मंगलवार, जून 04, 2013

शेखर गुप्ता जी, मीडिया के तालाब को सिर्फ छोटी मछलियाँ नहीं गन्दी कर रही हैं

यहाँ तो सगरे कूप में भांग पड़ी है 
 
दूसरी और आखिरी क़िस्त 
 जाहिर है कि इसके कारण मीडिया उद्योग के पिरामिड के शीर्ष पर बैठे इन मुट्ठी भर कारपोरेट मीडिया समूहों के मालिकों और उनके चुनिंदा संपादकों/पत्रकारों की ताकत और प्रभाव में भी भारी इजाफा हुआ है. उनकी प्रधानमंत्री से लेकर कैबिनेट मंत्रियों और अफसरों तक और शासक पार्टियों के शीर्ष नेताओं से लेकर बड़े उद्योगपतियों तक सीधी पहुँच है.
 
इनकी पहुँच और प्रभाव का कुछ अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि इनमें से कई मीडिया मालिक और पत्रकार विभिन्न पार्टियों की ओर से और कुछ ‘सामाजिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक’ योगदान के कोटे से राज्यसभा में नामांकित सदस्य हैं.
इनके बढ़ते प्रभाव का अंदाज़ा नीरा राडिया के टेप्स से भी चलता है जिसमें इन समूहों के जाने-माने पत्रकार लाबीइंग से लेकर कारपोरेट के इशारे पर लिखते/बोलते और फिक्सिंग करते हुए पाए गए.
इस मीडिया उद्योग के पिरामिड के मध्य में वे क्षेत्रीय/भाषाई कारपोरेट मीडिया समूह हैं जो हाल के वर्षों में तेजी से फले-फूले हैं और अपनी क्षेत्रीय सीमाओं से भी बाहर निकले हैं. इसके साथ ही उन्होंने अखबार के साथ-साथ टी.वी, रेडियो और इंटरनेट में भी पाँव फैलाया है.

कहने की जरूरत नहीं है कि ये बहुत महत्वाकांक्षी हैं और इन्होंने स्थानीय शासक वर्ग में अपनी पैठ और प्रभाव के बलपर अपने कारोबार को फैलाया है. वे मीडिया के अलावा दूसरे कारोबारों में भी घुस रहे हैं ताकि बड़े कारपोरेट मीडिया समूहों के मुकाबले टिक सकें.

यही नहीं, इनमें से कई ने मौके की नजाकत को समझते हुए बड़े कारपोरेट मीडिया समूहों के साथ गठजोड़ में चले गए हैं.  

इन क्षेत्रीय/भाषाई मीडिया समूहों के लिए उनके कारोबारी हित सबसे ऊपर हैं और मुनाफे के लिए वे किसी भी समझौते को तैयार रहते हैं. हैरानी की बात नहीं है कि हाल के वर्षों में बिना किसी अपवाद के लगभग सभी राज्यों में क्षेत्रीय/भाषाई मीडिया समूहों और राज्य सरकारों के बीच संबंध अत्यधिक ‘मधुर’ बने रहे हैं.
इसकी सबसे बड़ी वजह राज्य सरकारों से मिलनेवाला विज्ञापन राजस्व और दूसरे कारोबारी फायदे रहे हैं. इस कारण ये मीडिया समूह राज्य सरकारों को नाराज नहीं करना चाहते हैं. यही नहीं, कई क्षेत्रीय मीडिया समूहों की क्षेत्रीय शासक दलों के साथ गहरी निकटता बन गई है क्योंकि इन दलों के शीर्ष नेता और मीडिया समूहों के मालिक या तो एक हैं या उनके कारोबारी हित गहरे जुड़ गए हैं.
इसका एक और उल्लेखनीय पहलू यह है कि हाल के वर्षों में कई राज्यों में उनके ताकतवर नेताओं/मुख्यमंत्रियों/दलों ने जनमत को प्रभावित करने में मीडिया के बढ़ते महत्व को समझते हुए परोक्ष या सीधे मीडिया में निवेश किया है और अखबार और खासकर न्यूज चैनल शुरू किये हैं.

