मंगलवार, अप्रैल 27, 2010

भूख और सुर्खी

भूख पहली सुर्खी क्यों नहीं है?

ऐसा अब बहुत कम दिखता है लेकिन प्रमुख अंग्रेजी दैनिक ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ ने देश में भूख के व्यापक साम्राज्य पर केंद्रित खबर को 24 मार्च को अपनी पहली लीड के बतौर पर छापा. उसके बाद उसने धारावाहिक रूप से देश के अलग-अलग इलाकों से भूख और कुपोषण की रिपोर्टें नियमित रूप से छापी हैं. इनमें से कई खबरें पहले पन्ने पर प्रमुखता से छपी हैं.

इसके साथ ही, ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ ने भूख के खिलाफ एक अभियान के रूप में ‘हंगर प्रोजेक्ट’ शुरू किया है जिसके तहत एच.टी मीडिया समूह के बिजनेस अखबार ‘मिंट’ और ‘दैनिक हिंदुस्तान’ ने भी इन खबरों को नियमित रूप से प्रकाशित किया है. यह सिर्फ संयोग नहीं है कि ये ख़बरें उस समय छपी हैं जब यू.पी.ए सरकार भोजन का अधिकार देने के लिए खाद्य सुरक्षा विधेयक लाने की तैयारी कर रही है.


लेकिन ऐसी खबरें आमतौर पर हिंदी के अखबारों/चैनलों में सुर्खी या पहली लीड क्यों नहीं बनती है? यहां तक कि एच.टी के हंगर प्रोजेक्ट में शामिल ‘दैनिक हिंदुस्तान’ ने भी इन खबरों और रिपोर्टों को वह प्रमुखता और सुर्खी नहीं दी जो उससे अपेक्षित थी. आखिर भूख और कुपोषण हिंदी पट्टी या बीमारू प्रदेशों की सबसे बड़ी समस्या है जहां से यह अखबार निकलता है. उसके पास ऐसे संवाददाताओं और संवेदनशील संपादकों की टीम भी है जो इन इलाकों में भूख, कुपोषण और दरिद्रता की हृदयविदारक कहानियों को देश के सामने ला सकते हैं.

फिर भी ‘दैनिक हिंदुस्तान’ में इन खबरों और इस अभियान को लेकर वह उत्साह देखने को नहीं मिला. हिंदी के अन्य अखबारों/चैनलों की तो बात करना ही बेकार है जिन्हें भूख तब तक कोई खबर नहीं दिखती है जब तक कि भूख से कोई मौत नहीं हो जाए. आखिर उनके मुताबिक खबर की परिभाषा किसी चीज के असामान्य होने में है न कि सामान्य होने में? हिंदी अख़बारों/चैनलों के संपादक पूछ सकते हैं कि भूख, कुपोषण और दरिद्रता में असामान्य क्या है?

लेकिन क्या भूख सचमुच तब तक खबर नहीं है जब तक कि उससे कोई मौत नहीं हो जाए? क्या स्थाई और नियमित भूख से तिल-तिलकर मर रहे और कुपोषण के शिकार बच्चे, महिलाएं और पुरुष ‘खबर’ नहीं हैं? यह सवाल महत्वपूर्ण और प्रासंगिक इसलिए है क्योंकि लोकतंत्र में समाचार मीडिया यानी अखबार और न्यूज चैनलों की भूमिका सिर्फ सूचना देना, शिक्षित करना और मनोरंजन करना भर ही नहीं है बल्कि उनकी एक जरूरी भूमिका एजेंडा निर्माण की भी है.

मीडिया विमर्श में एजेंडा निर्माण एक महत्वपूर्ण सैद्धांतिकी मानी जाती है जिसके मुताबिक समाचार मीडिया जिन मुद्दों और विषयों को ज्यादा और प्रमुखता से कवरेज देता है वे राष्ट्रीय विमर्श के एजेंडे पर आ जाते हैं. इससे एक जनमत बनता है. नतीजे में, राजनीतिक दलों-सामाजिक संगठनों और सरकार को उसपर प्रतिक्रिया देने और जरूरी कदम के लिए मजबूर होना पडता है.

कहने की जरूरत नहीं है कि लोकतंत्र के चौथे खम्भे के बतौर मीडिया अपने आसपास के मुद्दों और हलचलों से कतई निरपेक्ष नहीं रह सकता. भारतीय खासकर भाषाई पत्रकारिता का जन्म और विकास इसी मान्यता के बीच हुआ है. हिंदी पत्रकारिता की विरासत और परंपरा का निर्माण भी एजेंडा निर्माण के बीच ही हुआ है. यही भाषाई पत्रकारिता की सबसे बड़ी ताकत रही है.

