यह अराजक भीड़ नहीं, लोकतंत्र की नई उम्मीद है
हड़बड़ी और घबड़ाहट में केंद्र और दिल्ली सरकार ने कानून में बदलाव और दिल्ली गैंग रेप की जांच के लिए दो न्यायिक आयोग बनाने से लेकर फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने, दिल्ली में सार्वजनिक बसों की संख्या बढ़ाने जैसे कई फैसले किये हैं.
लेकिन ए.बी.वी.पी जैसे संगठन और बाबा रामदेव जैसे धर्मगुरु को न सिर्फ इस आंदोलन में कोई तवज्जो नहीं मिली है बल्कि लोगों और खासकर युवाओं ने खुद ही अलग-थलग कर दिया है. इसके उलट आइसा-एपवा जैसे रैडिकल-वाम संगठन वहां नेतृत्वकारी भूमिका में हैं और उनके तर्कों और विचारों को सुना जा रहा है.
लेकिन सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि इन संगठनों और उनके कार्यकर्ताओं से कई गुना ज्यादा संख्या में आम नौजवान खासकर लड़कियां और महिलाएं हैं जो खुद वहां पहुँच रही हैं. इनका किसी राजनीतिक संगठन या पार्टी से संबंध नहीं है. वे सभी गुस्से में हैं. उन्हें लगता है कि ‘बस, अब बहुत हो चुका.’ सबके अपने पीड़ादायक अनुभव हैं जो उन्हें उस बहादुर लड़की से जोड़ते हैं, उसकी पीड़ा और बलात्कारियों के खिलाफ संघर्ष में साझीदार बनाते हैं और लड़ने का हौसला और साहस देते हैं.
लेकिन धीरे-धीरे इसमें वह विवेक और तार्किकता बढ़ रही है जो न्याय का मतलब बदला नहीं समझती है, जो यौन हिंसा का समाधान फांसी में नहीं देखती हैं, जो कड़े कानूनों और चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात करने से परे जाकर सरकार, पुलिस, कोर्ट और कानूनों पर हावी उस पुरुषसत्ता और पुरुषवादी सोच को निशाने पर ले रही हैं जो लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ हिंसा और यौन अत्याचारों को कभी घर से बाहर निकलने, कभी फैशन और कपड़ों और कभी संस्कारों आदि के नामपर जायज ठहराने की कोशिश करते हैं. वे ऐसे किसी कुतर्क और बहाने को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं.
वे विजय चौक और इंडिया गेट पर भारतीय संविधान या संसद या राष्ट्रपति भवन या नार्थ-साउथ ब्लाक को ध्वस्त करने भी नहीं पहुंचे थे और न ही उनका इरादा राजधानी और सत्ता के शीर्ष पर कोई अराजकता पैदा करना था.
उन्हें यह भय सता रहा है कि देश भीड़तंत्र की ओर बढ़ रहा है जोकि देश में पिछले कई दशकों और अनेकों बलिदानों के बाद खड़ा किये गए लोकतांत्रिक व्यवस्था को तहस-नहस कर देगा. उन्हें यह चिंता है कि इस भीड़ की हिम्मत बढ़ती जा रही है, उसने जैसे ‘अव्यवस्था’ फैलाने और ‘हुक्मउदूली’ करने का लाइसेंस हासिल कर लिया है और अपनी शर्तों पर अपनी मांगें मनवाने की कोशिश कर रही है.
इस सक्रिय भागीदारी का एक लोकप्रिय रूप विरोध करने का अधिकार भी है. विरोध का अधिकार लोकतंत्र की आत्मा है. इस मायने में दिल्ली में गैंग रेप के खिलाफ भड़के गुस्से और लोगों खासकर युवा लड़के-लड़कियों का सड़क पर उतरना और विरोध जाहिर करना लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है. उसने विरोध करने के अधिकार को फिर से बहाल करने की कोशिश की है.
याद कीजिए, इससे पहले कब देश में स्त्रियों के खिलाफ हिंसा और उनकी आज़ादी और सुरक्षा के मुद्दे राष्ट्रीय स्तर पर इतनी शिद्दत से चर्चा और बहस में आए थे? इससे पहले सत्ता प्रतिष्ठान और राजनीतिक वर्ग कब महिलाओं के मुद्दों पर इतने फैसले और घोषणाएं करने के लिए मजबूर हुआ था?
