राजनीति में शामिल होनेवाले आशुतोष पहले या आखिरी पत्रकार नहीं हैं
पहली क़िस्त
यही नहीं, उनके आलोचक और विरोधी उनपर राजनीतिक अवसरवाद का आरोप लगा रहे हैं. उनके कई आलोचक उनकी राजनीति को लेकर भी सवाल उठा रहे हैं. उनका आरोप है कि जब वे आई.बी.एन-7 के प्रबंध संपादक थे और पिछले साल चैनल से सैकड़ों पत्रकारों/चैनलकर्मियों की छंटनी की गई तो वे चुप क्यों रहे? क्या उन्हें उस समय अपने सहकर्मियों के साथ खड़े नहीं होना चाहिए था, जैसीकि एक जनपक्षधर और ईमानदार राजनीति का दावा करनेवाले राजनेता से अपेक्षा की जाती है?
मजे की बात यह है कि उनमें से कई चुनाव लड़ने और सांसद रहने के बाद मुख्यधारा की पत्रकारिता में वापस (जैसे एम.जे. अकबर, उदयन शर्मा, सीमा मुस्तफा आदि) भी लौट आए. चन्दन मित्र और संतोष भारतीय जैसे कुछ पत्रकार और नेता दोनों भूमिकाएं निभा रहे हैं. इनके अलावा अशोक टंडन, हरीश खरे, पंकज पचौरी जैसे कुछ पत्रकारों ने पत्रकारिता छोड़कर तत्कालीन प्रधानमंत्रियों के मीडिया सलाहकार का काम भी संभाला है.
लेकिन तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष सूचनाओं का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत न्यूज मीडिया यानी पत्रकारिता है और पत्रकारिता इस अपेक्षा तब तक पूरी नहीं कर सकती है जब तक पत्रकार बिना किसी दबाव या प्रलोभन या संबंध के घटनाओं/समस्याओं/विचारों/मुद्दों को रिपोर्ट करे और लोग उसपर भरोसा करें.
मजे की बात यह है कि अमेरिकी मीडिया और पत्रकारों और यहाँ तक कि अकादमिक समुदाय पर अनुदारवादियों (कंजर्वेटिव/रिपब्लिकनों) की ओर से उदार-वाम (लिबरल, वाम और डेमोक्रेटिक) पूर्वाग्रह या झुकाव का आरोप लगाया जाता रहा है जबकि लिबरलों का आरोप है कि अमेरिकी मीडिया पर अनुदारवादियों का दबदबा बढ़ता जा रहा है और वह उनके पक्ष में झुकता जा रहा है.
यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि पत्रकारों के राजनीति से दूर रहने और निजी रुझानों को जाहिर न करने के पीछे बुनियादी आइडिया यह है कि वे पूरी स्वतंत्रता के साथ और तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष रिपोर्टिंग कर सकें; समाचार, उनके निजी विचारों से प्रभावित न हों और लोगों को सच पता चल सके.
लेकिन ईराक युद्ध समेत अनेक मामलों में यह सच्चाई खुलकर सामने आई कि पत्रकारों से ज्यादा मुख्यधारा के कारपोरेट न्यूज मीडिया ने स्पष्ट रूप से एक वैचारिक-राजनीतिक लाइन ली और पत्रकारों ने उसके मुताबिक और तथ्यों, वस्तुनिष्ठता और निष्पक्षता के ठीक उलट रिपोर्ट किया.
(''कथादेश" के फ़रवरी'14 के लिए लिखी टिप्पणी की पहली क़िस्त। विस्तार से पढ़ने के लिए पत्रिका खरीदें)
पहली क़िस्त
वरिष्ठ पत्रकार, न्यूज एंकर और न्यूज चैनल- आई.बी.एन 7 के प्रबंध संपादक आशुतोष पिछले महीने चैनल से
इस्तीफा देकर आम आदमी पार्टी में शामिल हो गए. ऐसी चर्चा है कि आशुतोष २०१४ के
लोकसभा चुनावों में पार्टी के प्रत्याशी होंगे.
