शुक्रवार, मार्च 08, 2013

न्यूज चैनलों की बहसों की सीमाएं

टी वी बहसें चर्चाओं को अनुदार, ध्रुवीकृत और सीमित करने के अलावा असहिष्णुता की संस्कृति को आगे बढ़ा रही हैं
 
दूसरी और आखिरी क़िस्त 
...असल में, भारत में टी.वी न्यूज के अंदर सनसनी और विवाद पैदा करने की इस प्रवृत्ति के पीछे बुनियादी कारण उसके आर्थिक-बिजनेस ढाँचे/माडल और न्यूजरूम की सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना में निहित है. हुआ यह है कि पिछले डेढ़ दशकों में देश में न्यूज चैनलों की संख्या तेजी से बड़ी है और इसके साथ ही उनके बीच अधिक से अधिक दर्शक खींचने की होड़ तेज और तीखी हुई है.
इसकी वजह यह है कि उनकी आय और राजस्व का मुख्य स्रोत विज्ञापन हैं जो दर्शकों की संख्या और उनकी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि पर निर्भर करते हैं. नतीजा यह कि अधिक से अधिक दर्शक (टी.आर.पी) खींचने के लिए उनमें प्रतिस्पर्द्धा बढ़ती जा रही है बल्कि इस होड़ में पत्रकारिता के मूल्य, नियम और एथिक्स को भी ताक में रखने में हिचक नहीं हो रही है.
यही नहीं, इस होड़ में एक-दूसरे की नक़ल और एक ही जैसी रिपोर्टिंग के साथ-साथ एक जैसे विषयों/मुद्दों/घटनाओं और सबसे बढ़कर एक जैसे नजरिये के साथ प्राइम टाइम बहसों/चर्चाओं की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. इसकी वजह यह है कि सभी न्यूज चैनलों को लगता है कि अगर उन्होंने धारा के विरुद्ध जाकर रिपोर्टिंग की या चर्चाओं/बहसों में मुद्दे उठाये या ख़बरें की तो वे पिछड़ जाएंगे और उनके प्रतिद्वंद्वी सारे दर्शक बटोर ले जाएंगे.

यही कारण है कि जैसे ही एक चैनल किसी विवादस्पद मुद्दे को उठाता है, बाकी भी उसी की ओर लपक पड़ते हैं. दूसरे, दर्शकों का ध्यान लगातार आकर्षित करने के लिए उनपर हमेशा विवादस्पद मुद्दों/घटनाओं/बयानों की खोज का दबाव रहता है.

ऐसे में, जब कोई विवाद या सनसनीखेज घटना नहीं होती है तो वे उससे ‘निर्मित’ (मैन्युफैक्चर) करने तक पहुंच जा रहे हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि ताजा मामलों में भी चैनलों ने सनसनी/विवाद को ‘निर्मित’ करने की कोशिश की है. लेकिन नंदी प्रसंग में न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों की अपढ़ता भी खुलकर सामने आ गई है.
यह किसी से छुपा नहीं है है कि न्यूज मीडिया खासकर चैनलों के अंदर गंभीर पढ़ने-लिखने की प्रवृत्ति कम हुई है और उसमें काम करनेवाले पत्रकारों और संपादकों का रिश्ता भी अकादमिक दुनिया से कमजोर हुआ है. इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि चैनलों में साहित्य और अकादमिक गतिविधियों की कवरेज लगातार कम से कमतर होती गई है. उसकी कवरेज की गुणवत्ता में भी गिरावट आई है.
खासकर न्यूज चैनलों में तो साहित्य और अकादमिक दुनिया एक तरह से अघोषित रूप से प्रतिबंध का शिकार है. शायद ही किसी अखबार या चैनल में साहित्य या अकादमिक जगत को कवर करने के लिए बीट या खास संवाददाता हो. आश्चर्य नहीं कि जब साहित्य या अकादमिक दुनिया में चलनेवाली बहसों को रिपोर्ट करने या उनपर चर्चा करने की बारी आती है तो चैनलों की सीमाएं खुलकर सामने आ जाती हैं.

यही कारण है कि जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में आशीष नंदी के बयान को न सिर्फ सन्दर्भ से काटकर पेश किया गया बल्कि उसे सनसनीखेज बनाने में मीडिया खासकर चैनलों की बड़ी भूमिका था.

