सोमवार, मार्च 04, 2013

कार्पोरेट्स और बड़ी पूंजी के लिए है आम आदमी की सरकार का बजट

आम आदमी के हितों पर हावी वित्तीय कठमुल्लावाद

पहली क़िस्त

जैसीकि आशंका थी, यू.पी.ए-२ सरकार का आखिरी बजट भी आवारा विदेशी पूंजी और उसके लठैतों- वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों को समर्पित है. वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने बजट में उन्हें खुश करने के लिए कोई कोर कसर नहीं उठा रखा. उन्होंने इसे छुपाने की कोशिश नहीं की है. अपने बजट भाषण में चिदंबरम ने साफ़-साफ़ कहा कि देश की मौजूदा आर्थिक स्थिति खासकर चालू खाते के घाटे की भरपाई के लिए विदेशी पूंजी को लुभाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है और वह अनिवार्य है.
नतीजा यह कि बजट में विदेशी आवारा पूंजी को खुश करने के लिए उसे न सिर्फ और रियायतें दी गईं हैं बल्कि उसकी सबसे बड़ी मांग राजकोषीय घाटे को कम करने को पूरा करने के लिए सब्सिडी से लेकर योजना बजट में कटौती करने से भी संकोच नहीं किया गया है.
यही नहीं, वित्त मंत्री पी. चिदंबरम बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए कितने बेताब हैं, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि बजट के बाद जब शेयर बाजार लगभग ३०० अंक गिर गया तो अगले दिन खुद वित्त मंत्री सफाई देने के लिए आगे आए कि मारीशस के रास्ते निवेश करनेवालों की नागरिकता पर कोई सवाल नहीं पूछा जाएगा.

इसके साथ ही आर्थिक सुधारों और सब्सिडी में कटौती के प्रति वचनबद्धता को साबित करने के लिए उसी दिन पेट्रोल की कीमतों में प्रति लीटर १.६० रूपये वृद्धि की घोषणा की गई. उल्लेखनीय है कि चिदंबरम ने आवारा और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए वित्त मंत्रालय संभालने के बाद सबसे पहले टैक्स से बचने के तौर-तरीकों पर अंकुश लगानेवाले गार नियमों को स्थगित कर दिया था.

ध्यान रहे कि गार का एलान पूर्व वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने किया था. यही नहीं, चिदंबरम ने प्रणब मुखर्जी के वोडाफोन पर टैक्स लगाने के फैसले को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया था. जाहिर है कि ये सभी फैसले विदेशी निवेशकों को खुश रखने के नामपर किये गए. उसके बाद विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के लिए खुदरा व्यापार से लेकर बीमा-पेंशन क्षेत्र को विदेशी पूंजी के लिए खोलने से लेकर विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई यानी आवारा विदेशी वित्तीय पूंजी) को कई रियायतें/छूट दी गईं.
यही नहीं, बजट पेश करने से ठीक पहले जनवरी महीने में चिदंबरम विदेशी वित्तीय पूंजी के प्रमुख केन्द्रों- हांगकांग, सिंगापुर, लन्दन और फ्रैंकफर्ट में खास तौर पर बड़े विदेशी निवेशकों, बड़े फंड मैनेजरों और निवेश बैंकों के प्रतिनिधियों को भरोसा दिलाने गए कि बजट में उनके हितों और मांगों का पूरा ध्यान रखा जाएगा.
जाहिर है कि बजट से पहले ही बजट की प्राथमिकताएं तय हो चुकी थीं. यू.पी.ए सरकार ने तय कर लिया था कि चुनावों से पहले देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स को खुश करना और उनका भरोसा जीतना ज्यादा जरूरी है. असल में, कांग्रेस नेतृत्व देशी-विदेशी कार्पोरेट्स के भाजपा में प्रधानमंत्री के दावेदार और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के पक्ष में खुलकर खड़े होने से बेचैन और घबराया हुआ है.

