शुक्रवार, जनवरी 04, 2013

छात्र-युवा आंदोलन की पुनर्वापसी के मायने

छात्रसंघ और छात्र-युवा आन्दोलन लोकतान्त्रिक राजनीति के प्राण-वायु हैं

दिल्ली गैंग रेप और महिलाओं के खिलाफ बढ़ती यौन हिंसा के खिलाफ देश भर खासकर दिल्ली में शुरू हुए आंदोलन में छात्रों-युवाओं की सक्रिय, सचेत और नेतृत्वकारी भूमिका को सबने नोटिस किया है. इस बर्बर और शर्मनाक घटना के विरोध में जिस तरह से दिल्ली की सड़कों खासकर मुख्यमंत्री निवास-रायसीना-विजय चौक से लेकर इंडिया गेट और फिर जंतर-मंतर पर छात्रों-युवाओं का गुस्सा फूटा और पुलिस की ओर से हुए लाठीचार्ज, आंसूगैस और ठन्डे पानी की बौछारों के बावजूद वे डटे रहे, उसने सत्ता प्रतिष्ठान और समूचे राजनीतिक वर्ग को हिला कर रख दिया है.  
हालाँकि वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने दिल्ली में छात्र-युवाओं के इस तरह से सड़क पर उतरने और विरोध करने की तुलना ‘फ्लैश मॉब’ से करके उसकी खिल्ली उड़ाने की कोशिश की है लेकिन सच यह है कि इसने ६० से लेकर ८० के दशक तक के छात्र-युवा आंदोलनों के तूफानी दौर और जज्बे की याद दिला दी है.

यह एक मायने में राष्ट्रीय जीवन और परिदृश्य से गायब से हो गए छात्र-युवा आंदोलन के पुनर्रूज्जीवन और वापसी का संकेत भी हो सकता है. यह किसी से छुपा नहीं है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में मंडल-मंदिर से विभाजित और उदारीकरण-भूमंडलीकरण के तड़क-भड़क से प्रभावित छात्र-युवा आंदोलन काफी कमजोर हो गया था और उसकी धमक क्षीण सी हो गई थी.

यही नहीं, शासक वर्गों ने छात्र-युवा आंदोलन को कमजोर करने के लिए सुनियोजित तरीके से देश भर में खासकर उत्तर भारत के विश्वविद्यालयों/कालेजों में पहले छात्रसंघों को प्रतिबंधित किया और फिर लिंगदोह समिति की सिफारिशों के जरिये छात्रसंघों को कमजोर, अराजनीतिक और पालतू बनाने की कोशिश की.
इसकी वजह यह थी कि चाहे कांग्रेस या गैर कांग्रेस पार्टियों की केन्द्र सरकार रही हो या राज्य सरकारें सभी छात्रसंघों और छात्र-युवा आन्दोलनों से डरती रही हैं क्योंकि ६० से ८० के दशक के दौरान देश में विभिन्न मुद्दों पर सत्ता को चुनौती देनेवाले ज्यादातर छात्र-युवा आंदोलनों की अगुवाई छात्रसंघों ने ही की थी.
इसके अलावा छात्र-युवा आन्दोलनों को कमजोर करने में ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों और उनके जेबी छात्र-युवा संगठनों की भी बहुत बड़ी भूमिका रही है. इन सत्तारुढ़ पार्टियों ने अपने छात्र-युवा संगठनों को केवल राजनीतिक रैलियों में भीड़ जुटाने, शीर्ष नेताओं की जय-जयकार और जरूरत पड़ने पर हंगामा-तोड़फोड़ और गुंडागर्दी करने के लिए इस्तेमाल किया है.

नतीजा सामने है. छात्र-युवा राजनीति के अपराधीकरण और उसे धर्मों, जातियों, क्षेत्रों और भाषाओँ के आधार पर बांटने में इन शासक पार्टियों की भूमिका किसी से छुपी नहीं है. छात्र-युवा राजनीति के अपराधीकरण ने उसे आम छात्र-युवाओं और उनके वास्तविक मुद्दों से दूर कर दिया और इसके कारण छात्र-युवाओं का बड़े पैमाने पर अराजनीतिकरण हुआ.  

