फेसबुक उर्फ़ सोशल मीडिया के स्वर्ग से विदाई
कुछ दिनों पहले तक लगता था कि फेसबुक के बिना जीना भी क्या जीना है? इसलिए कि मार्शल मैक्लुहान ने कभी मीडिया को मनुष्य का ही विस्तार कहा था. आज फेसबुक वास्तविक दुनिया का सिर्फ आभासी विस्तार नहीं बल्कि उससे कुछ ज्यादा हो गया है.
उस दिन शाम को जे.एन.यू से टहलकर लौटते हुए बीते साल के कुछ छात्र मिल गए, छूटते ही पहला सवाल कि आपने फेसबुक छोड़ दिया? फिर कहने लगे कि सर लौट आइये. ईमानदारी की बात है कि फेसबुक से विदाई के बाद जब-तब एक बेचैनी सी उठती है.
संभव है कि इस दुनिया में फिर लौटूं. कब? खुद नहीं जानता. लेकिन यह कह सकता हूँ कि अपने कई दोस्तों को और फेसबुक की कुछ दिलचस्प बहसों को मिस कर रहा हूँ.
जहाँ तक याद आता है, ८० के दशक में अमिताभ बच्चन की एक फिल्म आई थी-
‘मि. नटवरलाल’! उन दिनों अपनी उम्र के बाकी दोस्तों की तरह मैं भी अमिताभ का
दीवाना था और मुझे अमिताभ-रेखा की जोड़ी पसंद थी.
इस फिल्म में शायद पहली बार
अमिताभ ने बच्चों के लिए एक गाना गया था-‘मेरे पास आओ, मेरे दोस्तों! एक किस्सा
सुनाऊं...’
इस गाने के आखिर में अमिताभ थोड़ा नाटकीय अंदाज़ में कहते हैं-“...खुदा
की कसम मजा आ गया...मुझे मारकर बेशरम खा गया...” इसपर तपाक से एक बच्चा पूछता है, ‘लेकिन
आप तो जिन्दा हैं?’ अमिताभ थोड़े खुन्नस में कहते हैं, ‘ये जीना भी कोई जीना है
लल्लू?’कुछ दिनों पहले तक लगता था कि फेसबुक के बिना जीना भी क्या जीना है? इसलिए कि मार्शल मैक्लुहान ने कभी मीडिया को मनुष्य का ही विस्तार कहा था. आज फेसबुक वास्तविक दुनिया का सिर्फ आभासी विस्तार नहीं बल्कि उससे कुछ ज्यादा हो गया है.
वह आपकी नई पहचान और मित्रों का नया अड्डा बनने लगा है. इस अड्डे पर
क्या चल रहा है, यह उत्सुकता बार-बार इसके अंजुमन तक खींच ले जाती है. उससे ज्यादा
यहाँ कुछ कहने और बहस छेड़ने की बेचैनी के कारण लगता था कि फेसबुक से जाना मुमकिन
नहीं होगा.
लेकिन आज फेसबुक एकाउंट को डीएक्टीवेट करने यानी आभासी दुनिया में
आत्महत्या के बाद पांच दिन हो गए. शुरूआती बेचैनी के बाद अब एक निश्चिन्तता सी है.
इससे पहले कि फेसबुक मुझे मारकर खा जाता. उसे विदा कहने में ही भलाई दिखी. नहीं
जानता कि इस निश्चय पर कब तक टिकना होगा. उस दिन शाम को जे.एन.यू से टहलकर लौटते हुए बीते साल के कुछ छात्र मिल गए, छूटते ही पहला सवाल कि आपने फेसबुक छोड़ दिया? फिर कहने लगे कि सर लौट आइये. ईमानदारी की बात है कि फेसबुक से विदाई के बाद जब-तब एक बेचैनी सी उठती है.
असल में, पिछले कई हप्तों से फेसबुक के साथ आभासी दुनिया (वर्चुअल
वर्ल्ड) में जीने पर अपन को भी यह अहसास हो रहा था कि एक लत सी लगती जा रही है. अपना
एक्टिविस्ट भी जाग उठता था. सच कहूँ तो सोया एक्टिविस्ट जग गया था.