यही नहीं, पंजाब, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में तो शासक दलों ने टी.वी वितरण यानी केबल उद्योग पर कब्ज़ा जमा लिया है और उसके जरिये चैनलों की बाहें मरोड़ते रहते हैं. दूसरी ओर, कई राज्यों में कमजोर सरकारों/मुख्यमंत्रियों को ताकतवर क्षेत्रीय मीडिया समूह विज्ञापन से लेकर दूसरे कारोबारी फायदों के लिए ब्लैकमेल करते भी दिख जाते हैं.

मीडिया उद्योग के पिरामिड के सबसे निचले हिस्से में हैं छोटी-मंझोली वे मीडिया कम्पनियाँ जिनके पीछे वैध-अवैध तरीके से रीयल इस्टेट, चिट फंड, लाटरी, ठेकेदारी, नर्सिंग होम/निजी विश्वविद्यालयों, डांस बार से लेकर अंडरवर्ल्ड तक से कमाई गई पूंजी लगी है.
इनका असली मकसद मीडिया कारोबार से ज्यादा न्यूज मीडिया को अपने वैध-अवैध धंधों को पुलिस/प्रशासन/सरकार से बचाने और सार्वजनिक जीवन में साख बटोरने के लिए इस्तेमाल करना है. ये मीडिया कम्पनियाँ घाटे के बावजूद कैसे चलती रहती हैं, इस रहस्य का सीधा संबंध उनके दूसरे वैध-अवैध कारोबार के फलने-फूलने के साथ जुड़ा हुआ है.
आश्चर्य नहीं कि इन मीडिया कंपनियों के मालिक उसका इस्तेमाल नेताओं/अफसरों तक पहुँचने और उनसे लाबीइंग के लिए करते हैं.
यही नहीं, इन मीडिया कंपनियों में काम करनेवाले ज्यादातर वरिष्ठ पत्रकारों और संपादकों को भी पत्रकारिता से मालिकों के कारोबारी हितों को आगे बढ़ाने के लिए दलाली करनी पड़ती है. इन मीडिया समूहों में संपादक/ब्यूरो चीफ जैसे पदों पर पहुँचने की सबसे बड़ी योग्यता पत्रकारों की सत्तासीन पार्टी के साथ नजदीकी और उनके संपर्क/पहुँच होते हैं.

सारदा समूह को ही लीजिए जिसके चैनलों/अखबारों के सी.ई.ओ कुणाल घोष पेशे से पत्रकार होने के बावजूद समूह के शीर्ष पर इसलिए पहुँच पाए कि उनके तृणमूल के शीर्ष नेतृत्व के साथ नजदीकी संबंध थे. हैरानी की बात नहीं है कि कुणाल घोष तृणमूल के राज्यसभा सांसद भी बन गए.

लेकिन सारदा ऐसी अकेली कंपनी नहीं है जो अपने अवैध धंधों पर पर्दा डालने, उसे एक विश्वसनीयता देने और सरकार/सत्तारुढ़ पार्टी के साथ नजदीकी का फायदा उठाने के लिए अखबार/चैनल चला रही थी. देश में ऐसे अखबारों/चैनलों की संख्या सैकड़ों में है.
क्या यह सिर्फ संयोग है कि देश में इस समय केन्द्र सरकार ने ८२५ चैनल के लाइसेंस दिए हुए हैं जिनमें लगभग आधे न्यूज चैनल हैं? जाहिर है कि इन न्यूज चैनलों में से लगभग आधे ऐसे ही कारोबारियों के चैनल हैं जिनके धंधे और आमदनी के स्रोत साफ़ नहीं हैं.
हालाँकि वे घाटे में चल रहे हैं, वहां काम करने की परिस्थितियां बहुत खराब हैं, तनख्वाह तक समय पर नहीं मिलती है और पत्रकारिता से इतर कामों का दबाव रहता है लेकिन उनकी ‘कामयाबी’ देखकर ऐसे ही दूसरे कारोबारियों की मीडिया के धंधे में उतरने की लाइन लगी हुई है.
हालाँकि मीडिया उद्योग के पिरामिड के शीर्ष से लेकर नीचे तक यानी बड़ी कारपोरेट मीडिया कंपनियों से लेकर छोटी-मंझोली कंपनियों तक सभी कम या बेशी पत्रकारिता के नामपर खबरों की खरीद-फरोख्त के धंधे में लगी हुई हैं, भांति-भांति के समझौते करके अपने दूसरे कारोबारी हितों को आगे बढ़ाने में जुटी हुई हैं और पाठकों-दर्शकों की आँख में धूल झोंकने में शामिल हैं.