आप पार्टी ने उन्हें अपने
राष्ट्रीय प्रवक्ताओं की सूची में शामिल कर लिया है और आशुतोष पार्टी प्रवक्ता के
बतौर चैनलों पर आम आदमी पार्टी की ओर से पार्टी का बचाव करने के साथ उसका पक्ष
रखने लगे हैं. लेकिन उनके आप पार्टी में शामिल होने के बाद से पत्रकारों और
राजनीति के बीच संबंधों को लेकर बहस फिर शुरू हो गई है और विरोधी आरोप भी लगा रहे
हैं.
सवाल उठ रहे हैं कि क्या आशुतोष पहले से आप पार्टी की राजनीति और
विचारों के समर्थक थे? फिर उनकी पत्रकारिता उनके राजनीतिक विचारों से प्रभावित तो
नहीं थी? कि, क्या यह हितों के टकराव (कन्फ्लिक्ट आफ इंटरेस्ट) का मामला नहीं है?
कि, क्या आशुतोष ने पत्रकारिता के मूल्यों- स्वतंत्रता, वस्तुनिष्ठता और
निष्पक्षता के साथ समझौता नहीं किया है? यही नहीं, उनके आलोचक और विरोधी उनपर राजनीतिक अवसरवाद का आरोप लगा रहे हैं. उनके कई आलोचक उनकी राजनीति को लेकर भी सवाल उठा रहे हैं. उनका आरोप है कि जब वे आई.बी.एन-7 के प्रबंध संपादक थे और पिछले साल चैनल से सैकड़ों पत्रकारों/चैनलकर्मियों की छंटनी की गई तो वे चुप क्यों रहे? क्या उन्हें उस समय अपने सहकर्मियों के साथ खड़े नहीं होना चाहिए था, जैसीकि एक जनपक्षधर और ईमानदार राजनीति का दावा करनेवाले राजनेता से अपेक्षा की जाती है?
खुद आशुतोष ने कुछ टी.वी साक्षात्कारों में अपने बचाव में यह कहा है
कि जब तक वे चैनल में संपादक रहे उन्होंने एक प्रोफेशनल पत्रकार, संपादक/एंकर की
भूमिका और चैनल की रिपोर्टिंग और पत्रकारिता के साथ किसी तरह का समझौता नहीं किया.
उनका यह भी दावा है कि उन्होंने पूरी ईमानदारी से पत्रकारिता की और उसके मूल्यों
के साथ कोई समझौता नहीं किया.
यह भी कि उन्होंने अपनी पत्रकारिता में कोई पक्षपात
नहीं किया और अपनी स्वतंत्रता बनाए रखी. अवसरवाद के आरोपों पर उनका यह तर्क है कि
देश आज बदलाव के जिस ऐतिहासिक दौर से गुजर रहा है, उसमें यह एक अवसर है जिसमें वह
अपना योगदान करने से पीछे नहीं रहना चाहते हैं.
निश्चय ही, आशुतोष न तो पहले पत्रकार हैं जो पत्रकारिता छोड़कर सक्रिय
पार्टी राजनीति में शामिल हो रहे हैं और न ही आखिरी. अगर इतिहास में बहुत पीछे न
भी जाएँ तो पिछले दो-ढाई दशकों में ऐसे पत्रकारों की सूची लंबी है जो कुलवक्ती
पत्रकारिता छोड़कर राजनीति (जैसे एम.जे. अकबर, संतोष भारतीय, सीमा मुस्तफा, उदयन
शर्मा, अरुण शौरी, चन्दन मित्र आदि) में आए. मजे की बात यह है कि उनमें से कई चुनाव लड़ने और सांसद रहने के बाद मुख्यधारा की पत्रकारिता में वापस (जैसे एम.जे. अकबर, उदयन शर्मा, सीमा मुस्तफा आदि) भी लौट आए. चन्दन मित्र और संतोष भारतीय जैसे कुछ पत्रकार और नेता दोनों भूमिकाएं निभा रहे हैं. इनके अलावा अशोक टंडन, हरीश खरे, पंकज पचौरी जैसे कुछ पत्रकारों ने पत्रकारिता छोड़कर तत्कालीन प्रधानमंत्रियों के मीडिया सलाहकार का काम भी संभाला है.