आश्चर्य नहीं कि पिछले डेढ़-दो दशकों से देश में इक्का-दुक्का और क्षेत्र विशेष तक सीमित छात्र-युवा आन्दोलनों के अलावा किसी बड़े मुद्दे पर छात्र-युवा आंदोलन की धमक नहीं सुनाई दी है. ऐसा लगने लगा था, जैसे छात्र-युवा आंदोलन इतिहास की बात हो गए हों. लेकिन २०१० में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में छात्र-युवाओं की बड़े पैमाने पर सक्रिय भागीदारी ने छात्र-युवा आंदोलन के फिर से उठ खड़ा होने की नई उम्मीदें पैदा कर दीं.
इसी दौरान आइसा जैसे रैडिकल-वाम और कुछ दूसरे वाम-लोकतांत्रिक छात्र संगठनों के संघर्षों के दबाव में जे.एन.यू से लेकर इलाहाबाद और पटना तक कई विश्वविद्यालयों में इस साल छात्रसंघों के चुनाव हुए और उसमें आइसा और अन्य वाम-लोकतांत्रिक छात्र संगठनों की जीत हुई.
इसका असर हमारे सामने है. दिल्ली के बर्बर गैंग रेप के बाद विरोध में सबसे पहले वाम छात्र संगठनों की अगुवाई वाला जे.एन.यू छात्रसंघ उतरा. उसने मुनीरका और वसंत विहार में बाहरी रिंग रोड को घंटों जाम रखा.

उसके अगले दिन आइसा-आर.वाई.ए-एपवा की अगुवाई में जे.एन.यू, जामिया और दिल्ली विश्वविद्यालय के सैकड़ों छात्र-छात्राओं ने दिल्ली की मुख्यमंत्री के घर पर जोरदार प्रदर्शन किया जिसपर पुलिस ने वाटर कैनन से ठंडे पानी की बौछारें छोडीं और लाठीचार्ज किया. लेकिन नाराज छात्र-युवा पीछे नहीं हटने को तैयार नहीं हुए.

मुख्यमंत्री निवास पर छात्र-युवाओं के शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर पुलिसिया कार्रवाई को पूरे देश ने न्यूज चैनलों पर देखा. इसके बाद तो जैसे लोगों खासकर छात्र-युवाओं के सब्र का बाँध टूट पड़ा. रायसीना-विजय चौक से लेकर इंडिया गेट तक विरोध प्रदर्शनों की बाढ़ सी आ गई.
हजारों की संख्या में सड़कों पर उतरे छात्र-युवाओं खासकर छात्राओं ने एक तरह से राजधानी में सत्ता के केन्द्रों को घेर लिया. पुलिस के लाठीचार्ज, आंसूगैस और वाटर कैनन के बावजूद वे पीछे हटने को तैयार नहीं हुए. इंडिया गेट पर तो पुलिस ने हद कर दी जहाँ शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों खासकर छात्राओं-महिलाओं तक पर लाठियां चलाने में उसे कोई संकोच और शर्म महसूस नहीं हुई.
लेकिन इस दमन से यह आंदोलन कमजोर नहीं हुआ बल्कि पूरे देश में फ़ैल चुका है. इस आंदोलन में छात्रों-युवाओं खासकर महिलाओं की बड़े पैमाने पर भागीदारी और उसके कारण बने जन-दबाव का ही नतीजा है कि इसने एक झटके में महिलाओं की आज़ादी, सम्मान और सुरक्षा के मुद्दे को राष्ट्रीय राजनीतिक एजेंडे पर ला खड़ा किया है.

केन्द्र और राज्य सरकारों से लेकर सभी राजनीतिक दलों की नींद टूट गई है और महिलाओं के खिलाफ होनेवाले यौन हिंसा को रोकने के लिए कड़े कानून, फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने से लेकर पुलिस को चुस्त और संवेदनशील बनाने, हेल्पलाइन शुरू करने जैसे फैसले-वायदे लिए जा रहे हैं.