चाहे यू.पी.ए सरकार का भ्रष्टाचार और जन विरोधी नीतियां हों या भगवा
गणवेशधारियों की सांप्रदायिक राजनीति- उनकी कारगुजारियों, सबकी पोल खोलने की
बेचैनी सुबह-दोपहर-शाम फेसबुक पर खींच ही लाती थी. खासकर भगवा राजनीति के दोहरे
चरित्र का पर्दाफाश और सांप्रदायिक फासीवादी अभियान के खतरों को बताने के उत्साह
ने एक मिशनरी जिद सी हासिल कर ली थी.
हालाँकि इंटरनेट के धर्मान्ध हिंदुओं से गालियाँ भी खूब मिलती थीं
लेकिन एक आश्वस्ति भी रहती थी कि चोट निशाने पर लगी है. फेसबुक पर लिखने और अपनी
बात कहने का उत्साह का आलम यह था कि जिस वर्ड फ़ाइल में लिखकर टिप्पणियां करता था,
उसमें से एक फ़ाइल में ४८५१२ शब्द और एक फ़ाइल में ३३१४ शब्द हैं. मतलब दो-तीन सालों
में फेसबुक एक्टिविज्म में कोई ५२ हजार शब्द लिख डाले यानी एक छोटी किताब पूरी हो
गई.
कई बार लगता था कि देखें तो वहां क्या बहस या चर्चा चल रही है? क्या
मुद्दे उठ रहे हैं? इसमें कोई दो राय नहीं है कि फेसबुक का ‘हिंदी पब्लिक स्फीयर’
वास्तविक दुनिया के पब्लिक स्फीयर से कहीं ज्यादा खुला, लोकतांत्रिक और गर्मागर्म
है. यह भी कि यहाँ आपको विभिन्न राजनीतिक-सामाजिक-वैचारिक धाराओं के दोस्तों की
आवाजें सुनने को मिल जाती हैं.
यह भी कि बहसें भी कई बार ज्यादा तीखी और आक्रामक होती हैं. कई बार
निपटाने का भाव ज्यादा होता है और बहसों में गहराई और गंभीरता कम होती है. गहरी बहस
के लिए जो धैर्य और विस्तार चाहिए, वह तो न के बराबर दिखता है.
इस मायने में फेसबुक एक ऐसे खुले और भीड़ भरे पब्लिक मैदान की तरह है
जहाँ सबको एक हैंड माइक मिला हुआ है. आप इस मैदान बोलते-ललकारते-कटाक्ष और लाइक
करते रहिये. बदले में इस सबके लिए तैयार रहिये. कई बार ऐसा लगता है कि यहाँ सब बोल
रहे हैं और कोई किसी की सुन नहीं रहा है.
कई बार यह भी लगता है कि कुछ मित्र इन झगडों में छुपे-चुपके ‘परपीड़ा
सुख’ और कुछ ‘पर-रति सुख’ का मजा भी ले रहे होते हैं. झूठ नहीं बोलूँगा, कई बार खुद
भी आभासी/वास्तविक दोस्तों के ऐसे झगडों और बहसों में दूर से ताक-झाँक करके मजा
लेता रहा हूँ.
लेकिन इधर काफी दिनों से लगने लगा था कि इसके कारण वास्तविक दुनिया का
पढ़ना-लिखना कम हो रहा है. यह अहसास इन दिनों कुछ ज्यादा ही होने लगा था. इसलिए तय
किया कि फेसबुक की आभासी दुनिया से फिलहाल, विदाई ली जाए. संभव है कि इस दुनिया में फिर लौटूं. कब? खुद नहीं जानता. लेकिन यह कह सकता हूँ कि अपने कई दोस्तों को और फेसबुक की कुछ दिलचस्प बहसों को मिस कर रहा हूँ.
सोचा है कि जब भी मन कुछ टिप्पणी करने का करेगा तो यहाँ ब्लॉग पर ही
लिखूंगा. आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा.
6 टिप्पणियां:
लेकिन आज फेसबुक एकाउंट को डीएक्टीवेट करने यानी आभासी दुनिया में आत्महत्या के बाद पांच दिन हो गए. :)
अभी तो हफ़्ता भी न हुआ हुकम , इब आपणे तो इक पोस्ट इस फ़ेसबुक को ही समर्पित कर डाल्या है जी । यो इत्ती घणी जल्दी छूटे कोई न :)
ब्लॉग कैसे रियल है फेसबुक वर्चुअल ?