यही बात शाहरुख खान के लेख को लेकर भी सामने आई जिसे बिना पूरा सन्दर्भ के पेश किया गया. दोहराने की जरूरत नहीं है कि इन सभी प्रसंगों में मीडिया खासकर न्यूज चैनल खुद विवादों के घेरे में आ गए हैं और उनकी अपढ़ता और सनसनीखेज खबरें निर्मित करने की खतरनाक होती प्रवृत्ति उजागर हुई है.
ऐसा लगता है कि न्यूज चैनल लोगों की समझ को बिगाड़ने के मिशन पर निकल पड़े हैं और समझदारी के खिलाफ पूर्वाग्रह उनके डी.एन.ए में आ गया है. यह समूचे न्यूज मीडिया के लिए खतरे की घंटी है क्योंकि अखबारों में भी धीरे-धीरे चैनलों के नक़ल की प्रवृत्ति बढ़ रही है.
इससे न सिर्फ न्यूज चैनलों बल्कि अखबारों में भी गंभीर बहसों और चर्चाओं के बजाय छिछली बहसों को आगे बढ़ाने और अनावश्यक विवाद खड़ा करने प्रवृत्ति जोर पकड़ने लगी है.
इसके कारण ‘इकनामिक एंड पोलिटिकल वीकली’ (२६ जनवरी’१३)जैसी पत्रिका को यह लगने लगा है कि न्यूज चैनल खुद भारतीय नागरिक समाज के सबसे अतिवादी समूह में तब्दील होने लगे हैं (http://www.epw.in/editorials/frothing-mouth.html).

इसी तरह पिछले दिनों जाने-माने पत्रकार हरीश खरे ने भी न्यूज चैनलों के एकतरफा, पूर्वाग्रहग्रस्त और छिछली चर्चाओं/बहसों को आड़े हाथों लेते हुए ‘द हिंदू’ (६ फरवरी) में लिखा है कि इनके कारण बुद्धिजीवियों और धूर्त-ठगों के बारे में अंतर मिटता जा रहा है. खरे के अनुसार, इन चर्चाओं में जिस तरह से विवादों को गढा और भडकाया जाता है, उसके कारण एक मध्यवर्गीय कठमुल्लावाद को जड़ें ज़माने का मौका मिला है.

आप चाहें तो हरीश खरे की आलोचना से असहमत हो सकते हैं लेकिन इसमें काफी हद तक सच्चाई है कि चुनिन्दा अपवादों को छोड़कर ज्यादातर न्यूज चैनलों पर प्राइम टाइम बहसों का मकसद लोकतांत्रिक संवाद और स्वस्थ चर्चा को प्रोत्साहित करना नहीं बल्कि एक सनसनी पैदा करना, आमतौर पर अनुदारवादी-दक्षिणपंथी सोच को आगे बढ़ाना और लोगों को भ्रमित करना हो गया है.
इस अर्थ में ये चर्चाएं/बहसें समझ पैदा करने के बजाय लोगों का मनोरंजन करने के उद्देश्य से रची-गढ़ी जा रही हैं जिनका दायरा वैचारिक तौर भी लगातार सिकुड़ता जा रहा है. इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अधिकांश बहसों में कुछ गिने-चुने चेहरे और उससे भी सीमित और संकीर्ण विचार पेश किये जाते हैं.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि इस मामले में न्यूज चैनलों का लोकतंत्र बहुत ही ज्यादा संकीर्ण, सीमित, ध्रुवीकृत और दरिद्र है. बमुश्किल कोई सौ नेता/प्रवक्ता/पत्रकार/विशेषज्ञ न्यूज चैनलों के चर्चाकार (टाकिंग हेड्स) के रूप में सभी चैनलों पर नजर आते हैं और विचारों में यह अंतर और भी सीमित, ध्रुवीकृत और संकीर्ण हो जाता है.

यही नहीं, इन चर्चाओं/बहसों में फासीवादी शिव सेना, विहिप, बजरंग दल से लेकर कट्टरपंथी-पोंगापंथी मौलवियों और खाप पंचायतों जैसे मध्ययुगीन शक्तियों को हिंदू और मुस्लिम समाज के प्रतिनिधि के रूप में पेश करके उन्हें एक तरह से सम्मानित किया जाता है, उससे असहिष्णुता को बल मिलता है और उदार और प्रगतिशील शक्तियां पीछे धकेल दी जाती हैं.

जाहिर है कि ये चर्चाएं/बहसें देश में उदार और खुली लोकतांत्रिक चर्चाओं/बहसों को प्रोत्साहित करने के बजाय उन्हें और बंद, अनुदार, ध्रुवीकृत और सीमित करने के अलावा असहिष्णुता की संस्कृति को आगे बढ़ा रही हैं. इससे भारतीय लोकतंत्र समृद्ध और बेहतर नहीं बल्कि दरिद्र और बदतर हो रहा है. 
('कथादेश' के मार्च अंक में प्रकाशित स्तम्भ की आखिरी क़िस्त)          

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