बंदूक की पिछलग्गू माओवादी राजनीति से जनसंघर्षों को सबसे अधिक नुकसान हो रहा है
रैडिकल और क्रांतिकारी बदलाव का दावा करनेवाली राजनीति में बंदूक का आकर्षण नया नहीं है लेकिन जब बंदूक उस राजनीति पर हावी हो जाए तो क्या होता है? बंदूक, राजनीति को निर्देशित करने लगती है और राजनीति धीरे-धीरे पृष्ठभूमि में चली जाती है. बंदूक पर निर्भरता बढ़ने लगती है और अंततः बंदूक ही उस राजनीति को परिभाषित करने लगती है. धीरे-धीरे वह राजनीति सैन्य अराजकतावाद के एक ऐसे दुष्चक्र में फंस जाती है जहां तर्क, विचार और राजनीति के लिए जगह नहीं रह जाती है. निश्चय ही, रैडिकल बदलाव की राजनीति के लिए इससे बड़ी त्रासदी और कुछ नहीं हो सकती है.
लेकिन यह एक ऐसी दुखद त्रासदी है जिसके उदाहरणों से दुनिया और खुद भारत का इतिहास भरा पड़ा है. ऐसा लगता है कि भारत में रैडिकल बदलाव की राजनीति की सबसे बड़ी चैम्पियन होने का दावा करनेवाली सी.पी.आई (माओवादी) भी इसी त्रासदी का शिकार हो गई है. वह खुद स्वीकार करे या न करे लेकिन दंतेवाड़ा में सी.आर.पी.एफ के 76 जवानों की घात लगाकर की गई हत्या से लेकर ऐसे ही अन्य दुस्साहसिक सैन्य हमलों को अपनी सफलता के बतौर पेश करनेवाली माओवादी राजनीति किस दुष्चक्र में फंस गई है, यह स्पष्ट करने की जरूरत नहीं है. सच यह है कि ये दुस्साहसिक सैन्य हमले माओवादी राजनीति की 'सफलता' या 'जीत' के नहीं बल्कि उसकी निराशा और हताशा के प्रतीक हैं. खुद लेनिन ने लिखा था- 'अराजकतावाद हताशा की पैदाइश है.'
दरअसल, सी.पी.आई (माओवादी) भी जिस सैन्य अराजकतावाद की राजनीति का शिकार हो गई है, उसमें वह भारतीय राज्य और शासक वर्गों के साथ घिसाव-थकाव के एक ऐसे असमान सैन्य युद्ध में फंस गई है जिसमें दंतेवाड़ा-सिल्दा-कोरापुट जैसी कथित 'सैन्य सफलताओं' के बावजूद रैडिकल बदलाव की राजनीति को आगे बढ़ाने की संभावनाएं दिन पर दिन क्षीण होती जा रही हैं. यह इसलिए कि राज्य और उसकी असीमित सैन्य शक्ति का मुकाबला राजनीति को पीछे रखकर मुट्ठी भर 'सैन्य दलम' (सशस्त्र स्क्वैड) के जरिये कर पाना लगभग असंभव है. सच पूछिए तो माओवादी राजनीति राज्य के ट्रैप में फंस गई है क्योंकि एक सामंती-पूंजीवादी राज्य के लिए बदलाव और जनसंघर्षों की राजनीति की तुलना में सैन्य अराजकतावाद को कुचलना ज्यादा आसान है.
लेकिन अफसोस की बात यह है कि क्रांतिकारी आन्दोलनों के इतिहास से सबक लेने के बजाय माओवादी ऐसी मतान्धता का शिकार हो गए हैं कि 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक में यांत्रिक तरीके से 20वीं शताब्दी के चीन को दोहराने की जिद पर अड़े हुए हैं. हैरानी की बात यह है कि चीनी क्रांति और उससे अधिक खुद भारत में पिछले चालीस वर्षों के अपने अनुभव से सबक लेने के बजाय वे अब भी 'सत्ता बंदूक की नली से निकलती है' की यांत्रिक समझ के साथ पहले पहाड़ी-जंगली क्षेत्रों में 'गुर्रिल्ला जोन' और फिर उसे 'बेस एरिया' बनाकर गांवों से शहरों को घेरने की सैन्य रणनीति से चिपके बैठे हैं. जाहिर है कि इस माओवादी राजनीति में अन्तर्निहित रूप से वैचारिक तौर पर बंदूक की सर्वोच्चता के आगे जनसंघर्षों की राजनीति की कोई अहमियत नहीं है.