कहने की जरूरत नहीं है कि राजनीतिक विमर्श में महिला और युवा वोटरों की बढ़ती चर्चाओं के बावजूद महिलाओं के मुद्दे राजनीतिक पार्टियों के घोषणापत्रों में अब भी सबसे आखिर में और चलताऊ अंदाज़ जगह पाते रहे हैं.
उन्होंने जिस तरह से पुलिस के डंडों, आंसू गैस और वाटर कैनन का सामना किया, वह नई भारतीय स्त्री की के आगमन की सूचना है. अन्ना हजारे के नेतृत्ववाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में इतनी बड़ी संख्या में महिलाएं नहीं आईं थीं.
उस अनाम बहादुर लड़की की बलात्कारियों के खिलाफ लड़ाई के बावजूद भी लोग अगर घरों-कालेजों-दफ्तरों से बाहर नहीं निकलते तो यकीन मानिए वह भारतीय लोकतंत्र के अंदर बढ़ते संवेदनहीनता के अँधेरे को और गहरा करता, सत्ता और अपराधियों के गठजोड़ का खौफ और बढ़ जाता और लोगों की लाचारी और हताशा और बढ़ती जाती.
इस आंदोलन ने लोगों की इस लाचारी और हताशा को तोड़ा है और साफ़ कर दिया है कि लोकतंत्र में लोगों से उपर कुछ भी नहीं है.
('जनसत्ता' में सम्पादकीय पृष्ठ पर 4 जनवरी को प्रकाशित लेख का पूर्ण रूप)
दिल्ली की वह बहादुर लड़की शरीर और मन पर हुए
प्राणान्तक घावों के बावजूद जीना चाहती थी. देश के करोड़ों लोग भी यही चाहते थे. लेकिन
वह लड़ते हुए एक शहीद की तरह चली गई. यह सही है कि वह भारतीय समाज में स्त्रियों के
खिलाफ होनेवाली बर्बर यौन हिंसा और भेदभाव की पहली शहीद नहीं है और न आखिरी.
उसके
जाने के बाद भी दिल्ली, पंजाब, बिहार, गुजरात से लेकर बंगाल तक से स्त्रियों पर
यौन हिंसा, बलात्कार और हत्या की खबरें आ रही हैं. अखबारों और चैनलों में अब भी
ऐसी ख़बरों की भरमार है. लेकिन इस बार एक बड़ा फर्क है. इस बार अखबारों और
न्यूज चैनलों में स्त्रियों पर होनेवाली बर्बर हिंसा की खबरों से ज्यादा जगह और
सुर्ख़ियों में उसके विरोध की खबरें हैं.
उस बहादुर लड़की के संघर्ष और शहादत ने देश
के लाखों नौजवानों खासकर लड़कियों और आम लोगों में स्त्रियों के खिलाफ होनेवाली
बर्बर हिंसा और आपराधिक भेदभाव के खिलाफ लड़ने का जज्बा भर दिया है. दिल्ली से लेकर
देश भर के छोटे-बड़े शहरों-कस्बों में हजारों-लाखों युवा और आम नागरिक ‘हमें न्याय
चाहिए’ और ‘हमें चाहिए- आज़ादी’ के नारों के साथ सड़कों पर उतर आए हैं.
खासकर दिल्ली में जिस बड़ी संख्या में युवा सड़कों
पर और उसमें भी खासकर सत्ता के केन्द्र रायसीना पहाड़ी, विजय चौक और इंडिया गेट से
लेकर जंतर-मंतर पर उतरकर प्रदर्शन कर रहे हैं और अपना गुस्सा जाहिर कर रहे हैं और
पुलिसिया दमन के बावजूद पीछे हटने को तैयार नहीं हैं, उसने सत्ता प्रतिष्ठान के
साथ-साथ समूचे राजनीतिक वर्ग को एक साथ चौंका और डरा दिया है. हड़बड़ी और घबड़ाहट में केंद्र और दिल्ली सरकार ने कानून में बदलाव और दिल्ली गैंग रेप की जांच के लिए दो न्यायिक आयोग बनाने से लेकर फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने, दिल्ली में सार्वजनिक बसों की संख्या बढ़ाने जैसे कई फैसले किये हैं.
