"इफ इट ब्लीड्स, इट लीड्स.” (अगर खून बहता है तो वह सुर्खी बनता है)
- - - अमेरिकी न्यूजरूम के अंदर का चर्चित कथन
अपने न्यूज चैनलों को यह मानने में अब कोई संकोच
नहीं होना चाहिए कि सनसनी उनके लिए आक्सीजन की तरह हो गई है. सनसनी के बिना वे
निस्तेज और निर्जीव से हो जाते हैं. हालाँकि ऐसे मौके कम आते हैं जब किसी दिन चैनलों
के पास कोई सनसनीखेज घटना, मुद्दा या विवाद न हो क्योंकि वे कुछ सनसनी न होने पर
भी उसे ‘गढ़ने और बनाने’ में माहिर हो गए हैं.
वे सनसनी से ही चलते हैं, सनसनी में
ही जीते हैं और सनसनी में ही फलते-फूलते हैं. नतीजा यह कि वे हमेशा सनसनी की खोज
या उसे गढ़ने में जुटे रहते हैं.
यकीन न हो तो हैदराबाद में बम ब्लास्ट के बाद
न्यूज चैनलों की सनसनीखेज कवरेज को देखिये. ऐसा लगा, जैसे वे इसका ही इंतज़ार कर
रहे थे. मौका मिलते ही उनके सब्र का बाँध टूट पड़ा. बम ब्लास्ट की ब्रेकिंग न्यूज
से लेकर घटनास्थल से आ रहे विजुअल्स को जिस हड़बड़ी और उत्तेजना के साथ पेश किया
गया, उससे साफ़ है कि चैनलों ने अतीत से कोई सबक नहीं सीखा है. नतीजा, सनसनी ने एक बार फिर संयम और अनुपातबोध से लेकर तथ्यों की पुष्टि, क्रास-चेकिंग और छानबीन जैसे पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों को बेमानी सा बना दिया.
हालाँकि इस बार बम ब्लास्ट के लिए जिम्मेदार
आतंकवादी संगठनों/व्यक्तियों के बारे में कयास लगाने के मामले में शुरूआत में अपने
स्वभाव के विपरीत कई चैनलों ने संयम बरता लेकिन वे बहुत देर सब्र नहीं कर पाए.
हालाँकि पुलिस और जांच एजेंसियों ने आन रिकार्ड इस ब्लास्ट के लिए किसी संगठन या
आतंकवादी का नाम नहीं लिया है लेकिन चैनलों पर २४ घंटे के अंदर ब्लास्ट के लिए
जिम्मेदार आतंकवादी संगठन और उनके मास्टर-माइंडस् का खुलकर उल्लेख होने लगा.
यही नहीं, ख़ुफ़िया और जांच एजेंसियों के हवाले से
एक बार फिर चैनलों और अखबारों में ब्लास्ट के लिए इंडियन मुजाहिदीन और उसके सूत्रधारों-
रियाज़ और यासीन भटकल और उनसे जुड़े कई संदिग्धों से लेकर पाकिस्तान और
लश्कर-ए-तोइबा को जिम्मेदार ठहरानेवाली अपुष्ट और आधी-अधूरी रिपोर्टें चलने नहीं
बल्कि दौड़ने और सनसनी मचाने लगीं. चैनलों में एक-दूसरे से आगे रहने की होड़ सी शुरू हो गई. इसका फायदा उठाकर ख़ुफ़िया और जांच एजेंसियों ने चैनलों और अखबारों के ‘खोजी’ रिपोर्टरों के जरिये खूब स्टोरीज ‘प्लांट’ कीं और कर रहे हैं.
यही समय होता है जब चैनलों और अखबारों में
‘समाचार’ और ‘गल्प’ यानी ‘फैक्ट’ और ‘फिक्शन’ के बीच की दीवार बेमानी हो जाती है.
यहाँ तक कि अफवाहें भी ‘खबर’ बनने लगती हैं. इस प्रक्रिया में इन ‘एक्सक्लूसिव
खबरों’ में आई आधी-अधूरी और अपुष्ट जानकारियां दबे-छिपे सांप्रदायिक रंग लेने लगती
हैं.
एक समुदाय विशेष की ओर इशारा होने लगता है. हैदराबाद ब्लास्ट भी इसका अपवाद नहीं
है. जांच एजेंसियों के पास भले कोई ठोस सबूत न हो लेकिन चैनलों की मदद से वे इस
ब्लास्ट के अपराधी तय कर चुकी हैं.
यह और बात है कि इससे पहले हैदराबाद के ही मक्का
मस्जिद ब्लास्ट मामले में ऐसी रिपोर्टिंग के बीच कई निर्दोष मुस्लिम युवाओं की
गिरफ्तारी, यातना और वर्षों जेल में बंद रखने के मामले का खुलासा हो चुका है.
लेकिन ताजा ब्लास्ट की रिपोर्टिंग से साफ़ है कि चैनलों ने इससे कोई सबक नहीं सीखा है. यही नहीं, ऐसी रिपोर्टिंग से जांच एजेंसियों और पुलिस को न सिर्फ जांच की कमियों और नाकामियों पर पर्दा डालने का मौका मिल जाता है बल्कि वे अपनी जिम्मेदारियों से भी साफ़ बच निकलती हैं.
लेकिन सनसनी की पत्रकारिता की यही तो सीमा है.
('तहलका' के 15 मार्च के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)
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