पिछड़े ही नहीं, विकसित राज्यों में भी गैर बराबरी बढ़ी है और मानव विकास के पैमानों पर स्थिति बदतर हुई है
उल्टे ९० के दशक में उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में भारतीय राज्य के अर्थव्यवस्था से पीछे हटने और निजी देशी-विदेशी पूंजी के ड्राइविंग सीट पर आ जाने के बाद से विकसित और पिछड़े बीमारू राज्यों के बीच की खाई और चौड़ी हुई है.
योजना आयोग के मुताबिक, राज्यों के बीच विषमता और गैर बराबरी को मापने वाले गिनी गुणांक के पैमाने पर विकसित और बीमारू राज्यों के बीच १९८१ से ९० के मध्य में औसत गिनी गुणांक ०.१५ था जो १९९१ से २००० के बीच बढ़कर ०.१९ हो गया और २००० से २०१० के बीच और बढ़कर ०.२२ हो गया.
इससे साफ़ है कि तेज आर्थिक वृद्धि के दावों के बावजूद विकसित और बीमारू राज्यों के बीच की खाई बढ़ती ही जा रही है.
शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर पीने के साफ़ पानी और शौचालयों की सुविधा के मामले में बीमारू राज्यों के प्रदर्शन में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है. सच पूछिए तो हाल के वर्षों में बीमारू राज्यों की तीव्र वृद्धि दर के बावजूद मानव विकास के पैमानों पर उनके फीके प्रदर्शन के कारण ऐसा लगता है जैसे बीमारू राज्य किसी दुश्चक्र में फंस गए हैं.
यह किसी से छुपा नहीं है कि बीमारू राज्यों में हाल के वर्षों की तेज आर्थिक वृद्धि दर का फायदा मुट्ठी भर अमीरों, ठेकेदारों, अफसरों और व्यापारियों को मिला है. आप पटना या जयपुर या लखनऊ या भोपाल चले जाइए या इन राज्यों के बड़े शहरों में जाइए, आपको आबादी के एक बहुत छोटे से हिस्से के बीच आई यह समृद्धि उनके आलीशान कोठियों और एस.यू.वी में दिखाई देगी.
लेकिन खुद इन शहरों के अंदर और उससे बाहर गांवों में गरीबी-बीमारी-बेकारी का समुद्र वैसा ही उफनता हुआ दिखेगा.
याद रहे कि औपनिवेशिक दौर से ही पूंजीवादी विकास के माडल के तहत देश के कुछ हिस्सों को सस्ते श्रम के बाड़े में बदल दिया गया जहाँ से ज्यादा विकसित इलाकों के उद्योगों, सेवा और कृषि क्षेत्र को सस्ते मजदूरों की आपूर्ति होती है. बीमारू राज्य उसी सस्ते श्रम के बाड़े बने हुए हैं.
लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि बीमारू राज्यों के राजनीतिक नेतृत्व में यह वैकल्पिक सोच, राजनीतिक और आर्थिकी सिरे से गायब है. उल्टे उनमें जी.डी.पी आधारित वृद्धि दर की अंधी दौड़ में शामिल होने की होड़ सी लगी हुई है.
यह और बात है कि पिछले दो दशकों के अनुभवों से इस अंधी दौड़ के खतरे और सीमाएं साफ़ हो चुकी हैं.
जब ८० के दशक में जाने-माने अर्थशास्त्री और जनसंख्याविद प्रो. आशीष
बोस ने उत्तर भारत के चार राज्यों- बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश
को उनके आर्थिक-सामाजिक पिछडेपन के कारण ‘बीमारू’ राज्य कहा था, तब शायद उन्हें भी
अंदाज़ा नहीं रहा होगा कि इन राज्यों की बीमारी इतनी लंबी चलेगी.
