बुधवार, अप्रैल 07, 2010

खाद्य सुरक्षा


यह खाद्य सुरक्षा का कानून है या खाद्य असुरक्षा बढ़ाने का?  


काफी बहस-मुबाहिसे और जद्दोजहद के बाद आखिरकार केन्द्रीय मंत्रियों के अधिकारप्राप्त समूह ने पिछले सप्ताह राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे को मंजूरी दे दी है. खबरों से साफ है कि जल्दी ही इसे कैबिनेट की भी मंजूरी मिल जायेगी और इसके बाद, यू.पी.ए सरकार इस बहुप्रतीक्षित विधेयक को संसद में पेश करके आम आदमी को भोजन का अधिकार देने की "ऐतिहासिक उपलब्धि" पर अपनी पीठ ठोंकती नजर आएगी. लेकिन प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे के बारे में सरकार से छन-छनकर आ रही खबरों से, भूख के खिलाफ भोजन के संवैधानिक अधिकार के लिए लड़ रहे जन संगठनों, बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं में गहरी निराशा का माहौल है क्योंकि यह विधेयक खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के बजाय भूख के साम्राज्य को और मजबूत करता दिखता है. यह विधेयक न सिर्फ आधा-अधूरा, सीमित और निकट-दृष्टि दोष का शिकार है बल्कि मौजूदा लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टी.पी.डी.एस) से भी एक कदम पीछे हटता दिखता है.

सूचनाओं के मुताबिक, प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक में सरकार गरीबी रेखा के नीचे (बी.पी.एल) गुजर-बसर करनेवाले हर परिवार  को तीन रूपये प्रति किलोग्राम की दर से हर महीने 25 किलोग्राम गेहूं या चावल देगी. ध्यान रहे कि यह कांग्रेस का चुनावी वायदा भी था और यू.पी.ए सरकार चाहे तो इस प्रस्तावित कानून के जरिये उस वायदे को पूरा करने के लिए अपनी पीठ ठोंक सकती है. लेकिन तथ्य यह है कि इस विधेयक के कानून बनने के बाद गरीबों और भूखमरी के शिकार लोगों को दो तरह से नुकसान होगा. पहला, अभी लगभग 6.52 करोड़ बी.पी.एल परिवारों को हर महीने 35 किलो गेहूं या चावल मिलता है जिसमें 4.10 रूपये प्रति किलो की दर से गेहूं और 6.65 रूपये किलो की दर से चावल मिलता है. नए कानून के आधार पर इन परिवारों को गेहूं या चावल तो पहले की तुलना में सस्ते मिलेंगे लेकिन उसकी मात्रा में दस किलो की कटौती हो जायेगी.

दूसरे, इन बी.पी.एल परिवारों में जो "गरीबों में भी गरीब" परिवार हैं, उन्हें अभी अंत्योदय अन्न योजना के तहत हर महीने दो रूपये किलो की दर से 35 किलोग्राम गेहूं या चावल मिलता है. लेकिन नए खाद्य सुरक्षा कानून के बनने के बाद उन्हें न सिर्फ पहले की तुलना में अनाजों की अधिक कीमत चुकानी पड़ेगी बल्कि "गरीबों में भी गरीब" माने-जानेवाले इन परिवारों को भी दस किलो कम अनाज मिलेगा. यह सचमुच हैरान करनेवाला तथ्य है कि नए कानून की सबसे अधिक गाज दरिद्रनारायण पर गिरनेवाली है. यही नहीं, सभी बी.पी.एल परिवारों के मासिक अनाज कोटे में दस किलो की कटौती का नतीजा यह होगा कि ये परिवार या तो आधा पेट खाने और भूखे रहने के लिए मजबूर होंगे या फिर अनाज की अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए बाज़ार के भरोसे रहेंगे. सवाल यह है कि यह खाद्य सुरक्षा का अधिकार देनेवाला कानून है या खाद्य असुरक्षा बढ़ानेवाला कानून?

यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह विधेयक अपने मौजूदा स्वरुप में खाद्य असुरक्षा खत्म करने के बजाय बढाता दिखता है. इसकी सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि यह उस नवउदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के दायरे से बाहर नहीं निकल पाता है जिसकी बुनियाद में ही यह सोच मौजूद है कि "यहाँ कुछ भी मुफ्त नहीं है (देअर इज नो फ्री लंच)." कहने की जरूरत नहीं है कि यू.पी.ए सरकार भी इस सैद्धांतिकी की बड़ी मुरीद रही है और सरकार में सर्वोच्च पदों पर बैठे कई मंत्री और अफसर इसके मुखर पैरोकार रहे हैं. लेकिन चुनावी राजनीति की मजबूरियों और इससे पहले वामपंथी पार्टियों के दबाव के कारण यू.पी.ए सरकार ने गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों को राहत पहुंचानेवाली नरेगा, किसानों को कर्ज माफ़ी जैसी कुछ योजनाएं शुरू की थीं.

लेकिन यू.पी.ए-दो सरकार के ताजा आम बजट और अब प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक से यह संकेत साफ है कि मनमोहन सिंह सरकार एक बार फिर खुलकर नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को लागू करने की दिशा में बढ़ चली है. यही कारण है कि वह भोजन का अधिकार पूरी ईमानदारी और उसकी वास्तविक भावना से देने के बजाय खाद्य सब्सिडी में कमी करने को लेकर ज्यादा चिंतित दिखाई देती है. जाहिर है कि उसका सबसे अधिक जोर वित्तीय घाटे को कम करने पर है जोकि नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की सबसे बड़ी पहचान है. खाद्य सुरक्षा विधेयक पर भी इसकी छाप को साफ देखा जा सकता है. आश्चर्य नहीं कि विधेयक में सबसे अधिक जोर इसके लाभार्थियों की संख्या को कम करने पर है.

