाने से परहेज किया और इसका खामियाजा स्वास्थ्य क्षेत्र को इस रूप में उठाना पड़ा है कि उसके लिए बजट में पर्याप्त प्रावधान नहीं किया गया है। इस कारण स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति दिन पर दिन बदतर होती जा रही है। विश्व बैंक के मुताबिक भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था दुनिया की सर्वाधिक निजीकृत स्वास्थ्य सेवा बन गई है। ऐसोचैम के ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों की तो बात दूर रही, शहरी क्षेत्रों में 18 करोड़ लोगों के लिए सिर्फ 1,083 स्वास्थ्य केन्द्र हैं।
इसी तरह, हाल ही में जारी तीसरे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण से यह बात सामने आई है कि 46 फीसदी बच्चे कुपोषण और बीमारी के शिकार है जिसके कारण उनके विकास पर बुरा असर पड़ रहा है। 56 फीसदी महिलाएं रक्ताल्पता (एनीमिया) की शिकार हैं। 28 प्रतिशत पुरूष और 33 फीसदी महिलाओं का वजन सामान्य से कम पाया गया है। इससे स्पष्ट है कि स्वास्थ्य क्षेत्र में अभी कितना कुछ किया जाना बाकी है।
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