यही नहीं, प्रधानमंत्री से लेकर गृह मंत्री और कांग्रेस
अध्यक्ष तक रोज बलात्कार के खिलाफ कड़े कानून बनाने से लेकर दोषियों को कड़ी से कड़ी
सजा दिलाने के वायदे कर रहे हैं. लेकिन लोगों का गुस्सा थमने का नाम नहीं ले रहा
है.
इंडिया गेट से लेकर विजय चौक तक हजारों की संख्या में पुलिस और अर्द्ध सैनिक
बल तैनात कर सैन्य छावनी बना देने और मेट्रो स्टेशन बंद करने के बावजूद हजारों की
संख्या में नौजवान जंतर-मंतर पहुंचकर शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन कर रहे हैं.
अपना गुस्सा जाहिर करने पहुँच रहे लोगों में छात्र-युवा लड़के और लड़कियों की संख्या
सबसे ज्यादा है लेकिन उसमें ४० से ज्यादा उम्र के पुरुषों और महिलाओं की संख्या भी
अच्छी-खासी है.
असल में, यह एक इन्द्रधनुषी विरोध प्रदर्शन है
जिसमें रैडिकल वामपंथी संगठनों-आइसा, आर.वाई.ए, एपवा और दूसरे वामपंथी संगठन जैसे
एस.एफ.आई, एडवा, एन.आई.एफ.डब्ल्यू आदि से लेकर जे.एन.यू छात्रसंघ तक और अस्मिता
जैसे सांस्कृतिक संगठन से लेकर और जागोरी जैसे नारीवादी संगठनों तक कई
रंगों-विचारों के संगठन हैं तो दूसरी ओर आम आदमी पार्टी से लेकर घोर दक्षिणपंथी
ए.बी.वी.पी जैसे संगठन भी हैं. लेकिन ए.बी.वी.पी जैसे संगठन और बाबा रामदेव जैसे धर्मगुरु को न सिर्फ इस आंदोलन में कोई तवज्जो नहीं मिली है बल्कि लोगों और खासकर युवाओं ने खुद ही अलग-थलग कर दिया है. इसके उलट आइसा-एपवा जैसे रैडिकल-वाम संगठन वहां नेतृत्वकारी भूमिका में हैं और उनके तर्कों और विचारों को सुना जा रहा है.
लेकिन सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि इन संगठनों और उनके कार्यकर्ताओं से कई गुना ज्यादा संख्या में आम नौजवान खासकर लड़कियां और महिलाएं हैं जो खुद वहां पहुँच रही हैं. इनका किसी राजनीतिक संगठन या पार्टी से संबंध नहीं है. वे सभी गुस्से में हैं. उन्हें लगता है कि ‘बस, अब बहुत हो चुका.’ सबके अपने पीड़ादायक अनुभव हैं जो उन्हें उस बहादुर लड़की से जोड़ते हैं, उसकी पीड़ा और बलात्कारियों के खिलाफ संघर्ष में साझीदार बनाते हैं और लड़ने का हौसला और साहस देते हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि इन सभी लड़कियों-महिलाओं
और उनके पुरुष साथियों और परिवारजनों ने चाहे वह घर की बंद चहारदीवारी हो या घर के
बाहर कालोनी-मुहल्ले की सड़क या बस स्टैंड या खुद बस-मेट्रो या बाजार/शापिंग माल्स
या आफिस या स्कूल-कालेज-यूनिवर्सिटी या कोई और सार्वजनिक स्थान- लगभग हर दिन, कम
या ज्यादा अश्लील फब्तियां, यौन उत्पीडन और अत्याचार अंदर जमा होते गुस्से के बावजूद
डरकर और चुपचाप झेला है.
लेकिन दिल्ली गैंग रेप की बर्बरता ने उस डर को तोड़ दिया. उन
हजारों-लाखों युवाओं खासकर लड़कियों को यह समझ में आ चुका है कि लड़ने और घरों से
बाहर निकलकर अपनी आवाज़ बुलंद करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है.