यही कारण है कि भोजन के संवैधानिक अधिकार को सार्वभौम और हर भारतीय नागरिक का अधिकार बनाने के बजाय इसे सिर्फ गरीबी रेखा के नीचे(बी.पी.एल) परिवारों तक सीमित कर दिया गया है. सबसे अधिक परेशान करनेवाली बात यह है कि गरीबी रेखा के नीचे के परिवारों की संख्या के निर्धारण का अधिकार योजना आयोग के पास होगा. जबकि गरीबी रेखा और उसके नीचे रहनेवाले परिवारों की संख्या के बारे में योजना आयोग के अनुमानों को लेकर काफी गंभीर और तीखे विवाद रहे हैं. हाल ही में, खुद योजना आयोग की प्रो. सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता वाली समिति ने आयोग के बी.पी.एल अनुमानों पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए यह कहा है कि देश में गरीबी रेखा के नीचे 27 प्रतिशत के सरकारी दावों के विपरीत 37 प्रतिशत लोग गुजर-बसर कर रहे हैं.

लेकिन योजना आयोग ने इस रिपोर्ट के मद्देनजर अभी भी बी.पी.एल लाभार्थियों की संख्या में कोई फेरबदल नहीं किया है और खाद्य सुरक्षा के प्रस्तावित विधेयक में उन्हीं 27 प्रतिशत लोगों को इसका सीमित लाभ देने पर अड़ा हुआ है जिनकी संख्या लगभग 6.52 करोड़ है. लेकिन दूसरी ओर, कई राज्य सरकारों ने इस संख्या को खुली चुनौती दी है. उदाहरण के लिए, बिहार सरकार का कहना है कि केंद्र सरकार राज्य में सिर्फ 65.23 लाख बी.पी.एल परिवारों का अस्तित्व स्वीकार करती है और उन्हें खाद्य सुरक्षा का लाभ देने के लिए तैयार है जबकि राज्य सरकार के मुताबिक बी.पी.एल परिवारों की संख्या लगभग 1.40 करोड़ है. इसका अर्थ यह हुआ कि नए खाद्य सुरक्षा कानून के लागू होने के बाद बिहार में कोई 75 लाख बी.पी.एल परिवार खाद्य असुरक्षा के शिकार बने रहेंगे. इस तरह बिहार में जितने गरीबों को इसका लाभ मिलेगा, उससे अधिक को भूख और कुपोषण के साथ अपने हाल पर छोड़ दिया जायेगा.

जाहिर है कि बिहार ऐसा अकेला राज्य नहीं है. लेकिन प्रस्तावित विधेयक में साफ कहा गया है कि जो राज्य केद्र द्वारा निर्धारित संख्या से अधिक परिवारों को खाद्य सुरक्षा का लाभ देना चाहते हैं, उन्हें इसका खर्च खुद उठाना पड़ेगा. अधिकांश राज्य सरकारों की मौजूदा वित्तीय स्थिति को देखते हुए इसकी उम्मीद बहुत कम है कि वे यह खर्च उठाने के लिए तैयार होंगी. राज्य सरकारों की मुश्किल यहीं खत्म नहीं होती. प्रस्तावित विधेयक में राज्य सरकारों को खाद्यान्नों के वितरण के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है जबकि केंद्र सरकार की जवाबदेही अनाजों को सिर्फ राज्य सरकार के डिपो तक पहुँचाने की होगी. यही नहीं, निर्धारित मात्रा और समय पर अनाज न मिल पाने पर इसके लाभार्थी राज्य सरकार से भोजन भत्ते के हक़दार होंगे. इसका अर्थ यह हुआ कि भोजन के अधिकार के उल्लंघन से सम्बंधित मुकदमे भी राज्य सरकारों को झेलने होंगे. 


इस कारण अधिकांश राज्य सरकारें न सिर्फ चिंतित हैं बल्कि उन्हें लग रहा है कि केद्र सरकार यह आधा-अधूरा और सीमित कानून बनाकर भी भोजन का अधिकार देने का पूरा राजनीतिक श्रेय तो खुद लूट ले जायेगी लेकिन लोगों का सारा गुस्सा उन्हें झेलना होगा. यही नहीं, इस कानून को लेकर लोगों में जगी  उम्मीदों और उसे पूरा करने में नाकामी का सारा ठीकरा राज्य सरकारों के माथे फोड़ा जायेगा और केद्र सरकार बड़ी सफाई से बच निकलेगी. अफसोस की बात यह है कि मंत्रियों की अधिकार प्राप्त समिति ने इस विधेयक के मसौदे पर मुहर लगाते हुए ज्यां द्रेज और अमर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्रियों की एक व्यापक और सार्वभौम अधिकार देनेवाले कानून की तो छोडिये, यू.पी.ए अध्यक्ष सोनिया गाँधी की सिफारिशों का भी ध्यान नहीं रखा जिन्होंने बी.पी.एल के अलावा कई और वंचित समूहों को इस कानून के दायरे में लाने की वकालत की थी.
(नई दुनिया, २३ मार्च २०१०)

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