देश के पूर्वी राज्यों- छत्तीसगढ़, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल में केंद्र और राज्य सरकारों ने माओवाद/नक्सलवाद के सफाए के लिए आपरेशन ग्रीन हंट शुरू कर रखा है. यू.पी.ए सरकार मानती है कि माओवाद देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है. लेकिन कई मानवाधिकारवादी संगठन और जाने-माने बुद्धिजीवी आपरेशन ग्रीन हंट से सहमत नहीं हैं और उनका मानना है कि सुरक्षा बलों और माओवादियों के बीच युद्ध जैसी स्थिति में सबसे अधिक नुकसान आम आदिवासियों का हो रहा है. उनकी मांग है कि सरकार और माओवादियों को बातचीत करनी चाहिए और इसके लिए जरूरी है कि खून-खराबा तत्काल रोका जाए.
लेकिन अफसोस की बात यह है कि दोनों पक्षों में से कोई भी तर्क और विवेक की बात सुनने के लिए तैयार नहीं है. सवाल है कि ऐसी आंतरिक कनफ्लिक्ट की स्थिति में समाचार मीडिया की क्या भूमिका होनी चाहिए? क्या मीडिया को किसी एक पक्ष के साथ खड़ा हो जाना चाहिए या मध्यस्थता की कोशिश करनी चाहिए? या फिर इससे अलग पूरी निष्पक्षता के साथ सच्चाई और तथ्यों पर आधारित रिपोर्टिंग और इस मुद्दे पर विभिन्न विचारों को जगह देकर देश और समाज को इस प्रश्न पर एक आम राय बनाने में मदद करनी चाहिए. दुनिया भर के अनुभवों से यह स्पष्ट है कि समाचार मीडिया की भूमिका ऐसे मामलों में निष्पक्ष और तथ्यपूर्ण रिपोर्टिंग और दोनों पक्षों पर लोकतान्त्रिक तरीके से विवादों को सुलझाने के लिए उपयुक्त माहौल और दबाव बनाने की ही होनी चाहिए.
लेकिन अफसोस और चिंता की बात यह है कि समाचार मीडिया का एक बड़ा हिस्सा संघर्ष में पार्टी बन गया है. वह न सिर्फ खुलकर आपरेशन ग्रीन हंट का समर्थन कर रहा है बल्कि उसका वश चले तो माओवाद के सफाए के लिए वह उन इलाकों में सेना, टैंक और लड़ाकू विमान उतार दे. जाहिर है कि वह इस पूरे मसले के सैन्य समाधान का पक्षधर है. लोकतंत्र में सभी को अपनी राय रखने की आज़ादी है. अगर मीडिया का एक हिस्सा ऐसी राय रखता है तो यह उसकी आज़ादी है. जैसे ग्रीन हंट की आलोचना और उसे तुरंत रोकने की मांग करनेवालों को भी अपनी बात रखने की पूरी आज़ादी है. लेकिन समस्या तब हो जाती है जब इस पूरे मामले के सैन्य समाधान की राय रखनेवाले अखबार/चैनल खबरों को भी तोड़-मरोड़ कर पेश करने लगते हैं.
यही नहीं, इस आपरेशन के बारे में पुलिस और सुरक्षा बलों की ओर से उपलब्ध कराई गई सूचनाओं पर आधारित एकतरफा खबरें लिखी जाने लगती हैं. उससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि आपरेशन ग्रीन हंट के इलाकों में वास्तव में क्या हो रहा है, इसकी कोई तथ्यपूर्ण और वस्तुनिष्ठ जमीनी रिपोर्ट नहीं आ रही है. इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर अधिकांश अखबारों/चैनलों ने इसकी रिपोर्टिंग के लिए वरिष्ठ और अनुभवी संवाददाताओं को ग्राउंड जीरो पर भेजने जहमत नहीं उठाई है. जबकि इस समय इस तरह की जमीनी रिपोर्टिंग की बहुत जरूरत है. इस तरह की जमीनी रिपोर्टिंग से वह सच्चाई सामने आ सकती है जो सरकार और माओवादियों दोनों को अपने-अपने स्टैंड पर दुबारा सोचने के लिए मजबूर कर सकती है.