उनका वर्षों से जमा गुस्सा फूट पड़ा है. उस गुस्से
में शुरुआत में बदले की भावना भी दिखी जो न्याय की मांग करते हुए बलात्कारियों को
फांसी की सजा और उनका रासायनिक बधियाकरण करने और कड़े से कड़े कानूनों की मांग कर
रही थी. लेकिन धीरे-धीरे इसमें वह विवेक और तार्किकता बढ़ रही है जो न्याय का मतलब बदला नहीं समझती है, जो यौन हिंसा का समाधान फांसी में नहीं देखती हैं, जो कड़े कानूनों और चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात करने से परे जाकर सरकार, पुलिस, कोर्ट और कानूनों पर हावी उस पुरुषसत्ता और पुरुषवादी सोच को निशाने पर ले रही हैं जो लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ हिंसा और यौन अत्याचारों को कभी घर से बाहर निकलने, कभी फैशन और कपड़ों और कभी संस्कारों आदि के नामपर जायज ठहराने की कोशिश करते हैं. वे ऐसे किसी कुतर्क और बहाने को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं.
आश्चर्य नहीं कि जंतर-मंतर पर हो रहे विरोध
प्रदर्शनों में सबसे ज्यादा युवा खासकर लड़कियां और महिलाएं उस गोलबंदी के साथ
बैठने और नारे लगाने और गीत गाने में जुट रही हैं जिसकी अगुवाई वे प्रगतिशील-वाम
संगठन कर रहे हैं जिसमें बलात्कारियों को फांसी की मांग के बजाय यह नारा लग रहा है
कि ‘हमें क्या चाहिए- बेख़ौफ़ आज़ादी, घर में आज़ादी, रात में-दिन में घूमने-फिरने,
आने-जाने की आज़ादी, काम करने की आज़ादी, स्कूल-कालेज जाने की आज़ादी, सिनेमा जाने की
आज़ादी, प्रेम करने की आज़ादी...आज़ादी-आज़ादी.’ इस प्रक्रिया में उन हजारों युवाओं का
राजनीतिकरण हो रहा है और उन्हें स्त्रियों के खिलाफ बढ़ती हिंसा को देखने और समझने
की दृष्टि मिल रही है.
यहाँ ‘व्यक्तिगत, राजनीतिक बन रहा है और राजनीति,
व्यक्तिगत मामला बन रही है (पर्सनल इज पोलिटिकल, पोलिटिकल इज पर्सनल).’ माफ
कीजियेगा, वे भीड़ नहीं हैं क्योंकि वे एक उद्देश्य के साथ सड़कों पर उतरे हैं. वे ‘अराजकता
के कद्रदान’ (कोनोसुर आफ एनार्की) तो कतई नहीं हैं क्योंकि यह सरकार और प्रशासन की
अपराधियों-माफियाओं के साथ मिलकर पैदा की हुई अराजकता के खिलाफ एक न्यायपूर्ण
व्यवस्था बहाल करने की मांग का आंदोलन है. वे विजय चौक और इंडिया गेट पर भारतीय संविधान या संसद या राष्ट्रपति भवन या नार्थ-साउथ ब्लाक को ध्वस्त करने भी नहीं पहुंचे थे और न ही उनका इरादा राजधानी और सत्ता के शीर्ष पर कोई अराजकता पैदा करना था.
यही नहीं, सरकारी और प्रशासनिक संवेदनहीनता से
नाराजगी और गुस्से के बावजूद वे तालिबानी न्याय के पक्ष में नहीं हैं. अलबत्ता वे
सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों की नींद में खलल जरूर डालना चाहते हैं. वे उनकी
शांति जरूर भंग करना चाहते हैं.
यह भी सच है कि वे समूचे राजनीतिक वर्ग और
सत्ताधारियों से नाराज हैं. उन्हें लगता है और सौ फीसदी सही लगता है कि दिल्ली की
वह बहादुर लड़की उस बस में गैंग रेप का विरोध करती और लड़ती हुई इसलिए मारी गई
क्योंकि अपराधी-लम्पट तत्वों, भ्रष्ट पुलिस और परिवहन विभाग और उनके सबसे बड़े
संरक्षक सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेताओं और राजनीतिक पार्टियों को आमलोगों की कोई
परवाह नहीं है.
