टी.आर.पी की मौजूदा व्यवस्था को लेकर जारी विवादों और बहस के बीच खबर है कि टेलीविजन प्रसारकों की संस्था- आई.बी.एफ और सरकार के बीच एक वैकल्पिक टी.वी रेटिंग प्रणाली शुरू करने पर सहमति हो गई है. इसके लिए टी.वी प्रसारणकर्ताओं ने खुद की कंपनी- ब्राडकास्ट आडिएंस रिसर्च काउन्सिल(बार्क) के जरिये टी.वी दर्शक रेटिंग का आकलन करने का इरादा जताया है. अभी तक टेलीविजन रेटिंग के धंधे पर बहुराष्ट्रीय कंपनी- ए.सी निएल्सन-आई.एम.आर.बी के संयुक्त उपक्रम टी.ए.एम मीडिया रिसर्च लिमिटेड (टैम) का दबदबा है. हालांकि बाजार में ए-मैप नाम की एक कंपनी भी टी.वी रेटिंग के आंकड़े जारी करती है लेकिन सच्चाई यह है कि टैम के आगे वह कुछ भी नहीं है.
सच पूछिए तो रेटिंग के धंधे पर टैम का एकाधिकार सा हो गया है. इस कारण जैसे हर एकाधिकार(मोनोपॉली) के खतरे होते हैं, वैसे ही रेटिंग के धंधे पर टैम की मोनोपॉली का नतीजा भी कई विकृतियों और गडबडियों के रूप में सामने आ रहा है. टेम की मौजूदा रेटिंग प्रणाली के बारे में प्रसारकों, कार्यक्रम निर्माताओं, संपादकों से लेकर मीडिया विश्लेषकों तक को कई गंभीर शिकायतें रही हैं. इनमें सबसे गंभीर शिकायत यह रही है कि देश भर के दर्शकों की रूचि और पसंद-नापसंद का फैसला करनेवाली इस रेटिंग प्रणाली में देश का सही प्रतिनिधित्व नहीं होता है क्योंकि करोड़ों दर्शकों की पसंद सिर्फ सात हजार पीपुलमीटर (एजेंसी के मुताबिक आठ हजार) के आधार पर कैसे तय की जा सकती है? यही नहीं, इस रेटिंग प्रणाली में महानगरों और शहरों के अलावा अमीर राज्यों के प्रति एक स्पष्ट झुकाव शामिल है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों के अलावा देश के कई राज्यों में एक भी पीपुलमीटर नहीं लगा है.
इस तरह, इस रेटिंग प्रणाली पर अवैज्ञानिक, पूर्वाग्रहग्रस्त और बाजारोन्मुख होने के अलावा रेटिंग में तोड़-मरोड़ के आरोप भी लगते रहे हैं. इसके बावजूद इसका जलवा कभी कम नहीं हुआ तो इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि विज्ञापनदाता किसी और विश्वसनीय टी.वी रेटिंग एजेंसी के अभाव में इसे ही आँख मूंदकर स्वीकार करते रहे हैं. इस रेटिंग के आधार पर ही कोई ग्यारह हजार करोड़ रूपये के विज्ञापन किन-किन चैनलों और उनके किन-किन कार्यक्रमों को मिलेंगे, इसका फैसला होता है. चूँकि अधिकांश चैनल अभी भी विज्ञापन आय पर ही निर्भर हैं, इसलिए उनके लिए रेटिंग जीवन-मरण का सवाल बन जाती है. जाहिर है कि रेटिंग के व्यवसाय पर दांव बहुत उंचे हैं.
यही कारण है कि मनोरंजन चैनलों से लेकर समाचार चैनलों तक कार्यक्रमों की गुणवत्ता का एकमात्र पैमाना रेटिंग बन गया है. उसके आतंक के आगे टी.वी उद्योग बिलकुल लाचार सा दिखता है. चैनल क्या दिखायेंगे, यह रेटिंग से तय हो रहा है. रेटिंग के आधार पर चैनलों की प्राथमिकताएं तय हो रही हैं. चूंकि टैम की रेटिंग हर सप्ताह आती है, इसलिए चैनलों में उसके अनुसार कार्यक्रम बन रहे हैं. लेकिन इन तमाम आलोचनाओं और विकृतियों के बावजूद अभी भी टैम की रेटिंग का खोटा सिक्का बाजार में धडल्ले से चल रहा है तो उसकी भी बड़ी वजह यही है कि टी.वी उद्योग और विज्ञापनदाताओं में इसके विकल्प को लेकर मतभेद हैं. रेटिंग में आगे कई चैनलों को लगता है कि यह शिकायत रेटिंग की दौड में पीछे रह जानेवालों की है. इसी तरह, टैम की रेटिंग के आलोचकों के पास उससे बेहतर कोई वैकल्पिक माडल भी नहीं है.
इस पूरी बहस की सबसे बड़ी त्रासदी यही है. दरअसल, उसे टी.वी रेटिंग की व्यवस्था से कोई शिकायत नहीं है. उसे सिर्फ टैम की रेटिंग प्रणाली की कमियों-खामियों से शिकायत है. लेकिन समस्या सिर्फ टैम की रेटिंग तक सीमित नहीं है बल्कि इस तरह की किसी भी रेटिंग व्यवस्था की यह अन्तर्निहित विकृति है जिसका उद्देश्य विज्ञापनदाताओं के लिए टार्गेट आडिएंस खोजना है. याद रहे, इस रेटिंग व्यवस्था का मूल मकसद विज्ञापनदाता के लिए उन दर्शकों की तलाश है जिनके पास उसके उत्पादों/सेवाओं को खरीदने की सामर्थ्य है. जाहिर है कि जब तक समृद्ध और उपभोक्ता दर्शकों की पसंद-नापसंद को ध्यान में रखकर रेटिंग होगी और उसे आकर्षित करने के लिए कार्यक्रम बनाये जायेंगे, रेटिंग के दलदल से बाहर निकलना संभव नहीं है. चाहे टैम हो या बार्क- समस्या हल होनेवाली नहीं है. असल में, मूल मुद्दा टैम का नहीं, टी.वी रेटिंग का विकल्प खोजने का है या कहें कि विज्ञापन आय पर निर्भर टी.वी को विज्ञापनों की जकडबंदी से बाहर निकालने का है.
(प्रभात खबर, 3 अप्रैल'10)
1 टिप्पणी:
सर असल में मामला बड़े भाईयों की सैलरी का है जो हर साल बढ़ जाती है। अब ये काम तो कुछ करते नहीं अपने चेहरे की खा रहे हैं। टीआऱपी का क्या मतलब है ये मुझे आज तक समझ में नहीं आया सास बहु का झगड़ा जैसा लगता है। खैर अपनी नौकरी बचानी हैं इन लोगों को तो बनाओं मालिकों को मोहरा। कहो चिल्लाओं टैम गड़बड़ कर रहा है साहब हम तो काम ठीक कर रहे हैं। हम तो भूत प्रेत लाइव करवा रहे हैं, देख लो। देश में कितने ही लोग गरीब भूख लाचारी से मर जाये, नक्सलबाद की चपेट में आ जाये लेकिन साहब देखिये हम सानिया दिखा रहे हैं। जो चैनल टीआरपी और टैम की बात करता है उसे ढग से जूतियाना चाहिए। असल में दिक्कत दिमागों में है। टैम वैम और जो भी कोई बम पटाखा हो क्या करेगा जब न्यूज चैनल खबरों के साथ न्याय कर खबर दिखायेंगा, जिसका देश के लोगों को इंतजार रहता है। ये सर देश को पिछले 10-15 साल से बेवकूफ बना रहे हैं औऱ जब तक इन्हें जूतियाया नहीं जायेगा ये नहीं सुधरेगें।
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