यह भी किसी से छुपा नहीं है कि देशी-विदेशी कार्पोरेट्स यू.पी.ए सरकार पर आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने में नाकाम रहने के कारण ‘नीतिगत लकवे’ का आरोप लगाते रहे हैं. नतीजा, यू.पी.ए सरकार ने पिछले छह महीनों में देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स का भरोसा जीतने के लिए आर्थिक सुधारों को आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाया है.

इसलिए ताजा बजट को उसी प्रक्रिया की निरंतरता में देखा जाना चाहिए. इस बजट में वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने समावेशी विकास और महिलाओं, युवाओं, गरीबों, दलितों, आदिवासियों, पिछडों और अल्पसंख्यकों के हितों का ख्याल रखने की चाहे जितनी कसमें खाईं हों लेकिन सच यह है कि यू.पी.ए-२ सरकार का आखिरी बजट पूरी तरह से बड़ी आवारा विदेशी पूंजी और बड़े कार्पोरेट्स के हितों को समर्पित हैं.
आश्चर्य नहीं कि बजट में पेट्रोलियम से लेकर उर्वरक/खाद्य सब्सिडी पर कैंची चलाने और योजना बजट में न के बराबर वृद्धि करने जैसे फैसलों के जरिये राजकोषीय घाटे में कमी करने का गुलाबी मीडिया और बड़े कार्पोरेट्स ने स्वागत किया है.
हालाँकि वित्त मंत्री ने बजट भाषण में दावा किया कि यू.पी.ए सरकार का मूलमंत्र ‘समावेशी और स्थाई विकास के साथ उच्च विकास दर को हासिल करना है’ लेकिन सच यह है कि बजट का मूलमंत्र वित्तीय कठमुल्लावाद यानी किसी भी तरह से राजकोषीय घाटे में कटौती है.

एक ऐसे समय में जब अर्थव्यवस्था की विकास दर गिरकर ५ फीसदी रह गई है, वित्तीय कठमुल्लावाद से प्रेरित इस बजट के कारण यह आशंका बढ़ गई है कि अर्थव्यवस्था और गहरे संकट खासकर मुद्रास्फीति जनित मंदी (स्टैगफ्लेशन) की चपेट में न फंस जाए. कहने की जरूरत नहीं है कि बजट में राजकोषीय घाटे को कम करने पर हद से ज्यादा जोर देने के कारण कटौतियों की गाज सबसे अधिक गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों पर गिरी है.

उदाहरण के लिए, चिदंबरम ने अगले वर्ष के बजट में प्रमुख सब्सिडियों जैसे पेट्रोलियम उत्पादों, उर्वरक और खाद्य के बजट में लगभग २६८८४ करोड़ रूपये की कटौती कर दी है. उल्लेखनीय है कि चालू वित्तीय वर्ष (१२-१३) में इन तीनों मदों पर कुल सब्सिडी २४७८५३ करोड़ रूपये थी जिसे अगले वर्ष (१३-१४) घटाकर २२०९७१ करोड़ रूपये कर दिया गया है.
इसमें सबसे ज्यादा कटौती पेट्रोलियम सब्सिडी में की गई है जिसमें चालू वर्ष की तुलना में ३१८७९ करोड़ रूपये की कटौती करते हुए ९६८७९ करोड़ रूपये से घटाकर मात्र ६५००० करोड़ रूपये कर दिया गया है. इसका सीधा सा अर्थ यह है कि अगले साल भी पेट्रोलियम उत्पादों खासकर पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतें बढ़ती रहेंगी.
इसी तरह बजट भाषण में वित्त मंत्री ने खाद्य सुरक्षा को ‘मूलभूत अधिकार’ और खाद्य सुरक्षा कानून के प्रति यू.पी.ए सरकार की वचनबद्धता का एलान करते हुए भी उसके लिए दिखावे के तौर पर दस हजार करोड़ रूपये दिए हैं. साफ़ है कि २००९ के चुनावों में वायदे के बावजूद यू.पी.ए सरकार खाद्य सुरक्षा कानून को लागू करने को लेकर बहुत उत्साहित नहीं है.