यह सच है कि पिछले
एक दशक में इन ‘बीमारू’ राज्यों की स्थिति में सुधार के संकेत दिखे हैं लेकिन इसके
बावजूद अन्य राज्यों खासकर पश्चिम और दक्षिण भारत के राज्यों की तुलना में उनकी
स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं आया है.
हालाँकि इस बीच कई बीमारू राज्यों खासकर बिहार की जी.डी.पी में औसतन
दोहरे अंकों में वृद्धि का खूब शोर है लेकिन तथ्य यह है कि आर्थिक विकास और मानवीय
विकास से लेकर समावेशी विकास के किसी भी पैमाने पर देश के विकसित राज्यों की तुलना
में इन चारों राज्यों की बुनियादी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है. उल्टे ९० के दशक में उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में भारतीय राज्य के अर्थव्यवस्था से पीछे हटने और निजी देशी-विदेशी पूंजी के ड्राइविंग सीट पर आ जाने के बाद से विकसित और पिछड़े बीमारू राज्यों के बीच की खाई और चौड़ी हुई है.
तथ्य इसकी पुष्टि करते हैं. उदाहरण के लिए, पिछले पांच वर्षों में बिहार
की जी.डी.पी में औसतन दोहरे अंकों की वृद्धि के बावजूद तथ्य यह है कि देश के कुल
जी.डी.पी में बिहार का योगदान या हिस्सा मात्र २.८ फीसदी है जबकि देश की कुल
जनसंख्या में राज्य का हिस्सा ८.२ फीसदी है.
हैरानी की बात नहीं है कि तीव्र
आर्थिक वृद्धि दर के बावजूद बिहार विकास के लगभग सभी पैमानों पर देश के प्रमुख
राज्यों की सूची में आखिरी तीन पायदानों में बना हुआ है. यही नहीं, ग्यारहवीं
पंचवर्षीय योजना (२००७-१२) के दौरान पांच राज्यों- बिहार, झारखण्ड, मध्य प्रदेश,
राजस्थान और उत्तर प्रदेश की औसत जी.डी.पी वृद्धि दर ८.५८ फीसदी रही लेकिन इससे
विकसित राज्यों और बीमारी राज्यों के बीच विकास के विभिन्न पैमानों बनी खाई घटने
के बजाय बढ़ती हुई दिखाई दे रही है.
खुद योजना आयोग मानता है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में देश के अमीर और
गरीब राज्यों के बीच प्रति व्यक्ति आय के मामले में गैर-बराबरी घटने के बजाय बढ़ी
है. योजना आयोग के मुताबिक, राज्यों के बीच विषमता और गैर बराबरी को मापने वाले गिनी गुणांक के पैमाने पर विकसित और बीमारू राज्यों के बीच १९८१ से ९० के मध्य में औसत गिनी गुणांक ०.१५ था जो १९९१ से २००० के बीच बढ़कर ०.१९ हो गया और २००० से २०१० के बीच और बढ़कर ०.२२ हो गया.
इससे साफ़ है कि तेज आर्थिक वृद्धि के दावों के बावजूद विकसित और बीमारू राज्यों के बीच की खाई बढ़ती ही जा रही है.
इसका अंदाज़ा एक और तथ्य से लगाया जा सकता है. सबसे कम प्रति व्यक्ति
आय और सबसे अधिक प्रति आय वाले राज्य के रूप में बिहार और महाराष्ट्र के बीच बिहार
की प्रति व्यक्ति आय बढ़ने के बावजूद इस मामले में दोनों राज्यों के बीच का फर्क घटने
के बजाय बढ़ता जा रहा है.
उदाहरण के लिए, वर्ष २००४-०५ में बीमारू राज्यों में सबसे
बीमार बिहार की प्रति व्यक्ति आय ७९१४ रूपये थी जो पिछले आठ सालों में लगभग दुगुनी
होकर वर्ष २०११-१२ में १५२६८ रूपये हो गई लेकिन इस बीच महाराष्ट्र की प्रति
व्यक्ति आय ६४९५१ रूपये हो गई जोकि बिहार की तुलना में चार गुने से भी ज्यादा है.