आश्चर्य नहीं कि माओवादी राजनीति में बंदूक के दबदबे के आगे वास्तव में बदलाव की वाहक गरीब जनता और उसके जनसंघर्षों की भूमिका नहीं के बराबर रह गई है. वह या तो मूकदर्शक छोड़ दी गई है या फिर राज्य की सैन्य शक्ति का कहर झेलने के लिए मजबूर है. यही नहीं, माओवादी राजनीति में जनसंघर्षों की उपेक्षा के कारण आम गरीबों, आदिवासियों और मजदूरों की पहलकदमी भी खुल नहीं पाती है और वे भी राज्य दमन और शोषण के खिलाफ लड़ने के बजाय सैन्य दस्तों का इंतज़ार करने लगते हैं. इस तरह, राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा न होने के कारण गरीब जनता का राजनीतिक प्रशिक्षण भी नहीं हो पाता है जबकि रैडिकल बदलाव के किसी भी आंदोलन में आम गरीब जनता की भूमिका सबसे अगुवा की होनी चाहिए.
लेकिन माओवादी राजनीति में गरीब जनता पीछे है और बंदूक आगे. असल में, आम गरीब जनता और उसके जनसंघर्षों को पीछे रखने का मतलब राजनीति को पीछे रखना है. यह माओवादी राजनीति की सबसे बड़ी कमजोरी बन गई है. सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि देश में जंगल, जमीन, पानी, खनिजों और श्रम की कारपोरेट लूट के खिलाफ गरीब जनता, किसानों, श्रमिकों, आदिवासियों और नौजवानों के जनसंघर्षों को भी माओवादी राजनीति के कारण नुकसान उठाना पड़ रहा है. इसका सबसे ताजा उदाहरण लालगढ़ है जहां गरीब आदिवासियों और भूमिहीन मजदूरों के स्वतःस्फूर्त आंदोलन में माओवादी हथियारबंद दस्तों की घुसपैठ और उनकी बेमतलब सैन्य कार्रवाइयों ने इस आंदोलन की संभावनाओं की भ्रूण हत्या कर दी. जबकि इसके उलट नंदीग्राम और सिंगुर में किसानों के लोकप्रिय आंदोलन ने आम गरीबों की ताकत और जनसंघर्षों के बल पर राज्य और बड़ी पूंजी के प्रतिनिधियों को पीछे हटने को मजबूर कर दिया.
लेकिन इस सबसे सबक सीखने के बजाय सी.पी.आई (माओवादी) की ओर से अराजक सैन्य कार्रवाइयां बढ़ती ही जा रही हैं. इसकी माओवादियों से अधिक कीमत वास्तव में गरीब आदिवासी जनता और उसके जनसंघर्षों को चुकानी पड़ रही है. तथ्य यह है कि केंद्र और राज्य सरकारों की देशी-विदेशी कारपोरेटपरस्त नीतियों और जंगल, जमीन, जल, खनिजों की लूट और सेज जैसी योजनाओं से विस्थापन के खिलाफ अपने हक के लिए देश भर में जुझारू जनसंघर्षों की एक बाढ़ सी दिख रही है. इन जनसंघर्षों के कारण सरकार और कारपोरेट क्षेत्र को कई जगहों पर पीछे हटना पड़ा है और कई जगहों पर यह लड़ाई अब भी जारी है लेकिन माओवादी सैन्य अराजक राजनीति के कारण केंद्र-राज्य सरकारों के लिए इन सभी आन्दोलनों को माओवादी बताकर कुचलना आसान होता जा रहा है.
इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि देश के कई हिस्सों में जहां माओवादी आंदोलन का कोई असर नहीं है, वहां भी केंद्र-राज्य सरकारें गरीबों के जुझारू संघर्षों को माओवादी बताकर कुचलने और उनके नेताओं को गिरफ्तार करने से हिचकिचा नहीं रही है. उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात, उडीशा, आन्ध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में ऐसी गिरफ्तारियां और दमन आम होता जा रहा है. असल में, देश में माओवाद के कथित खतरे को केंद्र और राज्य सरकारें जिस तरह से बढ़ा-चढाकर दिखा/बता रही हैं, उसके पीछे भी वजह यही है कि गरीब जनता के हर संघर्ष खासकर जुझारू जनसंघर्षों को माओवादी बताकर कुचला जा सके. अफसोस की बात यह है कि अराजक सैन्य कार्रवाइयों खासकर दंतेवाड़ा जैसे हमलों के जरिये माओवादी केंद्र और राज्य सरकारों को सभी जनांदोलनों को कुचलने के लिए राजनीतिक माहौल बनाने का मौका दे रहे हैं.