यही कारण है कि खाद्य सुरक्षा को सार्वभौम अधिकार बनाने और सबके लिए भरपेट भोजन की गारंटी करने से मुकर चुकी सरकार सीमित और आधे-अधूरे खाद्य सुरक्षा कानून को भी लागू करने और उसके लिए पर्याप्त बजट प्रावधान करने से कन्नी काट रही है. इससे साफ़ है कि खाद्य सुरक्षा के नामपर गरीबों खासकर भूखमरी के शिकार करोड़ों लोगों के साथ कितना बड़ा मजाक होने जा रहा है.

यही नहीं, यू.पी.ए सरकार मनरेगा की उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटती रहती है. लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार उसकी धीमी मौत का इंतजाम करने में लगी हुई है. उल्लेखनीय है कि मनरेगा का बजट दो साल पहले ४० हजार करोड़ रूपये था लेकिन पिछले दो बजटों से उसके बजट में सात हजार करोड़ रूपये की कटौती करके उसे ३३ हजार करोड़ रूपये कर दिया गया.
हालाँकि इसमें भी वर्ष ११-१२ में २९ हजार करोड़ और १२-१३ में भी २९ हजार करोड़ रूपये खर्च किये गए. अगले साल के बजट में भी चिदंबरम ने ३३ हजार करोड़ रूपये का आवंटन किया है. आश्चर्य नहीं कि मनरेगा में काम देने से लेकर भुगतान करने तक में देरी, अनियमितताओं और भ्रष्टाचार की शिकायतें बढ़ती जा रही हैं.
लेकिन इस बजट में सबसे अधिक गाज योजना बजट पर गिरी है. मजे की बात यह है कि चिदंबरम ने बजट भाषण में योजना बजट खासकर ग्रामीण विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि के लिए भारी आवंटन का दावा किया है. लेकिन यह आंकड़ों की बाजीगरी के अलावा कुछ नहीं है.

सच यह है कि अगले साल के ज्यादातर बजट प्रावधानों को उन्होंने पिछले साल के बजट के संशोधित अनुमानों की तुलना में दिखाया है. इसके कारण शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास से लेकर कुल योजना बजट में वृद्धि ठीक-ठाक दिखती है.

असल में, चिदम्बरम ने पिछले साल अगस्त में वित्त मंत्रालय का कार्यभार संभालने के बाद सबसे पहले राजकोषीय घाटे पर नियंत्रण के नामपर चालू वित्तीय वर्ष (१२-१३) के बजट आवंटन में भारी कटौती कर दी.

नतीजा यह हुआ कि चालू वित्तीय वर्ष (१२-१३) के योजना बजट में जहाँ प्रणब मुखर्जी ने ५२१०२५ करोड रूपये का प्रावधान किया था, उसमें चिदंबरम ने ९१८३८ करोड़ रूपये की कटौती करके उसे मात्र ४२९१८७ करोड़ रूपये कर दिया. यह बजट प्रावधान की तुलना में लगभग १७.६२ फीसदी की कटौती है. दूसरे, यह वर्ष ११-१२ के योजना मद में हुए वास्तविक खर्च ४१२३७५ करोड़ रूपये से मात्र ४.०७ फीसदी अधिक है.
इस तरह अगर चालू वित्तीय वर्ष के योजना बजट अनुमान की तुलना अगले वित्तीय वर्ष के बजट अनुमान से करें तो चिदंबरम ने योजना बजट में सिर्फ ६.५७ फीसदी की वृद्धि की है. लेकिन अगर इस वृद्धि को मौजूदा ७ फीसदी की मुद्रास्फीति दर के सन्दर्भ में देखें तो साफ़ है कि योजना बजट में नकारात्मक वृद्धि हुई है.
लेकिन चिदंबरम ने चतुराई के साथ अगले वित्तीय वर्ष में योजना बजट के अनुमान को चालू वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट से तुलना करते हुए पेश किया है जिसके कारण योजना बजट में लगभग २९ फीसदी की वृद्धि दिखाई देती है. सवाल यह है कि इस बात की क्या गारंटी है कि अगले साल भी योजना बजट में २९ फीसदी की वृद्धि के बावजूद उसमें आगे कटौती नहीं की जायेगी?