कहने का तात्पर्य यह कि कुलवक्ती पत्रकारिता छोड़कर राजनीति में जाने की
प्रक्रिया नई नहीं है और राजनीति से वापस पत्रकारिता में लौटने या दोनों ही
भूमिकाएं निभाने की मिसालें भी कम नहीं हैं. जाहिर है कि पत्रकारिता से राजनीति और
फिर पत्रकारिता में आवाजाही की इस कड़ी में ही आशुतोष के राजनीति प्रवेश को भी देखा
जाना चाहिए.
लेकिन इसका पत्रकारिता और राजनीति- दोनों के लिए क्या अर्थ है? असल
में, दुनिया के ज्यादातर उदार लोकतंत्रों में पत्रकारिता को एक स्वतंत्र संस्था और
लोकतंत्र के चौथे खम्भे के रूप में देखा जाता है और उससे अपेक्षा की जाती है कि वह
लोकतांत्रिक व्यवस्था की तीन प्रमुख संस्थाओं- विधायिका, कार्यपालिका और
न्यायपालिका के कामकाज पर निगरानी रखेगी और लोगों को उनके क्रियाकलापों के बारे
में तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ, संतुलित और निष्पक्ष समाचार देगी और विभिन्न विचारों
से अवगत कराएगी.
माना जाता है कि इस जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए यह जरूरी है कि
पत्रकारिता न सिर्फ इन तीनों संस्थाओं और उनके प्रभाव/दबाव से मुक्त और स्वतंत्र
रहे बल्कि पत्रकारिता करनेवाले पत्रकार भी उन सभी व्यक्तियों/संस्थाओं/हितों से
स्वतंत्र और मुक्त रहें जिन्हें वे रिपोर्ट या कवर करते हैं. इसकी वजह यह है कि
लोकतंत्र में अपने प्रतिनिधि से लेकर विभिन्न राजनीतिक विकल्पों के बीच चुनाव करते
हुए नागरिकों के लिए तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष सूचनाएं बेहद जरूरी हैं.
लेकिन तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष सूचनाओं का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत न्यूज मीडिया यानी पत्रकारिता है और पत्रकारिता इस अपेक्षा तब तक पूरी नहीं कर सकती है जब तक पत्रकार बिना किसी दबाव या प्रलोभन या संबंध के घटनाओं/समस्याओं/विचारों/मुद्दों को रिपोर्ट करे और लोग उसपर भरोसा करें.
यही कारण है कि अमरीका समेत कई पश्चिमी देशों में प्रोफेशनल पत्रकारों
की पत्रकारीय आचार संहिता का यह अभिन्न हिस्सा है कि वे किसी भी राजनीतिक दल के
सदस्य नहीं हो सकते हैं, किसी भी राजनीतिक पार्टी के कार्यक्रम में हिस्सा नहीं ले
सकते हैं और सार्वजनिक तौर पर किसी भी राजनीतिक पार्टी के प्रति समर्थन या लगाव का
इजहार नहीं कर सकते हैं.
इसके तहत पत्रकारों को किसी राजनीतिक पार्टी को चंदा
देने, उसका बैच लगाने या अपनी गाड़ी पर उसके स्टिकर लगाने पर भी पाबन्दी है. यहाँ
तक कि अधिकांश समाचार संगठनों में पत्रकारों के लिए किसी मुद्दे जैसे महिला अधिकार
या मानवाधिकार या ग्लोबल वार्मिंग से लेकर आक्युपाई वाल स्ट्रीट जैसे पर किसी
स्वतंत्र प्रदर्शन या रैली में हिस्सा लेने या सोशल मीडिया पर निजी राय जाहिर करने
पर भी प्रतिबन्ध है.
आशय यह कि पत्रकार किसी भी रूप में किसी राजनीतिक पार्टी या
विचार या मुद्दे के साथ जुड़े नहीं दिखाई दें और इन सभी को स्वतंत्र रूप से
रिपोर्ट, विश्लेषित और आलोचना कर सकें.
ऐसे एक नहीं, दर्जनों मामले हैं जब न्यूज मीडिया संस्थानों/कंपनियों
ने पत्रकारों को राजनीतिक संबंधों या राजनीतिक मुद्दों पर निजी राय जाहिर करने के
कारण नौकरी से निकाल दिया है. इसके बावजूद अमेरिकी में अधिकांश न्यूज मीडिया
संस्थानों, संपादकों और पत्रकारों पर उदार या अनुदार विचारों और राजनीति के पक्ष
में झुके होने का आरोप लगता रहा है. मजे की बात यह है कि अमेरिकी मीडिया और पत्रकारों और यहाँ तक कि अकादमिक समुदाय पर अनुदारवादियों (कंजर्वेटिव/रिपब्लिकनों) की ओर से उदार-वाम (लिबरल, वाम और डेमोक्रेटिक) पूर्वाग्रह या झुकाव का आरोप लगाया जाता रहा है जबकि लिबरलों का आरोप है कि अमेरिकी मीडिया पर अनुदारवादियों का दबदबा बढ़ता जा रहा है और वह उनके पक्ष में झुकता जा रहा है.
सच यह है कि रूपर्ट मर्डोक के फाक्स न्यूज चैनल और अन्य प्रकाशनों के
नेतृत्व में हाल के वर्षों में अमरीकी न्यूज मीडिया में दक्षिणपंथियों और
अनुदारवादियों का दबदबा लगातार बढ़ा है. यही नहीं, उनकी ओर से अपेक्षाकृत उदार
न्यूज मीडिया संस्थानों और पत्रकारों पर लिबरल पूर्वाग्रह और झुकाव के आरोपों और
लगातार हमलों के कारण इन संस्थानों और पत्रकारों की आवाज़ भी कमजोर पड़ी है.
इसका एक
बड़ा प्रमाण यह है कि ईराक पर हमले से पहले मुख्यधारा के समूचे अमरीकी कारपोरेट
मीडिया ने न सिर्फ हमले का समर्थन किया बल्कि युद्ध के पक्ष में माहौल बनाने में
सक्रिय भूमिका निभाई. उस दौरान अमरीकी न्यूज मीडिया बुश प्रशासन का भोंपू बन गया
था.
यहाँ सवाल सिर्फ उन समाचार माध्यमों के वैचारिक-राजनीतिक स्टैंड का
नहीं है बल्कि मुद्दा यह है कि ईराक पर हमले के मुद्दे पर उनके वैचारिक-राजनीतिक
स्टैंड से क्या उनकी रिपोर्टिंग/न्यूज कवरेज भी प्रभावित हुई? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि पत्रकारों के राजनीति से दूर रहने और निजी रुझानों को जाहिर न करने के पीछे बुनियादी आइडिया यह है कि वे पूरी स्वतंत्रता के साथ और तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष रिपोर्टिंग कर सकें; समाचार, उनके निजी विचारों से प्रभावित न हों और लोगों को सच पता चल सके.
लेकिन ईराक युद्ध समेत अनेक मामलों में यह सच्चाई खुलकर सामने आई कि पत्रकारों से ज्यादा मुख्यधारा के कारपोरेट न्यूज मीडिया ने स्पष्ट रूप से एक वैचारिक-राजनीतिक लाइन ली और पत्रकारों ने उसके मुताबिक और तथ्यों, वस्तुनिष्ठता और निष्पक्षता के ठीक उलट रिपोर्ट किया.
(''कथादेश" के फ़रवरी'14 के लिए लिखी टिप्पणी की पहली क़िस्त। विस्तार से पढ़ने के लिए पत्रिका खरीदें)
1 टिप्पणी:
यह विडम्बना नाहीं तो और क्या है कि सबकी सीमायें निश्चित कर दी जाती हैं। यदि कोई राजनीति के माध्यम से देश सेवा करना चाहता है तो उस पर आपत्ति नहीं होनी चाहिये।
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