लेकिन सवाल यह है कि पिछले एक-डेढ़ दशक में ऐसा क्या हुआ कि हिंदी के अखबारों में गाहेबगाहे भी ऐसी सुर्खी नहीं दीखती? ऐसा क्यों होता है कि हिंदी में कोई पी. साईंनाथ और ‘हिंदू’ जैसा अखबार नहीं दिखता जिन्होंने अकेले दम पर किसानों की आत्महत्याओं को राष्ट्रीय एजेंडे पर स्थापित कर दिया? हालांकि ‘प्रभात खबर’ जैसे कुछ अपवाद अभी भी हैं जो एजेंडा निर्माण की दृष्टि से अपने इलाके के महत्वपूर्ण मुद्दों पर खबरें, रिपोर्टें और अभियान चलते रहते हैं. हिंदी के कुछ और अखबार भी गाहे-बगाहे ऐसी आफबीट खबरों को अंदर के पन्नों पर छापकर अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभाने की कोशिश करते रहे हैं.

लेकिन कुल-मिलाकर स्थिति निराशाजनक ही है. क्या यह हिंदी अखबारों/चैनलों की हीन भावना का नतीजा है? कुछ मीडिया विश्लेषकों का मानना है कि हिंदी समाचार मीडिया में ऐसी खबरों को लेकर एक खास तरह का हीनताबोध है कि अगर वे ऐसी खबरों को सुर्खी बनाएंगे तो उन्हें भूखे-नंगे लोगों का अखबार मान लिया जायेगा क्योंकि उनके बारे में पहले से ही यह धारणा बनी हुई है कि हिंदीवाले गरीब-फटेहाल और भूखे लोग हैं. जबकि ऐसी सुर्ख़ियों के बावजूद अंग्रेजी अखबारों के बारे में कोई ऐसी धारणा नहीं बना सकता है.


हिंदी अखबारों के इस हीनताबोध की ठोस व्यावसायिक वजहें हैं. उन्हें यह डर सताता है कि अगर उनकी गरीबों-भूखों-नंगों के अखबार की छवि बन गई तो उन्हें विज्ञापनदाता नहीं मिलेंगे. आखिर ऐसे अखबार को कोई विज्ञापनदाता, विज्ञापन क्यों देगा जिसके पाठकों के पास क्रयशक्ति नहीं है? इसी तरह, आमतौर पर विज्ञापनदाता यह पसंद नहीं करते हैं कि अखबार/चैनल ऐसी खबरें छापें या दिखाएं जिससे पाठक/दर्शक डिप्रेस्ड महसूस करें और नया डियोडरेंट/परफ्यूम/पावडर खरीदने की जरूरत न समझें.


यही कारण है कि पिछले दो दशकों में जबसे नव उदारवादी आर्थिक सुधारों और उपभोक्तावाद की हवा चली है, अखबारों/चैनलों में फीलगुड खबरों की अहमियत बढ़ गई है और गरीबी-भूख-कुपोषण-विषमता की खबरें फैशन से बाहर हो गई हैं. लेकिन यही तर्क अंग्रेजी अखबारों पर भी लागू होते हैं. यह भी सही है कि वे भी मीडिया उद्योग के इन नियमों से बाहर नहीं हैं. वे भी अप-मार्केट और फीलगुड खबरों की दुनिया में ही सांसे लेते हैं. इसके बावजूद उनके यहां अपवादस्वरूप ही सही ऐसी खबरें न सिर्फ छपती हैं बल्कि सुर्खी भी बनती हैं.


फिर हिंदी अखबारों/चैनलों में इसके लिए कोई जगह क्यों नहीं है? ऐसा लगता है कि हिंदी अखबारों/चैनलों में विचारों और परिश्रम दोनों ही स्तरों पर एक सुस्ती और यथास्थितिवाद हावी हो गए हैं जिसके कारण वह संपादकीय साहस सिरे से गायब हो गया है जो 70 के दशक के उत्तरार्ध से लेकर 90 के दशक के शुरुआती वर्षों तक हिंदी के अखबारों-पत्रिकाओं की पहचान बन गया था.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि वह पहचान खोकर हिंदी समाचार मीडिया एजेंडा निर्माण की क्षमता भी गंवाता जा रहा है. लोकतांत्रिक ढांचे में यह हिंदी अखबारों और उनके पाठकों- दोनों के लिए चिंता और विचार का विषय है. आखिर बिना आवाज़ के अखबार किसका भला करेंगे?

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