असल में, यह कोई नई बात नहीं है. पिछले कई वर्षों से वित्त मंत्री वाहवाही लूटने के लिए योजना बजट में भारी बढ़ोत्तरी का एलान करते हैं लेकिन वास्तव में उसे खर्च नहीं होने देते और घाटे की दुहाई देकर उसमें कटौती कर देते हैं. यह एक सुनियोजित रणनीति बन चुकी है.

सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि योजना बजट में यह भारी कटौती उस साल की गई है, जब अर्थव्यवस्था घरेलू मांग और निवेश में गिरावट के कारण लड़खड़ा रही है, वृद्धि दर में गिरावट आ रही है और उसके गहरे संकट में फंसने का खतरा बढ़ता जा रहा है. लेकिन चिदंबरम ने अर्थव्यवस्था को खतरे में डालकर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी खासकर आवारा पूंजी को खुश करने के लिए योजना बजट में कटौती की है.
इस समय जरूरत यह थी कि सरकार खुद अर्थव्यवस्था खासकर कृषि, इन्फ्रास्ट्रक्चर खासकर सामाजिक इन्फ्रास्ट्रक्चर यानी शिक्षा और स्वास्थ्य में भारी निवेश करती और उससे न सिर्फ युवाओं को रोजगार मिलता और अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ती बल्कि आपूर्ति पक्ष बेहतर होने से महंगाई पर काबू पाना आसान होता.
यही नहीं, इस सार्वजनिक निवेश में बढ़ोत्तरी की इस रणनीति से अर्थव्यवस्था की गति तेज होने का फायदा सरकार को टैक्सों से होनेवाली आय में वृद्धि के रूप में भी मिलता. इससे राजकोषीय घाटा वास्तव में कम होता.

लेकिन इसके उलट वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने विदेशी आवारा पूंजी और उसके वैश्विक पहरेदारों- क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों को खुश करने के लिए राजकोषीय घाटे को जी.डी.पी के ४.८ फीसदी की बेतुकी सीमा में रखने के लिए सब्सिडी से लेकर योजना बजट तक में कटौती की है. इससे बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के अलावा किसे फायदा होगा? उल्टे यह रणनीति अर्थव्यवस्था के साथ-साथ आमलोगों के लिए बहुत भारी पड़ सकती है.

सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि राजकोषीय घाटे को जी.डी.पी के ४.८ फीसदी के दायरे में रखने का फैसला किस आधार पर किया गया है? यही नहीं, वित्त मंत्री ने वर्ष १४-१५ में राजकोषीय घाटे को जी.डी.पी के ४.२ फीसदी, १५-१६ में जी.डी.पी के ३.६ फीसदी और वर्ष १६-१७ में जी.डी.पी के तीन फीसदी करने का एलान कर रखा है.

इसका अर्थ हुआ कि यू.पी.ए और कांग्रेस का अगले साल चुनावों के बाद लगातार तीन सालों तक राजकोषीय घाटे में कटौती के नामपर आमलोगों पर अधिक से अधिक से अधिक बोझ डालने और सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं के बजट में कटौती का इरादा है.

जारी ......

('समकालीन जनमत' के मार्च अंक'13 में प्रकाशित टिप्पणी। यह पूरी टिप्पणी आप पत्रिका में पढ़ सकते हैं) 

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