अफसोस की बात यह है कि इस जनउभार और धीरे-धीरे
उसके आंदोलन बनने का स्वागत करने के बजाय कई उदार बुद्धिजीवी उससे भयभीत नजर आ रहे
हैं. उन्हें यह एक अराजक भीड़ लग रही है जिसकी आक्रामकता और जल्दबाजी में वे
फासीवादी आहट देख रहे हैं. उन्हें इसमें कानून के राज और व्यवस्था के प्रति खुला
तिरस्कार और मखौल दिख रहा है. उन्हें यह भय सता रहा है कि देश भीड़तंत्र की ओर बढ़ रहा है जोकि देश में पिछले कई दशकों और अनेकों बलिदानों के बाद खड़ा किये गए लोकतांत्रिक व्यवस्था को तहस-नहस कर देगा. उन्हें यह चिंता है कि इस भीड़ की हिम्मत बढ़ती जा रही है, उसने जैसे ‘अव्यवस्था’ फैलाने और ‘हुक्मउदूली’ करने का लाइसेंस हासिल कर लिया है और अपनी शर्तों पर अपनी मांगें मनवाने की कोशिश कर रही है.
सचमुच, उदार बुद्धिजीवियों की इस चिंता से चिंतित
होने और सतर्क होने का समय आ गया है. सवाल यह है कि वे कैसा लोकतंत्र चाहते हैं?
वे कैसी व्यवस्था के पक्ष में खड़े हैं? ये सवाल इसलिए बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि
एक ऐसे समय में जब देश में सत्ता-कार्पोरेट्स गठजोड़ की ओर से लोकतांत्रिक अधिकारों
खासकर अभिव्यक्ति की आज़ादी, विरोध के अधिकार, संगठन बनाने के अधिकार आदि पर संगठित
हमले बढ़ रहे हैं और खुद लोकतंत्र का दायरा सिकुड़ता-संकुचित होता जा रहा है, उस समय
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को अपने ही नागरिकों और उनके सड़क पर उतरने से डर
क्यों लग रहा है?
क्या लोकतंत्र का मतलब सिर्फ पांच साल पर
होनेवाले चुनाव हैं? क्या नागरिकों का काम हर पांच साल पर उपलब्ध विकल्पों में एक
सरकार चुन देना भर है? जाहिर है कि लोकतंत्र का मतलब नागरिकों का राजकाज के
मुद्दों पर चुप रहना नहीं बल्कि सक्रिय भागीदारी है. इस सक्रिय भागीदारी का एक लोकप्रिय रूप विरोध करने का अधिकार भी है. विरोध का अधिकार लोकतंत्र की आत्मा है. इस मायने में दिल्ली में गैंग रेप के खिलाफ भड़के गुस्से और लोगों खासकर युवा लड़के-लड़कियों का सड़क पर उतरना और विरोध जाहिर करना लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है. उसने विरोध करने के अधिकार को फिर से बहाल करने की कोशिश की है.
वे इन विरोध प्रदर्शनों में एक नागरिक के
दायित्वबोध के साथ पहुँच रहे हैं. वे वहां भारतीय लोकतंत्र के एक सजग और सक्रिय
नागरिक की तरह पहुँच रहे हैं और सत्ता प्रतिष्ठान और राजनीतिक वर्ग से हिसाब मांग
रहे हैं.
यही नहीं, उन्हें वहां पहुंचकर विरोध जताने और अपनी आवाज़ उठाने की ताकत
का अहसास हुआ है. युवाओं के इस विरोध और
आंदोलन ने एक भ्रष्ट, जड़, संवेदनहीन व्यवस्था को झकझोर दिया है. इस आंदोलन ने
सत्ता में बैठे नेताओं की जवाबदेही की मांग करके लोकतंत्र को कमजोर नहीं बल्कि
मजबूत किया है. इस आंदोलन ने अपनी तीव्रता के कारण बहुत छोटी अवधि में कई
कामयाबियां हासिल की हैं.
इसकी सबसे बड़ी कामयाबी यह है कि इसने स्त्रियों
के खिलाफ बढ़ती हिंसा से लेकर उनकी आज़ादी, सम्मान और सुरक्षा से जुड़े मसलों को पहली
बार राष्ट्रीय राजनीति के एजेंडे पर सबसे उपर पहुंचा दिया है. याद कीजिए, इससे पहले कब देश में स्त्रियों के खिलाफ हिंसा और उनकी आज़ादी और सुरक्षा के मुद्दे राष्ट्रीय स्तर पर इतनी शिद्दत से चर्चा और बहस में आए थे? इससे पहले सत्ता प्रतिष्ठान और राजनीतिक वर्ग कब महिलाओं के मुद्दों पर इतने फैसले और घोषणाएं करने के लिए मजबूर हुआ था?