ऐसा न होने का नुकसान यह होता है कि देश और समाज दोनों वास्तविकता से अनजान होते हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि यह किसी भी देश और समाज के लिए बहुत घातक हो सकता है. असल में, कई बार तात्कालिक कारणों और जरूरतों को ध्यान में रखकर जब सूचनाओं का मुक्त और खुला प्रवाह रोका जाता है तो दीर्घकाल में उसके नतीजे सबके लिए नुकसानदेह साबित होते हैं. कहते हैं कि अगर इराक पर हमले के पहले अमेरिकी मीडिया ने देशवासियों को सच्चाई बताई होती तो शायद इराक युद्ध नहीं होता और उसके कारण खुद अमेरिका को इतना नुकसान नहीं उठाना पडता. यही नहीं, वियतनाम युद्ध के शुरूआती दिनों में अगर अमेरिकी मीडिया ने जमीनी हालात का सही जानकारी दी होती तो युद्ध में अमेरिका को इतना नुकसान नहीं उठाना पडता और युद्ध बहुत पहले खतम हो जाता.
यह सवाल इसलिए अहम है क्योंकि समाज और देश की राय बदलती रहती है. संभव है कि कल कोई सरकार माओवादियों से बात करने को तैयार हो जाए और माओवादी भी अपना स्टैंड बदलकर बातचीत के लिए आगे आ जाएं. नेपाल में यह हो चुका है. भारत में यह क्यों नहीं हो सकता है? जरूरत सिर्फ इस बात की है कि मीडिया इसके लिए उपयुक्त वातावरण तैयार करे और इसकी शुरुआत निश्चय ही, तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष जमीनी रिपोर्टिंग से हो सकती है. आखिर सत्य में बहुत शक्ति होती है.
(दैनिक हिंदुस्तान, २८ मार्च)
5 टिप्पणियां:
85 javano ke saheed hone ke baad aapki rai kya hai?
doosari baat ki aajkal patrakarita me aane vala varg kaun hai...vikalp ki talash me dishaheen yuva jise patrakarita me delhi ka glamour andha bana deta hai, jo keval futage vale story karna chahata hai...
aise me naxali ilake me jana kaun chahega ,sath hi unke jaanmaal ki garanti kaun lega?
सर, एनडीटीवी इंडिया ग्राउंड जीरो पर जाकर वास्तविकता की पड़ताल करने में जुटा है....अब वो वास्तविकता के कितना पास जा पाता है...ये कहना थोड़ा मुश्किल है लेकिन ह्रदयेश जोशी ग्राउड जीरो से इन दिनों रिपोर्टिंग कर रहे हैं....
सर, आपकी आखिरी लाइन में दम है की सत्य में शक्ति होती है. जहाँ तक नक्सलियों से बात करने का सवाल है तो गृहमंत्री ने कई बार वार्ता का प्रस्ताव दिया लेकिन कोटेश्वर राव ने हर बार चालाकी दिखाई. शायद वो खुद को प्रचंड का भारतीय संस्करण समझ रहे हैं. 76 जवानों की मौत के बाद कौन सी सर्कार टेबल पर बात करना पसंद करेगी. नक्सली खुद ही बात करने की पहल क्यों नहीं करते? स्कूल, अस्पताल की बिल्डिंग उड़ा कर आदिवासियों का क्या भला हो रहा है? मीडिया के अपने साथी तो जो न करें वो थोडा है. दो दिन पहले एक चैनल सानिया की शादी का मेन्यू बता रहा था. ऐसे में गंभीर मुद्दों पर थोड़ी ज्यादती तो हो ही जाती है न.
sir.. mudda yah nhin hai k kya hona chahiye...hum sab apni jimmedarion ko achhi tarah jante hain lekin kya hum use utni hi achhi tarah nibhate hain?nhin...Baat chahe aapki ho ya kisi aur ki sab kisi na kisi karan se apni jimmedari se bhagate hain...thik usi tarah satta..jo vayaktion ka hi samooh hai uska bhi yahi character hai...sir jab koi thosh kadam uthana hi na chahe to kya hum jabardasti karke ya samajha karke dicision lene par majboor kar sakenge?Archana
मणेन्द्र जी एक बात कहना चाहता हूं कि जाना तो बहुत लोग चाहते हैं....सवाल ये है कि भेजना कौन चाहता है....किसी को जवानों की शहादत से कुछ नहीं लेना-देना....बस मौत पर चार सवाल उठाकर ब्रेक पर चले जाना है....
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