दंतेवाड़ा और राजधानी एक्सप्रेस जैसे अराजक और दुस्साहसी हमलों के जरिये माओवादी उन मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों, मानवाधिकार कार्यकताओं, अन्य जुझारू आन्दोलनों और राजनीतिक दलों को भी एक तरह के नैतिक संकट और सरकारी दमन और कारपोरेट शोषण के खिलाफ उठनेवाली जनसंघर्षों की आवाजों को रक्षात्मक स्थिति में डाल देते हैं. एक ऐसे समय में जब रैडिकल बदलाव की राजनीति चौतरफा हमलों का सामना कर रही हो, वह अपने प्रति सहानुभूति रखनेवाले मध्यमवर्गीय तबकों और उदार-लोकतान्त्रिक बुद्धिजीवियों का समर्थन खोने का जोखिम नहीं उठा सकती है. लेकिन माओवादी अपनी अराजक सैन्य कार्रवाइयों के जरिये यही कर रही है.
दरअसल, अराजक माओवादी राजनीति की यह भी एक खास पहचान है. अपनी संकीर्णतावादी, अराजक सैन्य राजनीति के कारण उनमें जो अधिनायकवादी प्रवृत्तियां पनपने लगती हैं, उसके कारण वे अपने प्रभाव वाले इलाकों और उससे बाहर भी किसी और वैकल्पिक राजनीति और आंदोलन को सहन नहीं करते और न ही किसी बहस की इजाजत देते हैं. नतीजा यह कि बिहार और झारखण्ड के कई इलाकों में उन्होंने एम.एल के नेताओं और कार्यकर्ताओं की हत्या करने से भी परहेज नहीं किया है. खासकर झारखण्ड के बगोदर में एम.एल के लोकप्रिय विधायक महेंद्र सिंह की हत्या में उनकी भूमिका किसी से छुपी नहीं है. एम.एल की छोडिये, उन्होंने नेपाल में अपनी बिरादराना पार्टी सी.पी.एन(माओवादी) को भी पथभ्रष्ट बताने से संकोच नहीं किया.
यही नहीं, यह भ्रम भी दूर हो जाना चाहिए कि माओवादी जन, जंगल. जमीन और खनिजों की लूट के खिलाफ गरीब जनता खासकर आदिवासियों के हितों की लड़ाई लड़ रहे हैं. सच यह है कि अपने प्रभाव के इलाकों में माओवादियों ने जिस तरह से ठेकेदारों, कंपनियों, सामंतों, इंजीनियरों आदि से वसूली और लेवी का पूरा तंत्र खड़ा किया है, उसका मकसद लूट और भ्रष्टाचार का विरोध नहीं बल्कि उसे चलते रहने देकर उससे "बदलाव की रैडिकल राजनीति के लिए" संसाधन इकठ्ठा करना है. यह और बात है कि माओ ने बड़ी पूंजी पर आश्रित होने के बजाय जनता पर निर्भर रहने की सलाह दी थी. दूसरी बात यह कि कारपोरेट लूट के खिलाफ यह कैसी लड़ाई है कि उससे लेवी वसूल कर उसकी लूट को जारी रहने का लाइसेंस दिया जा रहा है? यही तो भारतीय राज्य भी कर रहा है. क्या माओवादी ऐसे ही बदलाव के लिए लड़ रहे हैं?
कहने की जरूरत नहीं है कि माओवादी खुले जनसंघर्षों की उपेक्षा और मुख्यधारा की राजनीति में हस्तक्षेप की जरूरत को अनदेखा करने की अपनी अराजक सैन्य राजनीति के कारण एक गहरे वैचारिक और राजनीतिक संकट में फंस गए हैं. दंतेवाड़ा जैसे हमले उसी संकट की हताशा से निकल रहे हैं. माओवादी पार्टी किस गंभीर संकट का सामना कर रही है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ महीनों में उसके १४ सदस्यी पोलित ब्यूरो के लगभग आधे सदस्य गिरफ्तार किये जा चुके हैं. कहना मुश्किल है कि आनेवाले महीनों में जब राज्य का आक्रमण और तेज होगा, अपनी अराजक राजनीति के कारण राजनीतिक रूप से लगातार अलग-थलग पड़ते जा रहे माओवादी तब किस हद तक उसका मुकाबला करने की स्थिति में होंगे? यह निश्चय ही, एक त्रासदी होगी लेकिन इसके लिए जिम्मेदार कौन है?
3 टिप्पणियां:
मावोवाद अब आतंकवाद बनचुका है , अब यह एक विचारधारा की लडाई नहीं बल्की डकैतों का संगठन है , आप का लेख पढ़ कर अच्छा लगा , आपसे यही उम्मीद थी
आनंद जी,
साहसिक तौर पर ऐसा लिखने के लिए आप बधाई के पात्र हैं...बेहतर विश्लेषण के साथ ही आपने माओवादी अराजक राजनीति की असल तस्वीर पेश की है।
Deep analysis indeed...Sir, I would like to post this article on my blog. Kindly allow me to do so.
prakash
www.bargad.wordpress.com
एक टिप्पणी भेजें