बुधवार, दिसंबर 21, 2011

कपिल सिब्बल को गुस्सा क्यों आता है?


कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना : आपत्तिजनक कंटेंट तो बहाना है, रैडिकल समूह असली निशाना हैं


संचार मंत्री कपिल सिब्बल फेसबुक, गूगल और याहू जैसे इंटरनेट और सोशल नेटवर्किंग साइट्स से खासे नाराज हैं. उनकी नाराजगी की वजह खुद उनके मुताबिक यह है कि इन साइट्स पर ऐसा ‘बहुत कुछ आपत्तिजनक’ है जो न सिर्फ ‘भारतीय लोगों की संवेदनाओं और धार्मिक भावनाओं को चोट’ पहुंचा सकता है बल्कि दंगे-फसाद की वजह बन सकता है.

इसलिए सिब्बल साहब चाहते हैं कि ये साइट्स न सिर्फ ऐसे ‘आपत्तिजनक’ कंटेंट को तुरंत हटाएँ बल्कि ऐसी व्यवस्था करें कि इस तरह का ‘आपत्तिजनक’ कंटेंट इन साइट्स पर अपलोड होने से पहले फिल्टर किया जाए.

लेकिन सिब्बल ने यह कहकर जैसे बर्र के छत्ते को छेड दिया. इंटरनेट और खासकर सोशल नेटवर्किंग साइट्स की आभासी दुनिया से लेकर न्यूज चैनलों के स्टूडियो तक में हंगामा और बहसें शुरू हो गईं. सिब्बल के असली इरादों पर सवाल उठने लगे. माना गया कि वे इंटरनेट खासकर सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अपनी सरकार और नेताओं की आलोचनाओं से बौखलाए हुए हैं.

यह भी कि सिब्बल सरकार विरोधी आन्दोलनों खासकर भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल आंदोलन में लोगों को जोड़ने और सक्रिय करने में इन साइट्स की उल्लेखनीय भूमिका से भी घबराए हुए हैं. इसी नाराजगी और घबराहट में वे इन साइट्स पर सेंसरशिप आयद करने और उन्हें काबू में करने की कोशिश कर रहे हैं.

हालांकि इन तीखी आलोचनाओं ने सिब्बल को सफाई पेश करने के लिए मजबूर कर दिया और वे अब दावा कर रहे हैं कि इंटरनेट पर सेंसरशिप थोपने का उनका कोई इरादा नहीं है. वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कसमें भी खा रहे हैं.

सिब्बल का कहना है कि वे तो सिर्फ इतना चाहते हैं कि ये साइट्स ‘आपत्तिजनक’ कंटेंट के मामले में आत्म-नियमन (सेल्फ-रेगुलेशन) का पालन करें. अहा! सिब्बल साहब की इस मासूमियत पर कौन न कुर्बान हो जाए? बकौल ग़ालिब, ‘इस सादगी पर कौन न मर जाए ऐ खुदा, लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं.’

लेकिन सिब्बल, सिब्बल हैं. वे अपनी तलवार जितनी छुपाने की कोशिश करें, वह छुप नहीं पा रही है. वे एक ओर अभिव्यक्ति की आज़ादी के प्रति अपनी वचनबद्धता की दुहाईयां भी दे रहे हैं लेकिन दूसरी ही सांस में इन साइट्स को चेताने से भी बाज नहीं आ रहे हैं कि उन्हें ‘भारतीय संवेदनशीलताओं’ का ध्यान रखना होगा.

सिब्बल के मुताबिक, वे इन साइट्स पर लोगों की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने वाले ‘आपत्तिजनक’ कंटेंट को बर्दाश्त नहीं करेंगे. साफ़ है कि सिब्बल पीछे हटने के लिए तैयार नहीं हैं. यह भी कि वे पूरी तैयारी के साथ मैदान में उतरे हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि इस तैयारी के तहत ही वे इन साइट्स पर धार्मिक भावनाओं को आहत करनेवाले कंटेंट पर अंकुश लगाने की आड़ ले रहे हैं. अन्यथा किसे पता नहीं है कि उनके गुस्से और घबराहट की असली वजह क्या है?

सिब्बल साहब मानें या न मानें लेकिन सच यह है कि वे मध्यवर्ग खासकर युवाओं के बीच सूचना, संवाद, चर्चा और संगठन के नए, ज्यादा खुले और वैकल्पिक मंच के बतौर उभरे इन साइट्स की बढ़ती लोकप्रियता से घबराए हुए हैं.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि सरकार और व्यवस्था विरोधी रैडिकल समूहों और व्यक्तियों के लिए ये साइट्स मुख्यधारा के कारपोरेट मीडिया की तुलना में ज्यादा सुलभ और खुली हुई हैं. बेशक, इन समूहों की उपस्थिति ने इन साइट्स अभिव्यक्ति का वैकल्पिक मंच बना दिया है.

इन साइट्स के प्रति सिब्बल साहब के गुस्से की बड़ी वजह यही है. उनकी बौखलाहट इस खीज से निकली है कि अभी तक वे इस मंच को कारपोरेट मीडिया की तरह ‘मैनेज’ करने के तरीके नहीं खोज पाए हैं. इन मंचों पर उनकी घुसपैठ अभी सीमित है, उसे काबू में करने की तो बात ही दूर है.

लेकिन यह सिर्फ सिब्बल की खीज और गुस्सा नहीं है. सिब्बल सिर्फ एक प्रतीक भर हैं. असल में, सत्ता और व्यवस्था विरोधी समूहों ने दुनिया भर में जिस तरह से इंटरनेट और उसपर मौजूद ब्लॉग, सोशल नेटवर्किंग साइट्स जैसे नए माध्यमों को लोगों तक सूचनाएं पहुंचाने, महत्वपूर्ण मुद्दों पर खुली चर्चाएँ छेड़ने और लोगों को संगठित करने के लिए इस्तेमाल किया है, उससे इस नए खतरे को लेकर सरकारों और शासक वर्गों की नींद खुल गई है.

नतीजा, भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के कपिल सिब्बल एकजुट हो रहे हैं. इसके साथ ही, इन नए माध्यमों को काबू करने, उनमें घुसपैठ करने, उन्हें मैनेज करने और उनकी निगरानी की कोशिशें बड़े पैमाने पर शुरू हो गईं हैं.

कहीं आतंकवाद से निपटने के नाम पर, कहीं धार्मिक भावनाओं की हिफाजत के बहाने और कहीं समाज को ‘आपत्तिजनक’ कंटेंट से बचाने के नाम पर नए माध्यमों की घेराबंदी शुरू हो गई है. कहने की जरूरत नहीं है कि जब तक ये नए माध्यम लोगों के मनोरंजन, सतही चैट और सस्ती पोर्नोग्राफी के माध्यम थे, सत्ता और शासक वर्गों को कोई शिकायत नहीं थी.

लेकिन जैसे ही इन माध्यमों को सत्ता की पोल खोलने, वैकल्पिक विमर्शों और आन्दोलनों को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा, सरकारों को उनमें देश-समाज-समुदायों के लिए खतरा दिखने लगा है. वे इन माध्यमों खासकर इन्हें इस्तेमाल करने वाले समूहों/व्यक्तियों के खिलाफ टूट पड़ी हैं.

इस मायने में, आज जूलियन असान्जे और विकिलिक्स के साथ जो हो रहा है, वह सिर्फ ट्रेलर है. इससे निश्चय ही, कपिल सिब्बल जैसों की हिम्मत बढ़ी है. वे चुप नहीं बैठनेवाले हैं. हैरानी नहीं होगी, अगर आने वाले दिनों में इन साइट्स और उनसे ज्यादा इनका इस्तेमाल करनेवाले रैडिकल समूहों और व्यक्तियों पर सिब्बलों और उन जैसों की गाज गिरे.

बिहार में नितीश कुमार के ‘सुशासन’ की फेसबुक पर कलई खोलने वाले मुसाफिर बैठा और अरुण नारायण को जिस तरह से इसकी कीमत चुकानी पड़ी है, उससे साफ़ है कि इस मामले में कपिल सिब्बलों और नितीश कुमारों के बीच कोई फर्क नहीं है. यह भी कि आगे क्या होनेवाला है?

('तहलका' के ३१ दिसंबर'११ के अंक में प्रकाशित स्तम्भ का पूरा हिस्सा)

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