कहने की जरूरत नहीं है कि राजनीतिक विमर्श में महिला और युवा वोटरों की बढ़ती चर्चाओं के बावजूद महिलाओं के मुद्दे राजनीतिक पार्टियों के घोषणापत्रों में अब भी सबसे आखिर में और चलताऊ अंदाज़ जगह पाते रहे हैं.
लेकिन इस आंदोलन के बाद राजनीतिक पार्टियों के
लिए महिलाओं के मुद्दों को नजरंदाज कर पाना मुश्किल होगा. इस अर्थ में इस आंदोलन दूसरी
सबसे बड़ी कामयाबी यह है कि इसने संकीर्ण जातिवादी, क्षेत्रीय और सांप्रदायिक
अस्मिताओं का निषेध करते हुए स्त्री अस्मिता की जोरदार दावेदारी की है.
इसने एक
बलात्कार को दूसरे बलात्कार के खिलाफ खड़ा करने, एक आंदोलन को दूसरे के खिलाफ खड़ा
करने और एक मुद्दे के विरुद्ध दूसरे मुद्दे को खड़ा करने की संकीर्ण अस्मितावादी
बुद्धिजीवियों की कोशिशों को भी नाकाम कर दिया है.
इस आंदोलन की तीसरी बड़ी कामयाबी यह है कि लंबे
अरसे बाद किसी आंदोलन में इतनी बड़ी संख्या में और मुखरता के साथ मध्यम और
निम्न-मध्यमवर्गीय महिलाएं खासकर युवा छात्राएं/लड़कियां विरोध प्रदर्शनों में
सड़कों पर उतरी हैं. उन्होंने जिस तरह से पुलिस के डंडों, आंसू गैस और वाटर कैनन का सामना किया, वह नई भारतीय स्त्री की के आगमन की सूचना है. अन्ना हजारे के नेतृत्ववाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में इतनी बड़ी संख्या में महिलाएं नहीं आईं थीं.
इस आंदोलन की चौथी कामयाबी यह है कि इसने महिला
आंदोलन को पुनर्जीवित कर दिया है. इसने महिलाओं को भयमुक्त किया है. उनका आत्मविश्वास
बढ़ा है. उन्हें अब घर की चहारदीवारी में बंद करना मुश्किल है. उनपर अब नैतिकता और
इज्जत की रक्षा के नामपर भांति-भांति की पाबंदियां थोपना आसान नहीं होगा. वे अब और
खुलकर अपनी इच्छाएं जाहिर कर सकेंगी और चुनाव की स्वतंत्रता का इस्तेमाल करेंगी. इस
तरह पितृ-सत्ता को चुनौती बढ़ेगी.
हालाँकि पितृ-सत्ता के खिलाफ यह लड़ाई बहुत लंबी
और कठिन है लेकिन इस आंदोलन ने जिस तरह से महिला आंदोलन को नई ताकत, उर्जा और गति
दी है, उससे यह उम्मीद बढ़ी है कि पितृ-सत्ता के खिलाफ आंदोलन को नया आवेग मिलेगा.
क्या अब भी कहना जरूरी है कि भारतीय लोकतंत्र के
लिए इस आंदोलन से डरने के बजाय इससे आश्वस्त और आशान्वित होने की जरूरत है? सच
पूछिए तो इस आंदोलन ने भारतीय लोकतंत्र और समाज को और बेहतर और जीवंत बनाने में मदद
की है. उस अनाम बहादुर लड़की की बलात्कारियों के खिलाफ लड़ाई के बावजूद भी लोग अगर घरों-कालेजों-दफ्तरों से बाहर नहीं निकलते तो यकीन मानिए वह भारतीय लोकतंत्र के अंदर बढ़ते संवेदनहीनता के अँधेरे को और गहरा करता, सत्ता और अपराधियों के गठजोड़ का खौफ और बढ़ जाता और लोगों की लाचारी और हताशा और बढ़ती जाती.
इस आंदोलन ने लोगों की इस लाचारी और हताशा को तोड़ा है और साफ़ कर दिया है कि लोकतंत्र में लोगों से उपर कुछ भी नहीं है.
('जनसत्ता' में सम्पादकीय पृष्ठ पर 4 जनवरी को प्रकाशित लेख का पूर्ण रूप)
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