We will miss you a lot in facebook sir :-(
हालाँकि मैं फेसबुक सक्रिय रूप से नहीं रहा हूँ लेकिन फिर भी अपने काम भर के लिए फेसबुक का उपयोग करता हूँ और उसमे आपका फेसबुक अकाउंट देखना कभी नहीं बुलता था। जिस दिन आपने अकाउंट बंद किया उस दिन शाम को मैंने आपको आपके नाम से, फिर आपकी मेल आईडी से खोजने की कोशिश की, आप जा चुके थे। तुरंत आईआईएमसी के ही एक साथी से इसकी चर्चा की।
आपके फेसबुक अकाउंट की जो सबसे ज्यादा अच्छी बात मुझे लगी वो थी-कमेंट पर काउंटर कमेंट करना, 'ख़ास' होते हुए भी 'आम' के साथ संवाद करना। क्योकि ऐसा बहुत कम या कहूँ निरे ही करते हैं। 'आम' के साथ उलझना अन्यो को शायद अपने तथाकथित 'स्टेटस' के प्रतिकूल लगता है।
आपके फेसबुक ने मुझे बहुत से अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर मिले, कुछ नए प्रश्न उभरे जिनका उत्तर निश्चित ही आपसे चाहूँगा। फेसबुक के अनुभवों पर लिखे इस लेख ने भी कई शंकाओं को सही साबित किया जैसे "फेसबुक का ‘हिंदी पब्लिक स्फीयर’ वास्तविक दुनिया के पब्लिक स्फीयर से कहीं ज्यादा खुला, लोकतांत्रिक और गर्मागर्म है", "बहसों में गहराई और गंभीरता कम होती है. गहरी बहस के लिए जो धैर्य और विस्तार चाहिए, वह तो न के बराबर दिखता है".
और अंत में 2014 लोकसभा में आपकी छोटी-२ लेकिन मोटी-२ बातें जरूर याद आएँगी।
हम अभासी मंच से आपके जाने की आपके अपने निर्णय का सम्मान करते हैं, लेकिन हम यहां आपको न पाकर खुश नहीं रहेंगे। बेशक, हमारी दूरी कम नहीं होगी हम सब आभासी मैदान में हर अच्छे-बुरे करम के लिए आपके कमेंट की बाट जोहते थे। आपके मिले हिट्स हमारे लिए हॉलमार्क की तरह होते थे। खैर, विदाई कुछ अच्छे के लिए होगी। कुछ अच्छा आपकी की बाट जोह रहा होगा। उस अच्छे का बहुत कुछ अच्छा हो, ये हम सबके लिए अच्छा।
सच बताऊं आज फेसबुक पर मैं आपको वयक्तिगत रूप से खोजा। आप नहीं मिले। आपको दोबार अपने फ्रेंडलिस्ट में खोजा तो आप नहीं मिले। मुझे बड़ी खीझ आई कि मेरे किसी गुनाह की वजह से हमें ब्लॉक तो नहीं कर दिया। चूंकि यकीं हो नहीं रहा था इसलिए आपका ब्लाग खोला और वहां आपका सुसाइड नोट पढ़कर एकबारगी खुशी हुई कि चलो भाई अपन बाइज्जत बरी हैं। लेकिन गमगीन नोट पढ़कर दुख-और खुशी दोनों हुई। दुख आपके आपके अब आभास(हलांकि हमारे लिए आप आभास नहीं थे)न होने का, खुशी कि जनहित के लिए उठा है यह कदम। लोगों के लिए अब और गंभीर खोज होगी। हम-सबकी दिल से शुभकामनाएं आपके साथ।
हमे इंतजार होगा उस पल का जब आप पुन: फेसबुक से जुड़ेंगे। यही तो एक जरिया है जिसके माध्यम से आप जैसे मी़डिया महारथी से सीधा संवाद किया जा सकता है। आपकी साधारन भाषा मे लिखे लेख वाकइ मे जबरदस्त होते हैं। निरंतर पाठक हुं
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