लेकिन बड़ी कारपोरेट मीडिया कम्पनियाँ इसका सारा दोष पिरामिड के निचले और कुछ हद तक मध्य हिस्से की मीडिया कंपनियों पर डालकर अपना दामन बचाने की कोशिश कर रही हैं.

पिछले दिनों कोलकाता में इंडियन चैंबर आफ कामर्स की एक सभा में जी समूह के मालिक सुभाष चंद्रा ने शिकायती लहजे में कहा कि पुलिस से बचने के लिए आज मीडिया कारोबार में बिल्डर्स, हिस्ट्री शीटर्स आ रहे हैं. (http://www.thehoot.org/web/Does-owning-media-help-/6761-1-1-10-true.html )

दूसरी ओर, ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के संपादक शेखर गुप्ता ने भी अपने एक लेख ‘मेरे पास मीडिया है’ (http://www.indianexpress.com/news/national-interest-mere-paas-media-hai/1108319/ ) में दोष फिक्सर-कारोबारियों पर मढते हुए अपनी साख बचाने के लिए बड़ी कारपोरेट मीडिया कंपनियों को सचेत किया है.
लेकिन सवाल यह है कि क्या कुछ चिट फंड, रीयल इस्टेट, डांस बार आदि धंधे करनेवाले मीडिया कारोबार में आ गए हैं और मीडिया के पवित्र सरोवर को गन्दा कर रहे हैं या फिर मुद्दा ‘सगरे कूप में भांग’ पड़ने की है?
अगर मुद्दा सिर्फ कुछ मछलियों के तालाब को गन्दा करने का है तो साफ़-सुथरी और गंभीर पत्रकारिता करनेवाले बड़े मीडिया समूह ऐसी मछलियों का पर्दाफाश क्यों नहीं करते हैं? वे ऐसी मीडिया कंपनियों की कारगुजारियों पर चुप क्यों रहते हैं?
आखिर शेखर गुप्ता के पास कौन सी ऐसी जादुई ताबीज है जिससे वे बता सकते हैं कि मीडिया कारोबार का कौन सा कारोबारी गंभीर और साफ़-सुथरी पत्रकारिता करने के लिए इस धंधे में है या आ रहा है और कौन पुलिस/प्रशासन से बचने और सरकार से अनुचित फायदे लेने के लिए आया है?

क्या यह सच नहीं है कि न्यूज मीडिया के धंधे के बड़े खिलाडी ज्यादा व्यवस्थित, सृजनात्मक और प्रबंधकीय नवोन्मेष के साथ खबरें बेचते या तोड़ते-मरोड़ते हैं जबकि छोटे-मंझोले खिलाडी वह कला नहीं सीख पाए हैं और इसलिए बहुत भद्दे तरीके से खबरों का धंधा करते हैं? उनकी चोरी जल्दी ही पकड़ी भी जाती है.

सबसे बड़ी बात यह है कि दर्शकों/पाठकों में उनकी साख न के बराबर है, इसलिए वे व्यापक पाठक/दर्शक समूह को बहुत नुकसान नहीं पहुंचा पाते हैं लेकिन जिन बड़े अखबारों/चैनलों पर सबसे अधिक पाठकों/दर्शकों का भरोसा है, वे खबरों का सौदा करके जब उन्हें अँधेरे में रखते हैं या उनकी आँखों में धूल झोंकते हैं, तो वे आम पाठकों/दर्शकों और उनके साथ व्यापक जन समुदाय और उनके हितों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं.

क्या यह अब भी बताने की जरूरत है कि सारदा समूह के न्यूज चैनलों और जी न्यूज की पत्रकारिता में लोकतंत्र के लिए ज्यादा बड़ा खतरा कौन है?

('कथादेश' के जून'13 अंक में प्रकाशित टिप्पणी की आखिरी क़िस्त। पहली क़िस्त आप 24 मई को पढ़ चुके हैं)  

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