लेकिन मुद्दा केवल आर्थिक विषमता या गैर-बराबरी का नहीं है. मानव
विकास के विभिन्न पैमानों पर बीमारू राज्यों की हालत और खराब है. यह कोढ़ में खाज
की तरह है कि मानव विकास के सूचकांक पर देश के सबसे बदतर राज्यों की सूची में
छत्तीसगढ़, ओडीशा, बिहार, मध्य प्रदेश, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश और राजस्थान बने हुए
हैं. शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर पीने के साफ़ पानी और शौचालयों की सुविधा के मामले में बीमारू राज्यों के प्रदर्शन में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है. सच पूछिए तो हाल के वर्षों में बीमारू राज्यों की तीव्र वृद्धि दर के बावजूद मानव विकास के पैमानों पर उनके फीके प्रदर्शन के कारण ऐसा लगता है जैसे बीमारू राज्य किसी दुश्चक्र में फंस गए हैं.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि बीमारू राज्यों की इस स्थिति के लिए
मुख्य तौर पर केन्द्र सरकार की नव उदारवादी आर्थिक नीतियां और विकास का माडल
जिम्मेदार है लेकिन इसके साथ ही यह भी उतना ही सच है कि बीमारू राज्यों के
राजनीतिक नेतृत्व ने भी केन्द्र की नव उदारवादी आर्थिक नीतियों का कोई विकल्प नहीं
पेश किया है और न ही समावेशी और मानव विकास का कोई वैकल्पिक माडल पेश किया है.
यहाँ
तक कि सुशासन और तेज आर्थिक वृद्धि का दावा करनेवाले नीतिश कुमार ने भी समावेशी
विकास का कोई वैकल्पिक माडल पेश करने का जोखिम नहीं लिया है. आश्चर्य नहीं कि
जी.डी.पी में बिहार के औसतन दोहरे अंकों की वृद्धि दर के बावजूद मानव विकास के कई
पैमानों पर उसका प्रदर्शन उतना चमकदार नहीं है.
यही नहीं, आर्थिक विषमता और गैर बराबरी के मामले में जहाँ देश के
विकसित और बीमारू राज्यों के बीच की खाई बढ़ती जा रही है, वहीं खुद बीमारू राज्यों
के अंदर भी विभिन्न क्षेत्रों/जिलों और अमीर-गरीब के बीच आर्थिक गैर बराबरी बढ़ी
है. यह किसी से छुपा नहीं है कि बीमारू राज्यों में हाल के वर्षों की तेज आर्थिक वृद्धि दर का फायदा मुट्ठी भर अमीरों, ठेकेदारों, अफसरों और व्यापारियों को मिला है. आप पटना या जयपुर या लखनऊ या भोपाल चले जाइए या इन राज्यों के बड़े शहरों में जाइए, आपको आबादी के एक बहुत छोटे से हिस्से के बीच आई यह समृद्धि उनके आलीशान कोठियों और एस.यू.वी में दिखाई देगी.
लेकिन खुद इन शहरों के अंदर और उससे बाहर गांवों में गरीबी-बीमारी-बेकारी का समुद्र वैसा ही उफनता हुआ दिखेगा.
निश्चय ही, इसके लिए सिर्फ केन्द्र की नीतियों या भेदभाव को जिम्मेदार
नहीं ठहराया जा सकता है. इसकी जिम्मेदारी मुख्यतः इन राज्यों के राजनीतिक नेतृत्व
पर है जिन्होंने जन समर्थन के बावजूद नीतियों और कार्यक्रमों के मामले में कोई
वैकल्पिक दृष्टि सामने नहीं रखी.