लेकिन कल्पना कीजिए कि अगर इस मुद्दे पर जे.एन.यू छात्रसंघ और आइसा-एपवा जैसे संगठनों ने विरोध की पहल नहीं की होती और दिल्ली सहित पूरे देश में हजारों-लाखों की संख्या में छात्र-युवा सड़कों पर नहीं निकले होते तो क्या सरकार और राजनीतिक पार्टियों की नींद खुलती?
दिल्ली गैंग रेप अपनी सारी बर्बरता के बावजूद क्या बलात्कार का एक और मामला बनकर पुलिस-कोर्ट तक सीमित नहीं रह जाता? क्या महिलाओं की आज़ादी, सम्मान और सुरक्षा का सवाल हाशिए से राष्ट्रीय राजनीति के केन्द्र में आ पाता? क्या महिलाओं के विभिन्न मुद्दों पर देश भर में शुरू हुई बहस और उससे पैदा हो रही सामाजिक जागरूकता संभव हो पाती?
कहने का गरज यह कि छात्र-युवा आंदोलन और छात्रसंघ किसी भी लोकतांत्रिक राजनीति के प्राणवायु हैं. वे न सिर्फ सरकारों की सामाजिक निगरानी और उनपर अंकुश रखने का काम करते हैं बल्कि उनके जनविरोधी फैसलों के खिलाफ आन्दोलनों की अगुवाई करके नया राजनीतिक विकल्प पैदा करने में भी मदद करते हैं. वे सामाजिक बदलाव के मुद्दों को भी राष्ट्रीय एजेंडे पर लाने में मदद करते हैं.
हैरानी की बात नहीं है कि देश और दुनिया में जितने भी बड़े छात्र-युवा आंदोलन हुए हैं, वे छात्रों-युवाओं के तबके मुद्दों पर नहीं बल्कि तानाशाही के खिलाफ लोकतंत्र की बहाली के लिए या भ्रष्टाचार के खिलाफ सार्वजनिक शुचिता और पारदर्शिता जैसे मुद्दों पर हुए हैं.

लेकिन अफसोस की बात यह है कि देश में छात्र-युवा राजनीति और छात्रसंघों को सुनियोजित तरीके से खत्म करने की कोशिशें अभी भी जारी हैं. हैरानी की बात नहीं है कि देश के अधिकांश राज्यों में विश्वविद्यालयों/कालेजों में छात्रसंघों के चुनाव नहीं हो रहे हैं.
यहाँ तक कि बी.एच.यू., जामिया और ए.एम.यू जैसे कई केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में न सिर्फ छात्रसंघों के चुनाव प्रतिबंधित हैं बल्कि वहां छात्र संगठनों की गतिविधियों और सभा-चर्चाओं तक पर भी रोक है. इस कारण पिछले वर्षों में छात्र-युवाओं की कई पीढ़ियों का राजनीतिकरण नहीं हुआ और छात्र-युवा आंदोलन ठंडे से पड़ते गए.
कहने की जरूरत नहीं है कि इससे राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति को भारी नुकसान हुआ है. छात्र-युवा राजनीति का गला घोंट देने के कारण न सिर्फ नया नेतृत्व नहीं आ रहा है बल्कि उसके कारण अधिकांश राजनीतिक पार्टियों में वंशवाद मजबूत हुआ है.

समय आ गया है जब छात्र-युवा आन्दोलनों के महत्व और उनकी भूमिका को देखते हुए न सिर्फ सभी विश्वविद्यालयों/कालेजों में छात्रसंघों के चुनाव अनिवार्य किये जाएँ बल्कि छात्र-युवा राजनीति को भी प्रोत्साहित किया जाए.

छात्रों-युवाओं को भी सत्तारुढ़ पार्टियों के जेबी छात्र-युवा संगठनों और अपराधी छात्र-युवा नेताओं के बजाय रैडिकल बदलाव की राजनीति करनेवाले वैचारिक-राजनीतिक छात्र-युवा संगठनों को आगे बढ़ाना होगा. अन्यथा उनके छात्रसंघ की भी वही मूकदर्शक की भूमिका होगी जो मौजूदा आंदोलन के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ की रही?

('दैनिक भास्कर' के 4 जनवरी के अंक में आप-एड पृष्ठ पर प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित संस्करण) 

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