दंतेवाड़ा की घटना के बाद माओवाद को लेकर मुख्यधारा के समाचार मीडिया में जारी पूरी बहस में लगभग एक सुर से उसे कुचल देने की वकालत की जा रही है. अखबारों और चैनलों में बिना किसी लाग-लपेट के कहा जा रहा है कि ‘बहुत हुआ, अब और बर्दाश्त नहीं किया जा सकता’(एनफ इस एनफ). सरकार को सलाह दी जा रही है कि माओवादियों को कुचलने के लिए खुला युद्ध छेड दिया जाना चाहिए जिसमें सेना और खासकर वायु सेना के इस्तेमाल से भी परहेज करने की जरूरत नहीं
है. हल्लाबोल वाले अंदाज़ में कहा जा रहा है कि माओवादियों/नक्सलियों के प्रभाव वाले इलाके भारत के हिस्से हैं और उनपर फिर से अपना ‘दबदबा बनाने’ के लिए सरकार को सैन्य ताकत का इस्तेमाल करने से हिचकिचाना नहीं चाहिए.
हालांकि मीडिया दबे स्वर में इन इलाकों में आदिवासियों और गरीबों की दशकों से जारी शोषण और उपेक्षा के तथ्य को स्वीकार कर रहा है लेकिन तर्क यह दिया जा रहा है कि माओवादी आदिवासियों का इस्तेमाल कर रहे हैं और शोषण और उपेक्षा का जवाब हिंसा नहीं हो सकती है. इस बहस में सबसे अधिक गौर करनेवाली बात यह है कि मुख्यधारा के मीडिया का बड़ा हिस्सा अत्यंत आक्रामक शैली में ‘वे’ यानि माओवादी/नक्सली और ‘हम’ यानि बाकी देश की भाषा में बात कर रहा है. साफ है कि माओवाद को लेकर मीडिया के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया है बल्कि सिलदा, कोरापुट और अब दंतेवाड़ा की घटनाओं के बाद यह रूख और सख्त और आक्रामक हो गया है.
लेकिन सवाल है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में वायुसेना के इस्तेमाल की वकालत करनेवाले मीडिया में अगर आदिवासी पत्रकार/संपादक भी काम कर रहे होते तो क्या उनकी भाषा इतनी ही आक्रामक और एकतरफा होती? क्या तब भी मीडिया ‘वे’ और ‘हम’ के अंदाज में बात करता? क्या तब मीडिया में यह तर्क दिया जाता कि आदिवासी इलाकों में विकास के नाम पर अंतहीन विस्थापन, भ्रष्टाचार, शोषण और लूट के बावजूद ‘हिंसा’ कोई विकल्प नहीं है? ये सवाल कुछ लोगों अटपटे और बेमानी लग सकते हैं लेकिन कई कारणों से बहुत महत्वपूर्ण हैं.
असल में, देश में आदिवासी समुदाय की बदतर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति और उन्हें हाशिए से भी बाहर धकेल दिए जाने का अंदाजा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि मुख्यधारा के समाचार मीडिया में आदिवासियों की मौजूदगी न के बराबर है. जितनी मुझे जानकारी है, उसके मुताबिक देश के किसी भी अखबार/चैनल में संपादक या उससे निचले निर्णायक संपादकीय पदों पर आदिवासी खासकर पूर्वी और मध्य भारत के आदिवासी पत्रकार नहीं हैं. क्या यह हैरान करनेवाली बात नहीं है कि देश की आबादी में लगभग आठ फीसदी होने के बावजूद समाचार माध्यमों में आदिवासी समुदाय के पत्रकार एक फीसदी भी नहीं हैं? उससे भी अधिक हैरान करनेवाली बात यह है कि आदिवासी बहुल इलाकों और नक्सल प्रभावित क्षेत्रों जैसे रायपुर, रांची, भुवनेश्वर, जमशेदपुर और कोलकाता से प्रकाशित हिंदी-अंग्रेजी-उड़िया-बांग्ला अख़बारों में भी आदिवासी पत्रकारों की संख्या उँगलियों पर गिनी जाने लायक भी नहीं है और वरिष्ठ पदों पर तो बिलकुल शून्य ही है.
साफ है कि मुख्यधारा के मीडिया के समाचार कक्षों में आदिवासियों का प्रतिनिधित्व बिलकुल नहीं है. इससे मुख्यधारा के मीडिया के वर्गीय चरित्र का अंदाजा लगाया जा सकता है. निश्चय ही, यह मीडिया में मौजूद ‘लोकतान्त्रिक घाटे’ को प्रतिबिंबित करता है. यह उसकी बहुत बड़ी कमजोरी है. स्वाभाविक तौर पर इसका असर उनके कंटेंट और रूख पर दिखाई पडता है. आश्चर्य नहीं कि मीडिया में आदिवासी समुदाय की तकलीफों और भावनाओं की सच्ची स्टोरीज भी नहीं दिखती हैं. यही कारण है कि समाचार मीडिया का एक बड़ा हिस्सा युद्ध और हवाई हमलों में होनेवाले जान-माल के गंभीर नुकसान (कोलेटरल डैमेज) के बारे में बिना एक पल भी सोचे-विचारे खुला युद्ध छेड़ने की वकालत कर रहा है.
लेकिन क्या मुख्यधारा का मीडिया इस सवाल पर विचार करेगा कि वे कौन से कारण हैं जिनकी वजह से समाचार कक्षों में आदिवासी समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं है? क्या यह भी एक कारण नहीं है कि मीडिया की आवाज ‘उन’ आदिवासियों/इलाकों तक नहीं पहुंच पा रही है? सच पूछिए तो यह मीडिया के लिए खुद के अंदर झांकने का अवसर है. क्या मीडिया इसके लिए तैयार है?
3 टिप्पणियां:
महत्वपूर्ण मुद्दे पर धारदार टिप्पणी।
इस भड़ैत मीडिया युग में प्रधानजी ऐसा सिर्फ आप ही कह सकते हैं। सच्ची और खरी-खरी। सब बिकाऊ हैं। भकोसने के लिए सरमायेदारों का तलछट चाटते रहते हैं। जैसा अन्न,वैसा मन्न और बोल-वचन। साफगोई के लिए बहुत-बहुत बधाई।
aapko galat fahmi hai,janjati, maobadi nahi ye arthik samasya nahi hai,ye pawar poltics karte hai inko kisi se prem nahi hai .ye bidesi charch,chin dwara sanchalit hai .yadi yah bicharnthik hai bangal,chin me bhukhmari kyo hai.is liye desh hit me bichar kare.
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