उल्टे गैर बराबरी बढ़ानेवाली नव उदारवादी नीतियों
को ही और बदतर तरीके से लागू किया है जिसका नतीजा सबके सामने है. लेकिन मजे की बात
यह है कि अपनी राजनीतिक और वैचारिक सीमाओं और खामियों को छुपाने के लिए इन राज्यों
के राजनीतिक नेतृत्व ने केन्द्र की नीतियों और बीमारू राज्यों के साथ भेदभाव को
मुद्दा बनाने की राजनीति ज्यादा की है दुश्चक्र को तोड़ने की गंभीर, ईमानदार और
सक्रिय राजनीतिक पहल कम की है.
लेकिन यह कहने का अर्थ यह कतई नहीं है कि बीमारू राज्यों की बीमारी के
लिए ये राज्य और सिर्फ उनका राजनीतिक नेतृत्व जिम्मेदार है. जाहिर है कि ये राज्य
भारत से बाहर नहीं हैं और वे उसी पूंजीवादी राजनीतिक-आर्थिक ढाँचे और नव उदारवादी
आर्थिक नीतियों के हिस्सा हैं जिनका अपरिहार्य नतीजा क्षेत्रीय विषमता, असंतुलन,
गैर बराबरी और अमीर-गरीब के बीच बढ़ती खाई है. याद रहे कि औपनिवेशिक दौर से ही पूंजीवादी विकास के माडल के तहत देश के कुछ हिस्सों को सस्ते श्रम के बाड़े में बदल दिया गया जहाँ से ज्यादा विकसित इलाकों के उद्योगों, सेवा और कृषि क्षेत्र को सस्ते मजदूरों की आपूर्ति होती है. बीमारू राज्य उसी सस्ते श्रम के बाड़े बने हुए हैं.
अफ़सोस की बात यह है कि बीमारू राज्यों की इस नियति में आज़ादी के बाद
चार दशकों तक और आर्थिक सुधारों के दो दशकों बाद भी कोई खास बदलाव नहीं आया है.
बीमारू राज्य काफी हद तक अब भी आंतरिक उपनिवेश से बने हुए हैं.
लेकिन इस दुश्चक्र
को केन्द्र से विशेष राज्य का दर्जा या और अधिक आर्थिक मदद हासिल करके नहीं तोडा
जा सकता है. उदाहरण के लिए कथित विकसित राज्यों के अंदर भी क्षेत्रीय, शहर-गांव,
अमीर-गरीब के बीच गैर बराबरी, विषमता और असमानताएं बढ़ी हैं.
यही नहीं, देश के कई
आर्थिक रूप से विकसित और अमीर राज्यों का मानव विकास के विभिन्न सूचकांकों पर
प्रदर्शन बहुत बदतर है.
इससे पता चलता है कि आर्थिक वृद्धि दर अपने आप में सब कुछ नहीं है
बल्कि उस समृद्धि का लाभ आम गरीबों और पिछड़े इलाकों यानी असली बीमारों तक पहुंचाने
के लिए वैकल्पिक आर्थिक नीतियां और कार्यक्रम भी चाहिए. लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि बीमारू राज्यों के राजनीतिक नेतृत्व में यह वैकल्पिक सोच, राजनीतिक और आर्थिकी सिरे से गायब है. उल्टे उनमें जी.डी.पी आधारित वृद्धि दर की अंधी दौड़ में शामिल होने की होड़ सी लगी हुई है.
यह और बात है कि पिछले दो दशकों के अनुभवों से इस अंधी दौड़ के खतरे और सीमाएं साफ़ हो चुकी हैं.
लेकिन बीमारू प्रदेशों का राजनीतिक नेतृत्व इससे सबक लेने के बजाय इसी
रास्ते पर और तेज दौड़ने की कोशिश कर रहा है. इस कोशिश में वह इस सड़क पर लगे
चेतावनी के संकेतों को भी अनदेखा कर रहा है.
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप परिशिष्ट में 16 मार्च को प्रकाशित टिप्पणी)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें